फ़ज़ीलते ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-1)
“12वी रबीउल अव्वल शरीफ” ये एक इस्लामी महीना जो ईदे मिलादुन्नबी का महीना कहलाता है। रबीउल अव्वल का मानी बहार का पहला महीना होता है, मुख़्तसर में जश्ने ईदे मिलादुन्नबी अलफ़ाज़ मिलाद जो विलादत से आया है, जिसका मतलब है पैदाइश की जगह और वक़्त बताता है। ये महीना खैरो बरकत, सआदतो का चश्मा है और बे इन्तहा रहमत और पाकीज़गी का महीना है, क्यों के इस महीने की 12वी तारीख को अल्लाह ने प्यारे महबूब रहमतुल्लिल आलमीन ﷺ को पैदा फ़रमाया और मख्लुकात जहानों को पैदा फ़रमाया जैसा की अल्लाह ने अपनी मुक़द्दस किताब क़ुरआन में अलग अलग जगहों पर इरशाद फ़रमाया है :
*ورفعنا لك ذكرك*
हमने बुलंद किया आपके लिये आपके ज़िक्र को! *(سورہ الم نشرح: آیت 4)*
*لَقَدْ جَآءَكُمْ رَسُوْلٌ مِّنْ اَنْفُسِكُمْ*
ऐ मोमिनो तुम्हारे पास अज़मत वाला रसूल तशरीफ़ लाए जो तुम्हारे में से है! (सूरह तौबा आयत-128)
*لَقَدْ مَنَّ اللّٰهُ عَلَى الْمُؤْمِنِیْنَ اِذْ بَعَثَ فِیْهِمْ رَسُوْلًا*
हमने मुसलमानो पर बड़ा एहसान किया की उनमे उन्ही में से एक रसूल भेजा! (सूरह आले इमरान आयत-164)
*وَ اذْكُرُوْا نِعْمَةَ اللّٰهِ*
और अल्लाह के एहसान को याद करो! (सूरह माइदा-7)
*وَ مَاۤ اَرْسَلْنٰكَ اِلَّا رَحْمَةً لِّلْعٰلَمِیْنَ*
हमने तुम्हे सारी कायनात के लिए रहमत बनाकर भेजा। (सूरह अम्बिया आयत-107)
बेशक सरकार ﷺ अल्लाह तआला की नेअमतें उज़्मा है। अल्लाह क़ुरआन में इरशाद फ़रमाता है!
*وَ اَمَّا بِنِعْمَةِ رَبِّكَ فَحَدِّثْ۠*
अपने रब की नेअमतों का खूब चर्चा करो और याद करो अल्लाह की नेअमतों को जो तुम पर है। (الضُّحٰى आयत - 11)
मिलाद शरीफ का माना ये है के सरकार ﷺ का ज़िक्र करना चर्चा करना। अल्लाह ने इन आयत में हुज़ूर ﷺ का ज़िक्र करने का और चर्चा करने का हुक्म फ़रमाया है।
इसी तरह अल्लाह ने अपने प्यारे महबूब ﷺ की तारीफ़ (मिलाद) तमाम आसमानी किताबो में फ़रमाया है। जिसका ज़िक्र ان شاء الله अगली पोस्ट में।
📙 फ़ज़ीलते ईदे मिलादुन्नबी ﷺ सफ़ह - 5
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फ़ज़ीलते ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-2)
_दोंनो आलम के ख़ज़ाने कर दिये हक़ ने अता_
_दो जहां के मालिकों मुख़्तार पर लाखों सलाम_
हुज़ूर ﷺ की इस दुनियां में तशरीफ़ आवरी के मुतअल्लिक़ बहुत सी बशारते है के इन सबको लिखना न मुमकिन है यहाँ हम चन्द बशारतो का बयान करते है जो सही रिवायतों से है, हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की 9 किताबो में अल्लाह ने ये खिताब फ़रमाया है।
अल्लाह तआला फ़रमाता है ऐ आदम एक वक़्त आएगा जब तेरी औलाद में एक नरम दिल और लोगो पर तरस खाने वाला इंसान पैदा होगा। उसका नाम इब्राहीम होगा। वो मेरा एक घर बनाएगा। उस हरमे पाक में ज़मज़म का चश्मा निकल आएगा। ये सिलसिला तेरे उस फ़रज़न्द तक पहोचेगा जो सबसे अफ्ज़ल होगा। जिसका रुतबा सबसे बुलंद होगा। उसका नाम हज़रत मुहम्मद होगा। खूबसूरती में वो सबसे निराला होगा, अच्छाई में वो सबसे आला होगा, वो सबका इमाम होगा, इस शहेर कि इमामत उसी को दी जाएगी, वो पैगम्बर होगा, आली हिम्मत होगा, वो मेरे इस घर के ऐहतराम को फिर ज़िंदा करेगा और क़यामत तक इसे मेरी सिर्फ मेरी इबादत जगह बना देगा। मेरा ये बाँदा आखरी पैगम्बर होगा आखरी रसूल होगा के, इसके बाद फिर कोई पैगम्बर और कोई रसूल न होगा।
ये इबारत हज़रते आदम के सहीफे यानी किताब में है।
📙 फ़ज़ीलते ईदे मिलादुन्नबी ﷺ सफ़ह - 6
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फ़ज़ीलते ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-3)
_ला वा रब्बिल अर्श जिसको जो मिला उनसे मिला_
_बटती हैं क़ौनैंन में नेमत रसूल अल्लाह ﷺ की_
तौरेत अल्लाह तआला ने अपने नबी हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम पर नाज़िल फ़रमाई है, इस मुक़द्दस किताब में भी अल्लाह तआला ने हुज़ूर ﷺ की तारीफ़ (मिलाद बयान की है)
एक सहाबी रसूल फरमाते है की मैंने तौरेत में पढ़ा है के, "हुज़ूर ﷺ गुस्सा न करेंगे, आप का दिल सख्त न होगा, आप बाजार में कभी किसी को उची आवाज़ से न बुलाएंगे, बुराई का बदला बुराई से न देंगे, बल्कि मुआफ़ फरमा देंगे। आप की उम्मत अल्लाह का ज़िक्र करती रहेगी। वो हाथ, पाउ, मुह धो कर और सर का मसह करके वुज़ू करेंगे। उनके मोआज़्ज़िन अजाने देंगे। वो उची इमारतों पर, मीनारों पर खड़े हो कर खुदाकि तकबीर कहेंगे। उनकी खुबिया नमाज़ में और जंग में एक जैसी होगी। वो रात के वक़्त खुदा की इबादत करने खड़े होंगे।
नबी आखिरुज़्ज़मा ﷺ मक्का में पैदा होंगे। मदीने में जाएंगे। आपकी हुक़ूमत मदीने से लेकर मुल्के शाम तक फेली हुई होगी। जान लो के ये मेरा बंदा मोहम्मद होगा। जिसका नाम मुतवक़्क़ल होगा। उसे उस वक़्त तक दुन्या से न उढ़ाऊँगा जब तक के सारे टेढ़े रास्ते उसके सच्चे दिन पर न आ जाएंगे और जूठे मजहब उसके सच्चे मजहब से सीधे न हो जाएंगे। ये इस तरह से होगा के सारे इन्सानो को, जिन्नों को और खुदा कि सारी मख्लूक़ को एक सच्चे दीन कि दावत देगा। एक खुदा की तरफ बुलाएगा। उसकी दावत की बरकत ऐसी होगी के इसकी वजह से में उन आँखों को रौशनी दूंगा जो देख न सकती होगी, उदास दिलो को ख़ुशी दूंगा, दिल के अँधेरे दूर करूँगा और लोगो के सारे मुआमले सुलजा दूंगा।
📙 फ़ज़ीलते ईदे मिलादुन्नबी ﷺ सफ़ह - 7
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फ़ज़ीलते ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-4)
_सरवर कहूँ के मालिको मौला कहूँ तुझे_
_बागे ख़लील का गुले ज़ेबा कहूँ तुझे_
अल्लाह तआला ने अपने फ़ज़लों करम से छोटी बड़ी कमो बेस 104 कितबे मुक़द्दस रसूलों पर नाज़िल फ़रमाई, ताकि उसके बन्दों को हक़ राह मिल सके। हक़ राह को पाने में कोई शक न रहे, जन्नत से निकल के आने वाला इंसान फिर जन्नत में जाने लायक बन सके, शैतान जो उसका दुश्मन है वो उसे गलत राह पे ले जाके उसे दोज़खी न बना दे। इंसान, इंसान बनके ज़िन्दगी बसर करे, अख़लाक़, आदाब से हट के जानवर न बने। बल्कि अपने अख़लाक़ से फरिश्तों से बन के दिखाये! अल्लाह की हक़ीक़ी पहचान मिले और शिर्क और बूत परस्ती से महफूज़ रहे। अल गरज़ अल्लाह के बन्दे उसकी नाज़िल करदा किताबों से उस अल्लाह का हक़ीक़ी बन्दा बन के रहे।
*नबी की ज़रूरत :* अगर सिर्फ किताबे नाज़िल कर दी जाती तो उसे समझने में लोगो को शको सूबा हो सकता था और शैतान गलत माना समझा के लोगो को गलत राह पे ले जा सकता था। तो अल्लाह ने किताबे अपने मुक़द्दस और प्यारे रसूलों पे नाज़िल फ़रमाई और उनको मख़लूक़ से ज़्यादा इल्म अता किया और उन्हें गुनाहों से पाक व मासूम रखा। शैतान से उनकी हिफाज़त की। जिस रसूल पे जो किताब नाज़िल की उस किताब का सच्चा इल्म भी उस नबी को अता फ़रमाया। हबीब रसूलों ने अपने अख़लाक़ व अमलो से लोगो को अल्लाह की मुक़द्दस किताब का इल्म दिया। अल्फ़ाज़ से अगर शक होता तो उनके अमल से उनको जवाब मिल जाता।
📙 क़ुरआन एक जिंदा मोजिज़ा सफ़ह 14
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-5)
_मेरे रज़ा ने ख़त्मे सुखन इस पे कर दिया_
_ख़ालिक़ का बन्दा ख़ल्क़ का आक़ा कहूँ तुझे_
*नबियों की तादाद :* अल्लाह ने दुन्या में कमो बेस एक लाख चौबीस हज़ार नबियों को भेजा। उनमे से 313 को नबुव्वत के साथ रिसालत भी नवाज़ा। यानी वो रसूल भी थे। इससे आप को ये समझ तो आ गया की नबी और रसूल एक नही, दोनों में फर्क है।
*तार्रुफ़ ए नबी :* नबी बसर और मर्द है, जिसको अल्लाह ने उम्मत की रहनुमाई के लिये भेजा और उनपे वही नाज़िल फ़रमाई।
इससे ये मालूम हुआ कि नबी इंसान है कोई फरिश्ता या जिन्न को नबुव्वत नही दी और ये भी जानने को मिला कि इंसानो में भी सिर्फ मर्द है, किसी औरत को नबुव्वत नही दी गई।
*तार्रुफ़ ए रसूल :* रसूल वो है जिनको अल्लाह ने किताब या नये हुक्म अता फरमाये।
इंसानों को नबुव्वत मिली है लेकिन जिनको नबुव्वत मिली वो सभी रसूल नहीं है। रसूल सिर्फ 313 है और अल्लाह की और से 104 किताबे नाज़िल हुई है। (फरिश्तों में भी रसूल है) रसूल होना सिर्फ इंसानों के लिये खास नहीं बल्कि फरिश्तों में भी कुछ को रिसालत दी हुई है। लेकिन औरतो और मर्दो में ज़्यादा फ़ज़ीलत मर्दो को दी हुई है, इसी वजह से औरतों में नबुव्वत और रिसालत नही है। है उनको विलायत मिल सकती है बल्कि कई औरतों को विलायत मिली हुई है।
📙 क़ुरआन एक जिंदा मोजिज़ा सफ़ह 14
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-6)
_जहां बानी अता कर दें भरी ज़न्नत हिबा कर दें_
_नबी मुख़्तारे कुल हैं जिसको जो चाहे अता कर दें_
अल्लाह तआला की नाज़िल करदा किताबे कलामुल्लाह है।ऐसा नही की हमारे आक़ा ﷺ पे जो किताब क़ुरआन उतारा गया वो ही कलामुल्लाह है यानी अल्लाह का कलाम है। बल्कि उसी तरह जितनी किताबे अल्लाह तआला ने अपने मुक़द्दस रसूलों पर नाज़िल फ़रमाई वो सभी किताबे कलामुल्लाह है और ये सभी किताबों पे ईमान लाना ज़रूरी है।
इससे कुछ लोगो को ये शको सूबा है कि जब अगली किताबो की हर बात कैसे क़बूल कर ले, जब कि ये साबित हो चुका है कि उसमें लोगों ने रद्दो बदल कर दिए है।
तो इसका जवाब ये है कि ईमान की दो किसमे है। ① किसी चीज़ पर ईमान , ② उसकी तफसील पर ईमान।
यह शको सूबा दूसरे नंबर से है, तो हम यूँ कहेंगे अल्लाह की किताब पर ईमान लाया, यानी अल्लाह ने किताब नाज़िल की थी उसपे ईमान है। इस से अल्लाह तआला की किताबो पर ईमान लाना मुकम्मल हो जाएगा।
इसी तरह सभी नबियों पर ईमान लाना ज़रूरी है। हर एक पर अलग अलग ईमान का इकरार करना ज़रूरी नही। क्योंकि सभी नबियों के नाम बयान नही किये गये और उनकी तादाद में भी इख़्तेलाफ़ है। तो इतना मानना ज़रूरी है कि में अल्लाह के सभी नबियों पर ईमान लाया हूं।
📙 क़ुरआन एक जिंदा मोजिज़ा
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-7)
_मेरे आक़ा ﷺ की हैं शान सबसे अलग_
_जैसे रुतबे में क़ुरआन सबसे अलग_
_रुतबे में सबसे अफ़ज़ल रुतबा मेरे नबी ﷺ का_
_क़ुरआन हैं मुक़म्मल चेहरा मेरे नबी ﷺ का_
*पहले की किताबों में रद्दो बदल क्यों हुआ?* सवाल ये भी होता है कि, पहले की किताबो में लोगों ने मिलावट क्यूं की और अल्लाह ने इस मिलावट को दूर क्यों न किया ?
अल्लाह तआला ने लोगो की हिदायत के लिये किताबे नाज़िल फ़रमाई। इससे हिदायत और नजात की राह दिखाई। अब लोगों के जिम्मे था कि इन किताबो को मजबूती से थाम लेते और उस पर अमल करते। लेकिन लोग शैतान के बहकावे में आ गए और इस जिम्मेदारी को भूल गये की अल्लाह तआला ने हमे किताब क्यूं अता फ़रमाई और हमे किताब की किस तरह हिफाज़त करनी चाहिये।
दूसरी बात ये की अल्लाह ने जिस क़ौम को किताब अता फ़रमाई जिस की हिफाज़त उस क़ौम के जिम्मे कर दी। अब हुआ यूं के उस क़ौम के आलिम गुरबा व मसाकीन के लिये खुदाई हुक्म देते और जब कोई दौलत मंद की बात आती तो वो उनको बचाने के लिये इसमें रद्दो बदल कर देते। इस तरह के काम उस क़ौम के नबी के दुन्या से जाने के बाद होते रहे।
*हिफाज़त की जिम्मेदारी लोगों को क्यों ?* सवाल ये भी होता है कि इसकी जिम्मेदारी लोगो को क्यों दी अगर अल्लाह तआला अपने जिम्मे रखता तो लोग इसमें रद्दो बदल न करते।
अल्लाह ने लोगों के इम्तेहान के लिए ये जिम्मेदारी क़ौम को दी, की ये मेरी किताब है जो नबी के ज़रिये आप तक पहोंची है। पर क़ौम अल्लाह के इम्तेहान में नाकाम हुए।
दूसरी बात ये है कि अल्लाह فَقَّالُ لِّمَايُرِيْدُ है। उसने ये इरादा किया कि किताब की हिफाज़त क़ौम को दी जाये।
तीसरी बात ये की एक नबी के बाद दूसरा नबी और एक रसूल के बाद दूसरा रसूल आने वाले है। तो जो रद्दो बदल होगा वो दूसरे नबी और रसूल की तालीमात सही हो जाएगा। इसी वजह से क़ौम को ये जिम्मेदारी दी।
📙 क़ुरआन एक जिंदा मोजिज़ा सफ़ह 18
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-8)
_फ़ज़्ले ख़ुदा से साहिबे ज़ीशान हो गया_
_जो खुश नसीब हाफ़िज़े क़ुरआन हो गया_
_उसको जला सके न दोज़ख़ की आग_
_महफूज़ जिसके सीने में क़ुरआन हो गया_
*क़ुरआन की हिफाज़त की जिम्मेदारी अल्लाह ने क्यों ली?*
पहला जवाब तो ये कि अल्लाह فَقَّالُ لِّمَا يُرِيْدُ वो जो चाहे वो फैसला कर सकता है। उसका फैसला क़ुरआन के लिए ये किया कि उसकी हिफाज़त की जिम्मेदारी मेरे जिम्मे करम रखूंगा।
दूसरा जवाब ये की हुज़ूर ﷺ अल्लाह के आखरी नबी और रसूल है। आपके बाद अब कोई नबी या रसूल आने वाले नहीं। तो अब क़ुरआन की जिम्मेदारी लोगों को दे दी जाती तो लोग इस इम्तेहान में नाकाम हो कर दीन में खराबी पैदा कर देते और दीन बर्बाद हो जाता। इस वजह से अल्लाह तआला ने अपने फ़ज़लों करम से हिफाज़त की जिम्मेदारी ली और दीन को खराबी से बचाया।
अल्लाह फरमाता है बेशक! हमने नाज़िल किया ये क़ुरआन और बेशक! हम खुद उसकी हिफाज़त करेंगे।
मुसलमानों के सीने को खोल दिये गए, जब अल्लाह ने क़ुरआन के हिफाज़त की जिम्मेदारी ली तो उसने मुसलमानों के लिये क़ुरआन को याद करना आसान कर दिया।
पहले की किताबो के हाफ़िज़ सिर्फ नबी थे, लेकिन क़ुरआन एक मोजिज़ा है कि कम वक़्त में और कम मेहनत में मुसलमानों के छोटे बच्चों को भी हिफ़्ज़ हो जाए। जिस कलाम के लिये सिर्फ नबी का सीना खोल दिया जाता था, क़ुरआन के लिए सभी मुसलमानों का सीना खोल दिया गया। मुसलमानों की बस्तियों के छोटे से छोटा गांव भी ऐसा न होगा जहां एक क़ुरआन का हाफ़िज़ न हो। आज पूरे जहां में लाखों की तादाद में हाफ़िज़ मौजूद है, जो एक ज़ेर ज़बर की भी गलती नहीं होने देते।
📙 क़ुरआन एक जिंदा मोजिज़ा सफ़ह 20
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-9)
_वो वलिदैन हश्र के दिन होंगे ताजदार_
_जिनका लाडला हाफ़िज़े क़ुरआन हो गया_
_दस ऐसे आदमियों को वो ज़न्नत दिलाएगा_
_दोज़ख़ में जिनके जाने का एलान हो गया_
*क़ुरआन की छपाई :* दुन्या के कोई भी किताब ऐसी नही है जिसको क़ुरआन के जितनी मिक़दार में छपाई हुई हो। दुन्या में सबसे ज़्यादा छपने वाली किताब क़ुरआन है। हर एक मुसलमान के घर मे एक क़ुरआन तो ज़रूर मिलेगा। चाहे उसे तिलावत न आती हो फिर भी वो बरकत की निय्यत से अपने घर मे रखता है। इस एतेबार से दुन्या में काम अज़ कम उतने क़ुरआन तो मौजूद है ही जितने मुसलमान के घर है।
छपाई में गलतियां होती है! कभी कभी ऐसा होता है कि प्रूफ रीडिंग सही तरह न किया जाए तो ज़ेर ज़बर की गलतियां होती है। लेकिन आज तक कोई भी क़ुरआन ऐसा नहीं जिसमे ज़बर ज़ेर की कोई गलती हुई हो और उसे सही न किया गया हो। हाफ़िज़ छपे हुए क़ुरआन की एक बार तिलावत कर के उसे सही कर लेते है और ये भी अल्लाह का फ़ज़लों करम है कि क़ुरआन की छपाई में कभी गलती होती ही नहीं, और अगर होती है तो उसे सही कर लिया जाता है। इसी वजह से क़ुरआन में कभी भी मिलावट नही हो सकती। आज तक कोई इसमें कामयाब न हुआ है और न होगा ان شاء الله. क्योंकि जो चीज़ अल्लाह की हिफाज़त में हो उसमे रद्दो बदल हो नही सकता।
📙 क़ुरआन एक जिंदा मोजिज़ा सफ़ह 21
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-10)
_हम ख़त्में नबुवत पर यूँ पेहरा लगाएंगे_
_क़ानून ए रिसालत पर घर बार लुटाएंगे_
*ताजदारे ख़त्में नबुवत ज़िन्दाबाद ज़िन्दाबाद*
क़ुरआन की हिफाज़त हमारे नबी ﷺ का आखरी नबी होने पर दलील है। अहले सुन्नत व जमाअत का अक़ीदा है और इस पर क़ुरआन की आयत दलील भी है कि हमारे प्यारे आक़ा ﷺ अल्लाह की तरफ से इस दुन्या को सच्ची राह बताने वाले आखरी नबी है। आपके बाद कोई नया नबी नहीं आएंगे और अगर कोई दावा करता है तो वो झूठा कहलाएगा। हमारे नबी के इस दुन्या से पर्दा फरमाने के बाद लोगों ने नबी होने का झूठा दावा किया, लेकिन वो अपनी इस चाल में नाकाम रहे।
जब हमारे नबी ﷺ आखरी नबी हैं और कोई नबी क़यामत तक आने वाले नहीं तो अब अगर क़ुरआन की हिफाज़त न की जाए और उसमें रद्दो बदल हो जाए तो दीन बर्बाद हो जाए, और कोई नबी के न आने पर उसे सही कौन करे? इसी वजह से अल्लाह तआला ने क़ुरआन के हिफाज़त की जिम्मेदारी अपने करम से खुद क़ुबूल फ़रमाई।
इससे बात वाज़ेह हो जाती है कि अल्लाह तआला ने क़ुरआन के हिफाज़त का एलान कर के हमारे नबी के आखरी नबी होने की तरफ इशारा किया है।
📙 क़ुरआन एक जिंदा मोजिज़ा सफ़ह 21
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-11)
_निसार तेरी चहल पहल पर_
_हज़ारों ईदें रबी उल अव्वल_
_सिवाये इब्लीस के जहान में_
_सभी तो खुशियां मना रहे हैं_
*मीलाद शरीफ और क़ुरआन :* हुज़ूर ﷺ की ज़ात व औसाफ व उनके हाल व अक़वाल के बयान को ही मिलादे पाक कहा जाता है, हुज़ूर ﷺ की विलादत की खुशी मनाना ये सिर्फ इंसान का ही खास्सा नहीं है बल्कि तमाम खलक़त उनकी विलादत की खुशी मनाती है बल्कि खुद रब्बे क़ायनात मेरे मुस्तफा जाने रहमत ﷺ का मीलाद पढ़ता है, यहां क़ुरआन की सिर्फ चंद आयतें पेश करता हूं वरना तो पूरा क़ुरआन ही मेरे आक़ा ﷺ की शान से भरा हुआ है मगर कुछ आंख के अंधे और अक़्ल के कोढ़ियों को ये आयतें नहीं दिखतीं और वो लोग इसको भी शिर्क और बिदअत कहते हैं معاذ الله, हवाला मुलाहज़ा फरमायें
कंज़ुल ईमान : वही है जिसने अपना रसूल हिदायत और सच्चे दीन के साथ भेजा
📗 पारा 10, सूरह तौबा, आयत 33
कंज़ुल ईमान : बेशक तुम्हारे पास तशरीफ लायें तुममे से वो रसूल जिन पर तुम्हारा मशक़्क़त में पड़ना गिरां है तुम्हारी भलाई के निहायत चाहने वाले मुसलमानों पर कमाल मेहरबान!
📕 पारा 11,सूरह तौबा,आयत 128
पहली आयत में मौला तआला उन्हें भेजने का ज़िक्र कर रहा है और भेजा उसे जाता है जो पहले से मौजूद हो मतलब साफ है कि महबूब ﷺ पहले से ही आसमान पर या अर्शे आज़म पर या जहां भी रब ने उन्हें रखा वो वहां मौजूद थे,और दूसरी आयत में उनके तशरीफ लाने का और उनके औसाफ का भी बयान फरमा रहा है,क्या ये उसके महबूब ﷺ का मीलाद नहीं है,? क्या अब वहाबी खुदा पर भी हुक्म लगायेगा ?
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-12)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*मीलाद शरीफ और क़ुरआन :* कंज़ुल ईमान - बेशक तुम्हारे पास अल्लाह की तरफ से एक नूर आया और रौशन किताब
📘 पारा 6,सूरह मायदा,आयत 15
यहां नूर से मुराद हुज़ूर ﷺ हैं और किताब से मुराद क़ुरआने मुक़द्दस है।
कंज़ुल ईमान : और याद करो जब ईसा बिन मरियम ने कहा ................. और उन रसूल की बशारत सुनाता हूं जो मेरे बाद तशरीफ लायेंगे उनका नाम अहमद हैं।
*📗 पारा 28,सूरह सफ,आयत 6*
इस आयत में हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम मेरे आक़ा ﷺ का मीलाद पढ़ रहे हैं, क्या अब वहाबी उन पर भी हुक्म लगायेगा ?
कंज़ुल ईमान : और याद करो जब अल्लाह ने पैगम्बरों से अहद लिया. जो मैं तुमको किताब और हिकमत दूं फिर तशरीफ लायें तुम्हारे पास वो रसूल कि तुम्हारी किताब की तस्दीक़ फरमायें तो तुम ज़रूर ज़रूर उन पर ईमान लाना और उनकी मदद करना, क्या तुमने इक़रार किया और उस पर मेरा भारी ज़िम्मा लिया, सब ने अर्ज़ की हमने इक़रार किया फरमाया तो एक दूसरे पर गवाह हो जाओ और मैं खुद तुम्हारे साथ गवाहों में हूं, तो जो कोई इसके बाद फिरे तो वही लोग फासिक़ हैं।
📓 पारा 3,सूरह आले इमरान,आयत 81-82
ये आलमे अरवाह का वाकिया है जहां मौला ने अपने महबूब ﷺ की शान बयान करने के लिए अपने तमाम नबियों को इकठ्ठा कर लिया यानि महफिले मिलाद सजा ली और उनसे फरमा रहा है कि अगर तुम्हारे पास मेरा महबूब ﷺ तशरीफ लायें तो तुम्हे सब कुछ छोड़कर उसकी इत्तेबा करनी होगी,और आखिर के जुम्ले क्या ही क़यामत खेज़ हैं क्या फरमा रहा है कि "जो इस अहद को तोड़े तो वो फासिक़ है" अल्लाह अल्लाह ये कौन कह रहा है हमारा और आप का रब कह रहा है, किससे कह रहा है अपने मासूम नबियों से कह रहा है, क्यों कह रहा है क्योंकि बात उसके महबूब ﷺ की है इसलिए कह रहा है आज हम उसके महबूब का ज़िक्र करें तो मुश्रिक महफिले मीलाद सजायें तो हम मुश्रिक भीड़ इकठ्ठा कर लें तो हम मुश्रिक और रब जो कर रहा है उसका क्या, क्या उस पर भी हुक्म लगेगा वहाबियों??...
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-13)
_अर्शे हक़ है मसनद ए रिफ़्फ़त रसूलल्लाह की_
_देखना है हश्र में इज़्ज़त रसूलल्लाह की_
_तुझसे औऱ जन्नत क्या से क्या मतलब वहाबी दूर हो_
_हम रसूलल्लाह के ज़न्नत रसूलल्लाह की_
*12 रबीउल अव्वल हुज़ूर ﷺ की पैदाइश :* कूछ लोगों का अक़ीदा हैं हुज़ूरे अकदस ﷺ की पैदाइश का दिन 12 रबीउल अव्वल नहीं है बल्कि 9 रबीउल अव्वल है। लिहाज़ा इस दिन क्यों खुशी नहीं मनाते हैं?
हुज़ूर ﷺ की पैदाइश की तारीख के मुतअल्लिक मुअरिंखीन (historians) की राय मुख्तलिफ है मगर जिस तारीख पर हदीस के बहुत से इमामों और ओलमा - ए - केराम ने इत्तिफाकन किया , वो बारह रबीउल अव्वल है। और इसी दिन हम आशिके रसूल अपने आक़ा ﷺ की विलादत का जश्न मानते है हवाले पेशे ख़िदमत हैं।
हाफ़िज़ इब्ने कसीर ( 774 हिजरी ) फ़रमाते हैं "इब्ने अब्बास رضى الله تعالیٰ عنه इरशाद फरमाते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ की विलादत आमे फील पीर के दिन , माह रबीउल अव्वल की 12 तारीख को हुई।
📘 अल - बिदाया वन्निहाया , ज़िल्द 2 ,सफ़ह 282
📒 इब्ने जवाज़ी, शफा 87
इब्ने इस्हाक़ ﺭﺣﻤﺘﻪ ﺍﻟﻠﻪ عليه
85-151 हिजरी
📕 इब्ने हिशाम, जी-1, शफा 158
अल्लामा इब्ने हिशाम ﺭﺣﻤﺘﻪ ﺍﻟﻠﻪ عليه
213 हिजरी
📗 तारीख अल-उमम व अल-मुलुक, जी-2, शफा 125
इमाम इब्ने जारीर तबारी ﺭﺣﻤﺘﻪ ﺍﻟﻠﻪ عليه
224-310 हिजरी
📒 आइलामुन नबुव्वत, शफा 192
अल्लामा अबू अल-हसन अली बिन मुहम्मद अल-मवार्दी ﺭﺣﻤﺘﻪ ﺍﻟﻠﻪ عليه
370-480 हिजरी
📕 आयुन अल-असर, जी-1, शफा 33
इमाम अल-हाफ़िज़ अबू-उल-फतह अल-उन्दालासि ﺭﺣﻤﺘﻪ ﺍﻟﻠﻪ عليه
671-734 हिजरी
📗 इब्ने खलदून, 2/39
अल्लामा इब्न खलदून ﺭﺣﻤﺘﻪ ﺍﻟﻠﻪ عليه
732-808 हिजरी
📕 मुहम्मद रसूलुल्लाह, 1/102
मुहम्मद अस-सादिक़ इब्राहिम अर्जुन ﺭﺣﻤﺘﻪ ﺍﻟﻠﻪ عليه
मदारिजुन नुबुव्वत, 2/14
शैख़ अब्दुल-हक़ मुहद्दिस दहेल्वी ﺭﺣﻤﺘﻪ ﺍﻟﻠﻪ عليه
950-1052 हिजरी
अल-मुवाहिद अल-लदुन्य , 1/88
🌹 इमाम क़ुस्तलानी ﺭﺣﻤﺘﻪ ﺍﻟﻠﻪ عليه
वगैरा वगैरा ज़िक्र की गई किताबों में और दूसरी कई किताबों में यही लिखा है कि आक़ा ﷺ की विलादत पीर के दिन बारह रबीउल अव्वल को हुई।
अब भी अगर मुखालिफ़ीन अब भी ज़िद पर हैं कि विलादत 9 रबीउल अव्वल को हुई तो हम कहते हैं आप 9 तारीख को ही ईद मीलादुन्नबी ﷺ मनाएँ, हमें कोई एतराज़ नहीं।
📙 ईद मिलाद-उन-नबी सवाल वह जवाब की रोशनी में ,सफह 15-16
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-14)
_ऊँचे से ऊँचा नबी का झंडा घर घर में लहराओ_
_पुकारो या रसूल अल्लाह ﷺ_
🇨🇨 झण्डा लगाना सुन्नत है : इमाम सुयूती रहमतुल्लाहि अ़लैहि बयान करते हैं कि " हुज़ूरे अक़दस ﷺ के तशरीफ़ लाने के वक़्त हज़रत जिबरईल अमीन सत्तर हज़ार फ़रिश्तों के झुरमुट में हुज़ूरे अक़दस ﷺ के आस्ताना मुबारक पर तशरीफ़ लाए और जन्नत से तीन झण्डे भी लेकर आए , उनमें से एक झण्डा पूरब में गाड़ा , एक पश्चिम में और एक काबा मुअ़ज़्ज़मा पर
📕 दलाइलुन्नुबुव्वा , हिस्सा 1 पेज 82
_रूहुलअमी ने गाड़ा काबे की छत पे झण्डा ताअर्श उड़ा फरेरा सुबहे शबे विलादत_
मीलादुन्नबी ﷺ पर झण्डा लगाना फ़रिश्तों की सुन्नत है।
📙 ईद मिलाद-उन-नबी सवाल वह जवाब की रोशनी में ,सफह 12
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-15)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*ज़शन पर जुलूस निकालना :* आक़ा ﷺ के लिये जुलूस निकालना कोई नई बात नहीं है बल्कि सहाबा किराम رضى الله تعالیٰ عنهم ने भी जुलूस निकाला है सहीह मुस्लिम की हदीस में है कि जब आक़ा ﷺ हिजरत कर के मदीना तशरीफ ले गए तो लोगों ने खुब जश्न मनाया , तो मर्द व औरत अपने घरों की छत पर चढ़ गए और नौजवान लड़के , गुलाम व खुद्दाम रास्तों में फिरते थे और नार - ए - रिसालत लगाते और कहते या मुहम्मद या रसूलल्लाह ! या मुहम्मद या रसूलल्लाह !
📕 सहीह मुस्लिम , हदीस 7707
एक रिवायत में आता है कि हिज़रते मदीना के मौके पर जब हुज़ूरे अकदस ﷺ मदीना के करीब पहुँचे तो बुरैदा असलमी अपने सत्तर साथियों के साथ दामने इस्लाम से वाबस्ता हुए और अर्ज़ किया कि हुज़ूर मदीना शरीफ में आप का दाखिला झण्डा के साथ होना चाहिये , फिर उन्होंने अपने अमामे को नेज़ा पर डाल कर झण्डा बनाया और हुज़ूर ﷺ के आगे आगे रवाना हुए!
📗 वफ़ाउल - वफा , हिस्सा 1 , पेज 243
यहाँ ये बात भी याद रखने की है कि जुलूस निकालना सकाफ़त का हिस्सा है । दुनिया के हर खित्ते में जुलूस निकाला जाता है , कहीं स्कूल व कॉलेज के मातह़त , तो कहीं सियासी जमाअ़त के मातह़त जुलूस निकाला जाता है। कुछ साल पहले डन्मार्क के एक कार्टूनिस्ट ने नबी - ए - अकरम ﷺ की शान में गुस्ताखी की तो पूरे आलमे इस्लाम में जुलूस निकाला गया और एहतिजाज (प्रदर्शन) किया गया। इसी तरह ईद मीलादुन्नबी ﷺ के मौके पर पूरे आलमे इस्लाम में मुसलमान जुलूस निकालते हैं और आक़ा ﷺ से मुहब्बत का इजहार करते हैं।
📕 ईद मिलाद-उन-नबी सवाल वह जवाब की रोशनी में , सफह 12/13
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-16)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*फ़ज़ीलते ए ईदे मिलादुन्नबी ﷺ :* अबू लहब जो कुफ्र की हालत में मरा, उसका मामला ये था कि उसने रसूलुल्लाह ﷺ की बिअ़स़त के बाद अपनी बाकी बची ज़िन्दगी इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम की मुखालफत में गुज़ारी लेकिन उसके मरने के बाद रसूल ﷺ के चचा हज़रत अब्बास رضى الله تعالیٰ عنه ने उसको ख्वाब में देखा , आप رضى الله تعالیٰ عنه ने उससे पूछा कि मरने के बाद तुझ पर क्या गुज़री ? उसने जवाब दिया कि मैं दिन रात सख्त अज़ाब में मुब्तला हूँ लेकिन जब पीर का दिन आता है तो मेरे अज़ाब में कमी कर दी जाती है और मेरी उँगलियों से पानी जारी हो जाता है, जिसे पी कर मुझे सुकून मिलता है। अज़ाब में कमी की वजह ये है कि मैंने पीर के दिन अपने भतीजे (मुहम्मद ﷺ) की विलादत की खुशखबरी सुन कर अपनी ख़ादिमा सुवैबा को इन उँगलियों का इशारा करते हुए आज़ाद कर दिया था!
📗 सहीह बुखारी , हृदीस 5101
ये वाक़िया हज़रत ज़ैनब बिन्ते अबी सलमा से मरवी है जिसे मुहद्दिसीन की बड़ी तादाद ने मीलाद के वाक़िया के बयान में नक्ल किया है। सहीह बुखारी की रिवायत है , उरवा ने बयान किया है कि सुवैबा अबू लहब की आज़ाद की हुई बाँदी है। अबू लहब ने उसे आज़ाद किया तो उसने नबी - ए - करीम ﷺ को दूध पिलाया! पस जब अबू लहब मर गया तो उसके बाज़ घर वालों को वो बुरे हाल में दिखाया गया। उसने उससे (यानी अबू लहब से) पूछाः "तूने क्या पाया ? " अबू लहब बोला : मैंने तुम्हारे बाद कोई राहत नहीं पाई सिवाए इसके कि सुवैबा को आज़ाद करने की वजह से जो इस (उँगली) से पिलाया जाता है!
📔 सहीह बुखारी , हदीस 5101
शैख़ अ़ब्दुल हक़ मुह़दिस देहलवी (958 - 1052 हिजरी) इस रिवायत को बयान करने के बाद लिखते हैं कि ये रिवायत मीलाद के मौके पर खुशी मनाने और सदक़ा व खैरात करने वालों के लिये दलील और सनद है। अबु लहब जिसकी मज़म्मत (बुराई) में क़ुरआन ए पाक में एक पूरी सूर - ए - नाज़िल हुई जब वो हुज़ूर ﷺ की विलादत की खुशी में लौंडी आज़ाद करके अज़ाब में कमी हासिल कर लेता है तो उस मुसलमान की खुश - नसीबी का क्या आलम होगा जो अपने दिल में रसूल ﷺ की मुहब्बत की वजह से मीलादुन्नबी ﷺ के दिन मुहब्बत और अकीदत का इज़हार करे!
📕 मदारिजुन्नुबुव्वा , हिस्सा 2 , पेज 19
दोस्तो ज़रा गौर करो ! अबू लहब जैसे काफ़िर को जब मीलादुन्नबी ﷺ पर खुशी मनाने पर फाइदा मिला तो हम मुस्तफा ﷺ के आशिक़ क्योंकर महरूम रह सकते हैं ?
📙 ईद मिलाद-उन-नबी सवाल वह जवाब की रोशनी में , सफह 10-11-12
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-17)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
सहाबा किराम رضى الله تعالیٰ عنهم का मीलाद ए महफ़िल मुन्अकिद करना : इमाम बुखारी के उस्ताद इमाम अह़मद बिन हम्बल लिखते हैं : सय्यिदुना अमीर मुआ़विया رضى الله تعالیٰ عنه फ़रमाते हैं : एक रोज़ रसूल ﷺ का अपने असहाब के ह़लके से गुज़र हुआ , आप ﷺ ने फरमायाः क्यों बैठे हो ? उन्होंने कहाः हम अल्लाह तआ़ला का ज़िक्र करने और उसने हमें जो इस्लाम की हिदायत अ़ता फरमाई उस पर हम्द व सना (तारीफ) बयान करने और उसने आप ﷺ को भेज कर हम पर जो एहसान किया है उसका शुक्र अदा करने के लिये बैठे थे। आपने फ़रमायाः अल्लाह की क़सम ! क्या तुम इसी के लिये बैठे थे ? सहाबा ने अर्ज़ कियाः अल्लाह की क़सम ! हम सब इसी के लिये बैठे थे। इस पर आप ﷺ ने फ़रमायाः अभी मेरे पास जिबरईल अ़लैहिस्सलाम आए थे , उन्होंने कहा कि अल्लाह तुम्हारी वजह से फ़िरिश्तों पर फख्र कर रहा हैं।
📔 सुनने नसई , हृदीस : 5443 , अल - मोजमुल कबीर : तिबरानी , हदीसः 16057
इस हदीस से साबित हुआ कि सहाबा हुज़ूर ﷺ की मीलाद (पैदाइश) पर शुक्र अदा करते थे। यहाँ ये बात भी काबिले ज़िक्र है कि जो लोग हुज़ूरे अकदस ﷺ की मीलाद की महफ़िल सजाते हैं और उसमें शरीक होते हैं , अल्लाह ऐसे बन्दों पर फ़िरिश्तों की जमाअ़त में फख्र फ़रमाता है और हाँ ! हुज़ूरे अकदस ﷺ का ज़िक्र अल्लाह ही का ज़िक्र है इस पर क़ुरआन और हुज़ूर की हदीसें गवाह हैं।
📙 ईद मिलाद-उन-नबी सवाल वह जवाब की रोशनी में , सफह 10-11
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-18)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*महफ़िल मिलाद ए मुस्तफ़ा ﷺ :* हज़रत अबू क़तादा رضى الله تعالیٰ عنه से रिवायत है कि रसूले अकरम ﷺ से पीर के दिन रोज़ा रखने के बारे में पूछा गया तो आप ﷺ ने इरशाद फरमायाः" इसी रोज़ मेरी विलादत हुई , इसी रोज़ मेरी बिअ़स़त हुई और इसी रोज़ मेरे ऊपर क़ुरआन नाज़िल किया गया
📕 सहीह मुस्लिम , हदीसः 2807 , सुनने अबू दाऊद , हदीसः 2428 , मुस्नद इमाम अहमद बिन हम्बल , हदीस 23215
इस ह़दीस से साबित हुआ कि रसूलुल्लाह ﷺ ने हर पीर के दिन रोज़ा रख कर अपनी मीलाद का खुद एहतेमाम किया है। लिहाज़ा साबित हुआ कि दिन मुकर्रर करके यादगार मनाना सुन्नत है। الحمد لله
📙 ईद मिलाद-उन-नबी सवाल वह जवाब की रोशनी में , सफह 9
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-19)
_तेरे हबीब का प्यारा चमन किया बर्बाद_
_इलाही निकले ये नजदी बाला मदीने से_
जिस मुकद्दस मकान में हुज़ूर अक़्दस ﷺ की विलादत हुई, तारीखे इस्लाम में उस मुकाम का नाम ("मिलादुन्नबी )" (नबी की पैदाइश की जगह) है, यह बहुत ही मुतबकि मक़ाम है। सलातीने इस्लाम ने इस मुबारक यादगार पर बहुत ही शानदार इमारत बना दी थी, जहां अहले हरमैने शरीफैन और तमाम दुन्या से आने वाले मुसलमान दिन रात महफिले मीलाद शरीफ़ मुन्अकिद करते और सलातो सलाम पढ़ते रहते थे। चुनान्चे हज़रते शाह वलियुल्लाह साहिब मुहद्दिस देहलवी ने अपनी किताब “फुयूजुल हरमैन" में तहरीर फ़रमाया है कि मैं एक मरतबा उस महफ़िले मीलाद में हाजिर हुवा, जो मक्कए मुकर्रमा में बारहवीं रबीउल अव्वल को "मिलादुन्नबी में मुन्अकिद हुई थी जिस वक्त विलादत का ज़िक्र पढा जा रहा था तो मैं ने देखा कि यक बारगी उस मजलिस से कुछ अन्वार बुलन्द हुए, मैंने उन अन्वार पर गौर किया तो मालूम हुवा कि वोह रहमते इलाही और उन फ़िरिश्तों के अन्वार थे जो ऐसी महफ़िलों में हाज़िर हुवा करते हैं।
जब हिजाज़ पर नज्दी हुकूमत का तसल्लुत हुवा तो मकाबिरे जन्नतुल मला व जन्नतुल बको के गुम्बदों के साथ साथ नजदी हुकूमत ने इस मुकद्दस यादगार को भी तोड़ फोड़ कर मिस्मार कर दिया। और बरसों येह मुबारक मक़ाम वीरान पड़ा रहा, मगर मैं जब जून सि. 1959 ई. में इस मर्कने खैरो बरकत की जियारत के लिये हाज़िर हुवा तो मैं ने उस जगह एक छेटी सी बिल्डिग देखी जो मुकम्फल थी। बाज़ अरबों ने बताया कि अब इस बिल्डिंग में एक मुख्तसर सी
लाएब्रेरी और एक छोटा सा मक्तब है, अब इस जगह न मीलाद शरीफ़ हो सकता है न सलातो सलाम पढ़ने की इजाजत है। मैं ने अपने साथियों के साथ बिल्डिग से कुछ दूर खड़े हो कर चुपके चुपके सलातो सलाम पढ़ा, और मुझ पर ऐसी रिक्कत तारी हुई कि मैं कुछ देर तक
रोता रहा।
*⚠ नोट* ये पोस्ट शेखुल-हदीस हज़रत अल्लामा अब्दुल मुस्तफा आजमी رحمۃ اللہ تعالٰی علیہ की किताब सीरते मुस्तफा ﷺ से है!
📙 सीरते मुस्तफा ﷺ सफ़ह 72
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-20)
_वो बशर लाइक-ए-एहतिराम नहीं_
_जिसके लब पर मेरे नबीﷺ का नाम नहीं_
_जिसका खाते हैं उसका गाते हैं_
_हम सुन्नी हैं नमक हराम नहीं_
हज़रते अब्दुल्लाह ये हमारे आक़ा ﷺ के वालीदे माजिद है। ये अब्दुल मुत्तलिब के तमाम बेटो में सबसे ज़्यादा बाप के लाडले थे। चुकी इन की पेशानी में नुरे मुहम्मदी अपनी पूरी शानो शौकत के साथ जल्वा गर था इसलिये हुस्नो खूबी के पैकर, और जमाल सूरत व कमाल सीरत के आइना दार और ईफ्कत व पारसाई में यक्ताए रोज़कार थे।
एक दिन आप शिकार के लिए जंगल में तशरीफ़ ले गए थे मुल्क शाम के यहूदी चन्द अलामतो से पहचान गए थे के नबिय्ये आखिरुज़्ज़मा के वालिद माजिद यही है। चुनांचे उन यहूदियो ने आप को बारह कत्ल कर डालने की कोशिश की। इस मर्तबा भी यहूदियो की एक बहुत बड़ी जमात मुसल्लह हो कर इस निय्यत से जंगल में गई की आप को तन्हाई में धोके से कत्ल कर दिया जाए।
मगर अल्लाह ने इस मर्तबा भी अपने फज़लो करम से बचा लिया। आलमे गैब से चन्द ऐसे सुवार ना गहा नमूदार हुए जो इस दुनिया से कोई मूशा-बहत ही नहीं रखते थे। इन सुवारोने आ कर यहूदियो को मार भगाया और आप को ब हिफाज़त उनके मकान तक पहुचा दिया।
वहब बिन मनाफ भी उस जंगल में थे और उन्होंने अपनी आँखोसे ये सब कुछ देखा। इसलिए उनको हज़रते अब्दुल्लाह से बे इंतिहा मोहब्बत व अकीदत पैदा हो गई।
और घर आ कर ये अज़्म कर लिया की मैं अपनी नुरे नज़र हज़रते आमिना की शादी हज़रते अब्दुल्लाह ही से करूँगा।
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-21)
_वो बशर लाइक-ए-एहतिराम नहीं_
_जिसके लब पर मेरे नबीﷺ का नाम नहीं_
_जिसका खाते हैं उसका गाते हैं!_
_हम सुन्नी हैं नमक हराम नहीं_
हज़रते अब्दुल्लाह चुनांचे अपनी इस दिली तमन्ना को वहब बिन मनाफ ने अपने दोस्तों के ज़रिये अब्दुल मुत्तलिब तक पोहचा दिया। अब्दुल मुत्तलिब ने इस रिश्ते को ख़ुशी से मंज़ूर कर लिया।
24 साल की उम्र में हज़रत अब्दुल्लाह का हज़रते बीबी आमिना से निकाह हो गया और नुरे मुहम्मदी हज़रते अब्दुल्लाह से मुन्तक़िल हो कर हज़रते बीबी आमिना की शीकमे अतहर में जल्वा गर हो गया।
जब हम्ल शरीफ दो महीने पुरे हो गए तो अब्दुल मुत्तलिब ने हज़रते अब्दुल्लाह को तिज़ारत के लिए मुल्क शाम रवाना किया, यहाँ से वापस लौटते हुए मदीना में अपने वालिद के नन्हाल में एक माह बीमार रह कर 25 साल की उम्र में वफ़ात पा गए। और वही "दारे नाबिगा" में मदफुन हुए।
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-22)
_जहां बानी अता कर दें भरी ज़न्नत हिबा कर दें_
_नबी मुख़्तारे कुल है जिसको जो चाहे अता कर दें_
*आप ﷺ के मोअज़्जा :* आप ﷺ का सब से बड़ा मोअज़्जा क़ुरआन शरीफ है। इसके अलावा बहुत सारे मोअज़्जात हैं उन में से कुछ ये है।
आप ﷺ के जिस्म-ए-अक़दस पे कभी मच्छर और मक्खी नहीं बैठ’ती थी।
आप ﷺ जैसे अपने आगे की चीज़ों को देखते थे वैसे ही अपने पीछे की चीज़ों को भी देखते थे।
आप ﷺ के पसीने से खुशबु आती थी।
आप ﷺ अगर खारे पानी (साल्ट वाटर) में अपना लुआब-ए-दहन डाल देते थे तो वह मीठा हो जाता था।
आप ﷺ जानवरों और पथ्थरों की आवाज़ को भी सुनते और समझते थे
आप ﷺ जिस बच्चे के सर पर हाथ डाल देते थे वह दिन भर खुशबु से महकता रहता था।
आप ﷺ दूर-व-नज़दीक की आवाज़ें को सुनते थे और लाखों कोसों दूर की चीज़ों को भी देख लेते थे।
आप ﷺ ने अपनी ऊँगली के इशारे से चाँद को दो टुकड़े कर दिया।
आप ﷺ ने डूबे हुए सूरज को लौटा कर असर के वक़्त पर कर दिया।
आप ﷺ ने कम खाने में बहुत ज़ियादह लोगो को खिलाया।
आप ﷺ ने लकड़ी को लोहे का तलवार बना दिया।
आप ﷺ रात के थोड़े से वक़्त में सातों आसमान के ऊपर गए और फिर चले आए।
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-23)
_जहां बानी अता कर दें भरी ज़न्नत हिबा कर दें_
_नबी मुख़्तारे कुल है जिसको जो चाहे अता कर दें_
*आप ﷺ की सखावत :* हज़रत-ए- जाबिर رضى الله تعالیٰ عنه बयान करते हैं कि कभी ऐसा नहीं हुआ की आप ﷺ से किसी ने कोई चीज़ माँगा हो और आपने “नहीं” फ़रमाया हो।
📔 सही मुस्लिम, हदीस नंबर 2311
_वाह किया ज़ूदों -करम है शाहे बतहा तेरा_
_नही ! सुनता ही नहीं माँगने वाला तेरा_
एक मर्तबा हुज़ूर ﷺ के पास 90 हज़ार चांदी के सिक्के आए। तो आप ﷺ ने फ़रमाया की इन सब को चटाई पर रख दो फिर उसे बाँटने के लिए हुज़ूर खुद खड़े हुए, ज़ो शख्स भी आया उसे आप ने अता फ़रमाया यहाँ तक की वह सारे सिक्के ख़त्म हो गए। उसके बाद एक माँगने वाला आया। तो आप ﷺ ने फ़रमाया की मेरे पास तो अब कोई चीज़ नहीं है। तुम ऐसा करो की फलां दूकानदार के पास जा कर अपनी ज़रूरत की चीज़ें ले लो। दुकान-दार को मैं क़ीमत अदा कर दूंगा। इस पर हज़रत-ए-उमर رضى الله تعالیٰ عنه ने कहा की या रसूलुल्लाह ﷺ अल्लाह तआला ने आप पर ये ज़रूरी नहीं किया है की आप के पास नहीं हो तब भी आप दें। आप ﷺ को ये बात पसंद नहीं आई जिस का असर आप के चेहरे से भी ज़ाहिर हुआ।एक अंसारी सहाबी वहां हाज़िर थे उन्होंने अर्ज़ किया ए अल्लाह के प्यारे रसूल! आप खर्च करते रहिये आप का रब जो सारी दुनिया का मालिक है, अप को देने में कभी कमी नहीं फ़रमाएगा। हुज़ूर ﷺ ये बात सुन कर मुस्कुराने लगे और आप ने फ़रमाया की हाँ मुझे इसी का हुक्म दिया गया है की मैं लोगो को नवाज़ता रहूं।
हज़रत-ए-मुआवविज़ बिन अफरा बयांन करते हैं की मैं एक बर्तन में ताज़ा खजूर भर कर हुज़ूर के पास ले गया तो आप ﷺ ने मुझे मुट्ठी भर कर सोना और चांदी अता फ़रमाया।
हज़रत-ए-अनस رضى الله تعالیٰ عنه बयांन करते हैं की हुज़ूर ﷺ कल के लिए कुछ भी बचा कर नहीं रखते थे।
📙 तलख़ीस : जियाउन नबी ज़िल्द 5 सफ़ह 522
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-24)
_जहां बानी अता कर दें भरी ज़न्नत हिबा कर दें_
_नबी मुख़्तारे कुल है जिसको जो चाहे अता कर दें_
*आप ﷺ की अद्ल व इंसाफ़ :* आप ﷺ हर किसी के साथ अद्ल व इन्साफ फ़रमाते थे चाहे वह दोस्त हो या दुश्मन अपना हो या पराया।
एक बार आप ﷺ के कबीला बनू हाशिम की एक औरत ने चोरी कर ली तो बड़े बड़े लोगों ने उसकी सजा माफ़ करने की शिफारिश की और कहा की ये औरत हमारे क़ाबिले की है अगर इस का हाथ काट दिया जाएगा तो इस से हमारे क़ाबिले की पूरे अरब में बड़ी बे-इज़्ज़ती और बद-नामी होगी उस वक़्त हुज़ूर ﷺ गुस्से में आ गए और इर्शाद फ़रमाया के अगर मेरी सब से चाहिती बेटी फ़ातिमा भी चोरी करेगी तो मैं उसका भी हाथ काट लूंगा।
📔 सहीह बुख़ारी हदीस हदीस नंबर 6788
*⚠नोट* आज जब कोई मामला हो जाता है तो आम तौर से लोग अपने रिश्तेदार दोस्त और जान पहचान के लोगों की तरफ’दारी करते हैं और उसकी हिमायत (फवौर) में बोलते हैं अगरचे वह गलती पर होता है ये हुजूर ﷺ का तरीक़ा नहीं है। एक मुसलमान को चाहिए के वह हर हाल में अद्ल-व-इन्साफ करे और सिर्फ हक़ का साथ दे क्योंकि हुजूर ﷺ का यही तरीक़ा है और इसी को अपनाने में हमारी निजात है।
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-25)
_मुश्किल थे रास्ते आसान हो गए_
_दुश्मन भी देख कर हैरान हो गए_
_जब रखा मेरे नबी ﷺ ने दुनिया मे क़दम_
_पत्थर भी कलमा पढ़कर मुसलमान हो गए_
*आप ﷺ की अमन पसंदी :* आप ﷺ अपनी पूरी ज़िन्दगी अमन और इंसानियत का माहौल बनाने के लिए लोगो के अंदर से उन तमाम बुराइयों को दूर फ़रमाया जिस से किसी भी तरह अमन और इंसानियत को नुक़सान पहुँचता है। जैसे झूट, धोका, घमंड, वादा खिलाफी, ज़ुल्म , लडाई झगड़ा और खून खराबा वगैरह। और हर उस चीज़ को अपने किरदार और बातों से बढ़ावा दिया जिस से अमन और इंसानीयत का परचार होता है। जैसे सारे लोगो पर रहम करना। किसी के लिए बुरा नहीं सोचना, ज़ात पात और रंग-व-नस्ल की बुन्याद पर कोई फ़र्क़ नहीं करना, सब के साथ अच्छे अख़लाक़ से पेश आना, अपनी ज़ात से दुसरों को फ़ायदा पहुचाना, ख़ास तौर से कमज़ोर और गरीब लोगो की मदद करना और उन की इज़्ज़त की हिफ़ाज़त करना वगैरह। और आप ﷺ अपनी बारगाह में उन्ही लोगों को बड़ा रुतबा देते थे जो लोगो को ज़ियादह से ज़ियादह फायदा पहुँचाने में आगे आगे रहते थे।
जैसा की हज़रत इमाम हसन رضى الله تعالیٰ عنه बयां करते हैं की “आप ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर होने वाले लोग मख्लूक़ के बेहतरीन लोग होते थे और आप ﷺ के नज़दीक अफ़ज़ल वही होता था जिसकी खैर-ख़्वाही आम हो या'नी जो हर शख्स की भलाई चाहता हो और आप के नज़दीक बड़े रुतबे वाला वही शख्स होता था जो लोगों की मदद में ज़ियादह हिस्सा लेता था।
📒 शामिल-ए-तिर्मिज़ी हदीस 314
*⚠ नोट* आज भी हुज़ूर ﷺ की नज़र में अफ़ज़ल और बड़े रुत्बे वाला वही शख्स होगा जो हर शख्स की भलाई चाहता हो इसलिए हमें भी नबी ﷺ की सीरत के मुताल्लिक़ ज़िन्दगी गुज़ारनी चाहिए।
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-26)
_लोगों नबी ﷺ की ऑखों की ठंडक नमाज़ है_
_फिर क्यूं न हम भी लूटें ये मौका नियाज़ का_
*आप ﷺ की नमाज़ें :* आप ﷺ को नमाज़ो से बड़ी मोहब्बत थी जैसा कि आप ﷺ ने खुद फ़रमाया की मेरी आँखों की ठण्डक नमाज़ में है। या'नी मुझे नमाज़ से बड़ी ख़ुशी होती है। इस लिए आप ﷺ पांच वक़्त की नमाज़ के इलावा नमाज़े इशराक, नमाज़े चास्त, तहियातुल वुज़ू, तहियातुल मस्जिद , सलातुल आव्वाबीन, नमाज़े हाजत, सलातुल तसबीह वगैरह की भी नमाज़े अदा फ़रमाया करते थे। इस के इलावा रातों को जागकर भी नफ़्ल नमाज़ें पढ़ा करते थे और तहज्जुद की नमाज़ पूरी ज़िन्दगी पाबन्दी के साथ अदा फ़रमाते रहे।
जब आप ﷺ लोगों को नमाज़ पढाते तो हल्की नमाज़ पढ़ते मगर जब अकेले नमाज़ पढ़ते तो बड़ी लम्बी नमाज़ पढते।
हजरत-ए-अब्दुल्लाह बिन मसूद رضى الله تعالیٰ عنه बयांन करते हैं की एक रात जब हुज़ूर ﷺ अकेले नमाज़ पढ़ रहे थे तो मैं भी आप के साथ नमाज़ के लिए खड़ा हो गया। मगर हुज़ूर ﷺ इतनी देर तक खड़े रह गए की मैं ने एक बुरी चीज़ का ईरादा कर लिया। लोगो ने पुछा की आप ने क्या इरादा कर लिया ? तो उन्होंने कहा की मैंने ये इरादा किया की मैं बैठ जाऊं और हुज़ूर ﷺ को खड़ा ही छोड़ दुं। (मगर मैं ने ऐसा सिर्फ हुज़ूर ﷺ की ताज़ीम की गरज़ से नहीं किया)
📙 सहीह बुख़ारी,हदीस नंबर 1135
बिल-खुसुस रमज़ान के महीने में जब आप ﷺ नमाज़ पढ़ते तो फिर इतनी लम्बी नमाज़ पढ़ते की आप ﷺ के क़दमे मुबारक में सुजन आ जाता था। और जब हुज़ूर ﷺ को इस पर टोका जाता की आप को इतनी लम्बी नमाज़ पढ़ने की क्या ज़रूरत? तो आप ﷺ फ़रमाते क्या मैं अपने रब का शुक्र गुज़ार बन्दा नहीं बनूं।
📒 सहीह बुख़ारी ,हदीस नं 1130
देर तक नमाज़ पढ़ने के साथ खुशु और खुज़ु की हालत ये होती थी की कभी कभी आप ﷺ नमाज़ ही में अल्लाह के हुजूर बिलक बिलक कर रोते थे।हाजत-ए-मुतरीफ अपने वालिद से रिवायत करते हुए बयांन करते हैं की: मैं एक बार हुज़ूर ﷺ के पास आया, उस वक़्त आप ﷺ नमाज़ पढ़ रहे थे। और आप ﷺ इस तरह से रो रहे थे की आप के सीने से हांड़ी के उबलने के जैसी आवाज़ आ रही थी।
📙 सुनन निसाई, हदीस नं 1214
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-27)
_कोंन देता हैं देने को मुँह चाहिए_
_देने वाला हैं सच्चा हमारा नबी ﷺ_
*आप ﷺ के सदके औऱ ख़ैरात :* अम्बिया-ए-किराम पर अल्लाह तआला ने ज़कात को फ़र्ज़ ही नहीं किया इस लिए आप ﷺ पर भी ज़कात फ़र्ज़ नहीं थी।
📒 ज़रक़ानि,ज़िल्द 8 सफ़ह 90
लेकिन आप ﷺ के सदका और खैरात करने की ये हालत थी की आप ﷺ अपने पास सोना चाँदी, तिजारत का कोई सामान और जानवर वगैरह का कोई रेवड रखते ही नहीं थे। बल्कि जो कुछ भी आप के पास आता था उन सब को आप ﷺ अल्लाह के रास्ते में गरीबो और मिस्कीनों पर खर्च फ़रमा दिया करते थे। आप ﷺ को इतना भी गवारा नहीं था की रात भर भी माल-व-दौलत का थोड़ा सा भी हिस्सा आप के घर में रह जाए। चुनाँचे एक बार ऐसा हुआ की हुज़ूर ﷺ के पास खिराज की रक़म इतना ज़ियादह आ गया की शाम तक बाँटने के बाद भी ख़तम नहीं हो सका तो आप ﷺ रात भर मस्जिद ही में रह गए। जब हज़रत-ए-बिलाल رضى الله تعالیٰ عنه ने आ कर बताया की या रसूलल्लाह ﷺ ! सारी रक़म बाँट दिया गया। फिर आप ﷺ ने अपने घर में क़दम रखा।
📙 अबू दाऊद हदीस नं 3066
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-28)
_कोंन देता हैं देने को मुँह चाहिए_
_देने वाला हैं सच्चा हमारा नबी ﷺ_
*आप ﷺ के सदके औऱ ख़ैरात :* आप ﷺ ने जिस तरह अपना माल अल्लाह तआला के रास्ते में लुटाया और सदका खैरात किया उसी तरह अपनी उम्मत को भी इस पर उभार और इस को निजात पाने का जरिया बताया। इस बारे में आप ﷺ की कुछ हदीसें पेश है।
हदीस : हज़रत-ए-अदि बिन हातिम رضى الله تعالیٰ عنه बयां करते हैं की नबी करीम ﷺ ने इर्शाद फ़रमाया की: तुम में से हर शख्स से क़यामत के दिन उस का रब खुद बात करेंगा। और उस के और बन्दे के बीच कोई भी तीसरा नहीं होगा। तो बन्दा दाहनी तरफ देखेगा तो उसे कुछ नहीं दिखाई देंगा ,फ़िर वह बा’ई तरफ देखेगा तो उसे कुछ नहीं दिखाई देंगा।फिर वह अपने चेहरे के सामने देखेगा तो उसे जहन्नम देखाई देंगी। फिर हुज़ुर ﷺ ने फ़रमाया की जो इस बात की ताक़त रखता हो की अपने चेहरे को जहन्नम की आग से बचा’ये अगरचे खजूर का एक टुकड़ा ही सदका कर के क्यों न हो तो वह जरूर सदका करे।
📘 तिरमीज़ि, शरीफ़ हदीस नं 2426
और दूसरी रिवायत में है की नबी करीम ﷺ ने इर्शाद फ़रमाया: अगर किसी के पास खजूर का टुकड़ा भी नहीं हो तो अच्छी बात ही कहे (क्यूंकि ये भी सदका है।)
📔 सहीह बुख़ारी ,हदीस नं 6023 - 2
हज़रत-ए-अनस رضى الله تعالیٰ عنه बयां करते हैं की नबी करीम ﷺ ने इर्शाद फ़रमाया की: बेशक सदका अल्लाह की ना’राज़गी को ख़तम कर देता है और बुरी मौत से बचाता है!
📙 तिरमीज़ि, शरीफ़ हदीस नं 663
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-29)
_कोंन देता है देने को मुँह चाहिए_
_देने वाला है सच्चा हमारा नबी ﷺ_
*आप ﷺ के सदके औऱ ख़ैरात :* हज़रत-ए-अबू हुरैरा رضى الله تعالیٰ عنه करते हैं की: हुज़ूर नबी करीम ﷺ ने इर्शाद फ़रमाया की: क़यामत के दिन 7 तरह के लोगों को अल्लाह तआला साया नसीब फरमाएगा और उस दिन उस के साए के अलावा और कोई साया नहीं होगा। (और सूरज बिल्कुल सर के क़रीब होगा जिस की वजह से बे इन्तहा गर्मी होगी यहाँ तक लोग अपने ही पसीने में डूबते होंगे। वह 7 तरह के लोग ये है।)
(1) इन्साफ करने वाला बादशाह।
(2) वह जवान जिस ने अपनी जवानी अल्लाह की इबादत करते हुए गुज़ारे।
(3) वह लोग जिन का दिल मस्जिद में लगा रहता है।
(4) वह लोग जो अल्लाह की मोहब्बत की वजह से आपस में मिलते और जुड़ा होते है।
(5) वह शख्स जिसे किसी खूबसूरत और माल-दार औरत ने गुनाह करने की दावत दी तो उस ने कहा: मैं अल्लाह से डरता हूँ।
(6) वह शख्स जो छुपा कर सदका करता है।
(7) वह शख्स जो अकेले में अल्लाह को याद करे और रोने लगें।
📙 सहीह मुस्लिम,हदीस नं 1031-4
आप ﷺ ने फ़रमाया की: सखी इंसान अल्लाह से ज़न्नत से और लोगो से क़रीब होता है और जहन्नम से दूर होता है। जब की बख़ील ( कंजूस) इंसान अल्लाह से,ज़न्नत से और लोगो से दूर होता है और जहन्नम से क़रीब होता है। और बेशक़ जाहिल सखी अल्लाह तआला के यहाँ ज़ियादह पसन्दीदा है ईबादत करने वाले बख़ील से।
📘 तिरमीज़ि, शरीफ़ हदीस नं 1961
अल्लाह तआला हम सब को बख़ीली से बचाए और अपने महबूब ﷺ के सदके में अपने रास्ते में दिल खोल कर खर्च करने वाला बनाए। *......अमीन……*
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-30)
_फ़क़त इतना सबब हैं इंतक़ाब ए बज़्मे महशर का_
_कि उनकी शान ए मेहबूबी दिखाए जाने वाली है_
*आप ﷺ का अपनी उम्मत से मुहब्बत :* हज़रात-ए-अनस رضى الله تعالیٰ عنه से रिवायत है की हुज़ुर रहमत-ए-आलम ﷺ ने इर्शाद फ़रमाया की : हर नबी की एक ख़ास और मक़बूल दुआ होती है। तो हर नबी ने उसे दुनिया ही में मांग लिया और मैंने क़यामत के दिन अपनी उम्मत की शफा’अत के लिए अपनी दुआ को बचा कर रख लिया है।
📒 सही मुस्लिम,हदीस नं 198-199
हज़रत-ए-अमर बिन आस رضى الله تعالیٰ عنه बयांन करते हैं की : एक रात हुज़ूर ﷺ ने उस आयत की तिलावत किया जिस में हज़रत-ए-इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपनी उम्मत के बारे में अपने रब से दुआ किया है की : ए मेरे रब उन बुतों ने बहुत सारे लोगों को गुमराह कर दिया है तो जिन लोगो ने मेरी पैरवी किया तो वह लोग बेशक़ मेरे है।
📕 सूरः इब्राहीम,आयत नं 36
और उस आयत की तिलावत किया जिस में हज़रत-ए-इशा अलैहिस्सलाम ने अपनी उम्मत के बारे में अल्लाह तआला से फर्याद करते हुए अर्ज़ किया की “ ए अल्लाह अगर तू इन लोगों को अज़ाब दे तो ये सब तेरे ही बन्दे हैं और अगर तो इन को माफ़ करदे तो बेशक़ तो ग़ालिब हिकमत वाला है।
📙 सूरः मैदा आयत नं 118
फिर हुज़ूर ﷺ ने अपना हाथ उठाया और कहने लगे “या अल्लाह! मेरी उम्मत मेरी उम्मत”और आप ﷺ रोने लगें। तो अल्लाह तआला ने फ़रमाया की : ए जिब्रील ! मेरे महबूब के पास जाओ और तुम्हारा रब ख़ूब जानता है। फिर भी उन से पूछो की वह क्यों रो रहे हैं? तो हज़रत-ए-जिब्रील आए और हुज़ूर ﷺ से पुछा तो हुज़ूर ﷺ ने बताया की मेरे रोने की वजह,मेरी उम्मत की फ़िक्र है। तो हज़रत-ए-जिब्रील ने अल्लाह तआला से हुज़ूर की बात अर्ज़ किया जब की अल्लाह खुद जानता है। तो अल्लाह तआला ने फ़रमाया की ए जिब्रील मेरे महबूब के पास जाओ और उन से कहो की “हम उन्हें उन की उम्मत के बारे में राज़ी और खुश कर देंगे उन्हें ग़मगीन नहीं होने देंगे।
📙 सही मुस्लिम,हदीस नं 202
_आज लें उनकी पनाह आज मदद मांग उनसे_
_फ़िर ना मानेंगे क़यामत में अगर मान गया_
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-31)
_क़लम काग़ज़ महकतें हैं हर एक मंज़र महकता है_
_मैं जब भी ज़िक्र ए नबी ﷺ लिखता हूँ तो मेरा घर महकता है_
*आप ﷺ का हुस्न अख़लाक़ :* आप ﷺ के अख़लाक़ के बारे में खुद अल्लाह तआला ने इर्शाद फ़रमाया की “बेशक आप ज़रूर बुलंद अख्लाक पे फाईज़ हैं”
📓 सूरः क़लम आयत - 4
हज़रत-ए-अनस رضى الله تعالیٰ عنه बयान करते हैं कि मैं 10 साल हुज़ूर ﷺ की ख़िदमत में रहा। खुदा की क़सम आप ने मुझे कभी उफ़ ! न कहा , और न कभी मुझ से ये कहा के तुम ने फलां काम क्यों नहीं किया ? या फलां काम क्यों किया?
📕 सहीह मुस्लिम, हदीस नं 2309
आप ﷺ ने फ़रमाया की : मुझे मेरे परवरदिगार ने 9 बातो का हुक्म दिया। (तो मैं उस पर क़ाइम हूँ।)
(1) ज़ाहिर और बातिन में इखलास को अपनी पहचान बनाऊ।
(2) ख़ुशी और नाराज़गी, दोनों हालत में इन्साफ करूँ।
(3) खुश हाली और तंग दस्ती दोनों में बीच का रास्ता इख्तियार करूँ।
(4) जो मुझ पर ज़ुल्म करे उसे मैं माफ़ कर दुं।
(5) जो मुझ से अपना त’अल्लुक़ तोड़े उस के साथ भी मैं नेक सुलूक करूँ।
(6) मैं उसे भी दूँ जो मुझे नहीं देता है।
(7) जब बोलूँ तो अल्लाह का ज़िक्र करूँ।
(8) ख़ामोशी की हालत में उसकी आयतो में गौर व फ़िक्र करूँ।
(9) जब मैं किसी चीज़ को देखूं तो उससे इबरत (नसीहत) लूँ।...✍🏻
*📒 जियाउन नबी ज़िल्द 5 सफ़ह 303*
नबी ﷺ के ज़िक्र में हमनें वो खुशबू पाई है कि यारों कोई पढ़कर महकता है तो कोई सुनकर महकता हैं।
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-32)
आप ﷺ का हुस्न अख़लाक़ :
_क़लम काग़ज़ महकतें हैं हर एक मंज़र महकता हैं_
_मैं जब भी ज़िक्र ए नबी ﷺ लिखता हूँ तो मेरा घर महकता है_
आप ﷺ ने अच्छे अख़लाक़ के बारे में फ़रमाया की बेशक़ आदमी अपने अच्छे अख़लाक़ की वजह से, हमेशा रोज़ा रखने और रातों को उठ के नमाज़ पढ़ने वाले के दर्ज़े तक पहुँच जाता है।
📕 तिरमिज़ी शरीफ़ हदीस नं 2003
और आप ﷺ ने फ़रमाया की : बेशक़ तुम में से क़यामत के दिन मुझ से ज़ियादह क़रीब और मेरी नज़र में ज़ियादह पसन्दीदा वह लोग होंगे जिन के अख़लाक़ अच्छे होंगे, औऱ बक बक करने और ज़ुबाँ दरज़ी करने और घमण्ड करने वाले लोग क़यामत के दिन मुझसे बहुत दूर होंगें।
📒 तिरमिज़ी शरीफ़ हदीस नं 2018
इस लिए हमें अच्छे अख़लाक़ अपनाना चाहिए और बुरे अख़लाक़ से बचना चाहिए ताकि हम हुज़ूर से क़रीब हो सकें!
📝 नबी ﷺ के ज़िक्र में हमनें वो खुशबू पाई हैं कि यारों कोई पढ़कर महकता हैं तो कोई सुनकर महकता हैं।
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-33)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*हुज़ूर रहमत ए आलम ﷺ का यौम ए विसाल :* मुसलमानो को 12 रबी उल अव्वल मिलाद उन नबी صلى الله عليه وسلم मनाने से रोकने क लिए कौम ए वहाबिया और इनके तमाम हम ख़याल फ़िरक़े अब तक पूरी तरह बेबस हो चुके है बस उनके पास सिर्फ फ़रेब धोका मक्करी के अलावा कुछ बाकी नहीं रहा।
अहले सुन्नत व जमाअत ने मिलाद उन नबी صلى الله عليه وسلم के जवाज़ पर जितने दलाइल पेश किया फिर चाहे वो क़ुरआन सही हदीस से हो या अइम्मा फुक़हा के किताब से या खुद कौम ए वहबिया के अकबरीन की किताब और फतवो से हो हक़ीकत यह रही के वहाबी उनका जवाब ना ला सके कभी।
तो अब मिलाद से रोकने के लिए एक नया ऐतराज़ लाया गया वो ये के 12 रबी अव्वल शरीफ के दिन हुज़ूर नबी ए करीम صلى الله عليه وسلم का यौंम ए विसाल हुवा सहाबा ग़मगीन थे उस दिन खुशी तो दुश्मने इस्लाम ने मनाई थी और तुम भी मनाते हो ये ऐतराज़ कर के एक आम मुस्लमान को कंफ्यूज किया जाता है।
आइये अब हदीस और तारीख की किताबो में इस ताल्लुक से क्या लिखा है के हुज़ूर रहमत ए आलम صلى الله عليه وسلم का यौंम ए विसाल कब हुवा..?
इस तअल्लुक़ से जो कुछ हमें मिला आगे पेश होंगे।
_आज लें उनकी पनाह आज मदद मांग उनसे_
_फ़िर ना मानेंगे क़यामत में अगर मान गया_
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-34)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*हुज़ूर रहमत ए आलम ﷺ का यौम ए विसाल :* इस तअल्लुक़ से हम आगे जो बात रखने की कोशिश कर रहें हैं उससे पहले हर एक के ज़हन को वाज़ह तौर पर ये बता देना हम मुनासिब समझते हैं कि यहां पर हम जो बात आपको बताना चाहते हैं कि हुज़ूर ﷺ का विसाल 12 रबी अव्वल शरीफ़ को हुआ या किसी औऱ दिन वो सिर्फ किताबों की मालुमात तक ही सीमित हैं।
बताना मक़सद ये हैं कि अल्हम्दुलिल्लाह عزوجل हम इस दिन विसाल की खुशी नही मनाते क्योंकि अल्लाह के रसूल अलैहिस्सलाम को अल्लाह तआला ने एक वक़्ती तौर के लिए जो क़ुरआन ए पाक का फरमान था कि हर नफ़्स को मौत का मज़ा चकना हैं बस उतनी ही बात थी औऱ इसके बाद तो मेरा नबी कल भी जिंदा था आज भी जिंदा हैं औऱ हमेशा अल्लाह की चाहत से जिंदा रहेंगे जब तक अल्लाह चाहेगा।
*तू ज़िंदा है वल्लाह तू ज़िंदा है वल्लाह*
*मेरे चश्मे आंखों से छुप जाने वाले*
तो गोया की हम इस दिन विसाल समझ कर खुशियां नही मनाते बल्कि विलादत समझ कर मनाते हैं जिसकी वजह से अल्लाह ने पुरी क़ायनात में पुरी दुनियां को रोशन किया हिदायत दी, सारी चीज़ें दी, हम उन चीज़ों का एतबार करते हुए मनाते हैं औऱ इस पर बहुत तहक़ीक़ दलाइल मौजूद हैं।
_आज लें उनकी पनाह आज मदद मांग उनसे_
_फ़िर ना मानेंगे क़यामत में अगर मान गया_
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-35)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*हुज़ूर रहमत ए आलम ﷺ का यौम ए विसाल :*
12 रबी उल अव्वल : ये कौल उम्मुल मोमिनीन सईदा ताहिरा आएशा सिद्दीका رضى الله تعالیٰ عنها और हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास رضى الله تعالی عنه की तरफ मंसूब है।
📔 इब्ने क़सीर अल बढ़ाया वन नहाया ज़िल्द 5 सफ़ह 256
ये रिवायात जो 12 रबी अव्वल की है इस रिवायात में रवि है “इमाम मुहम्मद इब्न उमर अल वाक़िदी और “मुहम्मद इब्न अली इब्न सुबाररह” जिन पे मुहद्दिसीन की काफी जिरह है ये दोनों रावि सैय्यदा आएशा رضى الله تعالیٰ عنها के रिवायत में है।
इमाम आली बिन अल मदीनि, इमाम अबू हातिम رضى الله تعالیٰ عنه, इमाम याह्या इब्न मोईन ने कहा इमाम वाक़िदी सिक़ाह नहीं है।
इमाम अहमद इब्न हम्बल ने कहा इमाम वाक़िदी हदीस गड़ते है।
इमाम हतीम और इमाम बुख़ारी ने कहा इमाम वाक़िदी मसरूक़ है यानी रेजेक्टेड़।
इमाम मुर्राह कहते है इमाम वाक़िदी से कोई हदीस ना ले।
इमाम इब्न आदि ने कहा इमाम वाक़िदी पर अइम्मा की जिरह है।
इमाम ज़हबी ने कहा मुहद्दिसीन ने वाक़िदी को ज़ईफ़ कहा है।
📕 अल मीज़ान उल एतेदाल फी नक़्द उल रिजाल ज़िल्द 2 सफ़ह 425-426
यहा ये भी कहा जा सकता है क बाज मुहद्दिसीन ने इमाम वाक़िदी को भी सिक़ाह करार दिया है ये बात भी सही है लेकिन अगर यहाँ इमाम वाक़िदी को सिक़ाह भी माने उसके बाद भी ये रिवायत 12 रबी उल अव्वल की मोतबर नहीं साबित हो सकती क्योंकि इस रिवायात करने में एक दूसरा रावि भी है जिस पर भी मुहद्दिसीन की ख़ूब जिरह है वो है “मुहम्मद इब्न अली इब्न सुबुर्राह” इनके बारे में इमाम अहमद इब्न हम्बल कहते है ये हदीस गड़ते थे।
📘 अल मीज़ान उल एतेदाल फी नक़्द उल रिजाल ज़िल्द 2 सफ़ह 397
दूसरी रिवायत है हज़रत अब्बास رضى الله تعالیٰ عنه की उसमे एक रवी है इब्राहीम इब्न यज़ीद जो इमाम वाक़िदी के शैख़ है वो भी ज़ईफ़ रावि है और दूसरी वजह ये भी है के खुद इब्न अब्बास से 02 03 कॉल इस ताल्लुक से मौज़ूद है मुख़्तलिफ़ रिवायात में ये तो रही मुहादिसाना बात लेकिन किसी की जिद्ध है के नहीं नहीं 12 ही है तब भी हम इसके आखरी हिस्से में सही हदीस से ये फ़र्क़ करेंगे के 12 रबी उल अव्वल हुज़ूर صلى الله عليه وسلم का यौंम ए विसाल नहीं है जो सबसे आखरी में आएगा और इस रिसाले का सबसे एक्सटेंसिव रिसर्च है। ان شاء الله
_आज लें उनकी पनाह आज मदद मांग उनसे_
_फ़िर ना मानेंगे क़यामत में अगर मान गया_
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-36)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨 :* रबीउल अव्वल शरीफ़ की बारह तारीख़ को अहले इस्लाम बड़ी तादाद में दुनिया भर में हुज़ूर रहमते आलम हबीबे किबरिया अहमदे मुजतबा मुहम्मद मुस्तफा ﷺ की तशरीफ़ आवरी आप की विलादत, पैदाइश की तरह तरह से ख़ुशी मनाते चले आये हैं, एक मुसलमान होने की नाते हुज़ूर ﷺ की तशरीफ़ आवरी पर खुश होना ईमान का तकाज़ा बल्कि ईमान की तकमील और उस की पूर्ति है, वह भी क्या मुसलमान जो हुज़ूर ﷺ के आने पर खुश न हो,और जब खुश होना जाइज़ है तो इस खुशी का इजहार, ऐलान, इश्तिहार और चर्चा करना भी जाइज़ है, बल्कि हर अच्छा नेक और जाइज़ काम जिस तरह करना जाइज़ है उसको ज़ाहिर करना भी जाइज़ है, जब तक शरीअत से उस पर मना साबित न हो, या उसको जाहिर न करने में कोई शरई या समाजी मस्लेहत हो, या तकलीफ़ व ईज़ा रसानी का सबब हो, लेकिन यहाँ इस सब में से कोई बात नहीं। इस खुशी के इज़हार और उस को मनाने में किसी शरई हुक्म की ख़िलाफ़ वरजी न किसी मस्लेहत के ख़िलाफ़ है न किसी की तकलीफ व ईजा रसानी का सबब और हुज़ूर ﷺ की विलादत व तशरीफ़ आवरी पर खुशी और मुसर्रत का इज़हार करना हर वक़्त जाइज़ है और उस के लिए कोई वक़्त दिन वगैरा मुकर्रर करना भी जाइज है, क्योंकि जो काम हर दिन जाइज़ है वह किसी एक दिन को मुक़र्रर करके भी जाइज़ होगा।
जब कि खास उस दिन के मुक़र्रर करने को ज़रूरी ख़्याल न करे यानी यह न ख़्याल करे कि सिर्फ उसी दिन जाइज़ है, उस के एलावा और किसी दिन नाजाइज है, यह ऐसा ही है जैसे ब्याह शादी की तकरीबात, मीटिंगों, पंचाइतों, राये मशवरों वगैरा के लिए दिन तारीख़ मुक़र्रर कर ली जाती है, या दीन की तब्लीग और इशाअत के कामों के लिए औकात व अय्याम खास कर लिए जाते हैं कि फुलाँ आलिम साहिब फुलाँ मस्जिद में इतने वक़्त क़ुरआन व हदीस का दर्स देते हैं या कोई किताब पढ़ कर सुनाते हैं, तो यह दिनों तारीख़ों या औकात का मुक़र्रर करना किसी शरई हुक्म की वजह से नहीं होता कि शरीअत ने उस काम को इस दिन के लिए ख़ास कर दिया है, और कोई यह अकीदा नहीं रखता कि यह काम उस ख़ास दिन के अलावा किसी और दिन नहीं किया जा सकता या उस वक़्त के अलावा किसी और वक़्त किया जाता तो गुनाह हो जाता, जलसे जुलूस, महफ़िलों, मज्लिसों, न्याजों, फ़ातिहाओं वगैरा के लिए जो दिन मुक़र्रर कर लिए जाते हैं उनका मुआमला भी बस ऐसा ही और इतना ही है इस से ज़्यादा नहीं, मुर्दो की फ़ातिहा उन के ईसाल सवाब के लिए तीजे, दस्वी, चालीसवीं, और बर्सी वगैरा के दिन जो मुक़र्रर होते हैं उनके लिए भी शरीअत का कोई हुक़्म नहीं हर दिन हर वक़्त हर मरने वाले को किसी कारे खैर, अच्छे काम का सवाब पहुँचाया जा सकता है!
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 04
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-37)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨 :* दिनों और औक़ात का मुक़र्रर करना सिर्फ़ अपनी सहूलतों आसानियों और मस्लेहतों की वजह से होता है, शरई हुक़्म समझ कर नहीं और जो लोग किसी ख़ास फातिहा या ईसाले सबाब को किसी ख़ास दिन या वक़्त के साथ ज़रूरी समझते है। कि इस के अलावा और दिन या और वक़्त में जाइज़ नहीं यह उन की जिहालत व नादानी और ना वाक़िफी है!
आला हजरत इमाम अहमद रज़ा खाँ अलहिर्रहमा बरेलवी फरमाते हैं! यह तईनात उर्फिया हैं इन में असलन हर्ज़ नही, जब कि उन्हें शरअन लाज़िम न जाने यानी यह न समझे कि इन्ही दिनों सवाब पहुँचेगा आगे पीछे नहीं।
📕 फ़तावा रज़विया ज़िल्द 9 सफ़हा 604
कभी यह खास दिनों का मुक़र्रर करना किसी मुनासिबत या तअल्लुक़ की वजह से भी होता है, जैसे किसी बुजुर्ग के ईसाले सवाब के लिए उन के विसाल व इन्तिकाल के दिन को मुक़र्रर कर लेते हैं जिसे उर्स कहा जाता है।
रबीउल अब्बल के महीने की बाराह तारीख़ का मुआमला भी ऐसा ही है उस तारीख़ को हुज़ूर ﷺ की विलादत तशरीफ़ आवरी और पैदाइश से यक़ीनन मुनासिबत और तअल्लुक़ है, यानी इस तारीख़ में सुब्ह सादिक़ के वक़्त हुज़ूर ﷺ की तशरीफ आवरी हुई लिहाज़ा इस तारीख़ को इस मुनासिबत से जश्ने विलादत के लिए ख़ास कर लेना भी दुरुस्त है और पूरे साल और भी कभी किसी दिन महफ़िले मीलाद मुन्अक़िद की जाये तो वह भी सही है, जब कि यह काम शरीअत के दाइरे में रह कर हों और कोई ऐसी हरकत न की जाये जिस में इस्लाम के किसी कानून की खिलाफ वर्जी हो, और कोई सुन्नी मुसलमान यह सब न भी करे लेकिन उन कामों को जाइज़ जानता हो तो वह अगर्चे इस के सवाब से महरूम रहेगा।
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 06
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-38)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨 :* और आज कल हर तरफ़ से कुछ ज़्यादतियाँ हो रही हैं और यह छोटी सी किताब हम ने उन्ही ज़्यादतियों की निशान दही और उन से आगाही के लिए ही मुरत्तब करने का इरादा किया है, हम आने वाले सफ़हात में उन के ज़हिनों को भी साफ़ करने की कोशिश करेंगे जो बारहवी शरीफ़ मनाने या महफिले मीलाद मुन्अक़िद करने की मुख़ालिफ़त करते और उसे नाजाइज़ व हराम समझते और कहते हैं, और उन्हें भी समझाने की कोशिश करेंगे जो इन उमूर में शरीअत की हद से आगे बढ़ गये हैं, और बढ़ते ही जा रहे हैं, और अच्छे कामों को उन्होंने पूरी तफ़रीह तमाशा और दिल लगी नौटंकी बना डाला और दीन के नाम पर खुराफातें करने लगे और जलसे जुलूस ,शर पसन्द लड़कों के शौक़ बन गये, या अहले सियासत के लिए सियासी रोटियाँ सेकने के तन्दूर हो गये।
किताब के शुरू में हम उन लोगों के ऐतिराज़ात को दफ़अ करेंगे जो बारहवीं शरीफ के सिरे से मुख़ालिफ़ और मुन्किर हैं, और बाद में हद से आगे बढ़ने वालों के लिए भी दाइरा खींचा जायेगा, और उन्हें बताया जायेगा कि आप को क्या करना चाहिए था और आप क्या कर रहे हैं, कहाँ तक जाना चाहिए था और कहाँ पहुँच गये हैं। हमारा काम समझाना और बताना है और दिल में डालना तो अल्लाह तआला ही का काम है, और वह हर ख़ैर की तौफीक व ताकत देने वाला है, और उसी के लिए हैं सब तारीफें हम्द व सताइश, बड़ाइयाँ, बुज़ुर्गियाँ और वलन्दियाँ। उस के बे शुमार, अन गिन्त, ला तादाद दुरूद व सलाम और रहमतें नाज़िल होती रहें उस के उन महबूब पैगम्बर ﷺ पर जिन के नूर से काइनात रौशन हुई, अंधेरा छंटा उजाला आया, ज़ुल्मत दूर हुई नूर चमका, रात ढली और दिन निकला।
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 07
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-39)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨*
اذکروا نعمة الله عليکم
और याद करो अल्लाह की वह नेअमत (एहसान) जो तुम पर है।
📕 सूरतुल बकरा, आयत न• 231
واشكروا نعمة الله إن كنتم إياه تعبدون
और अल्लाह की नेअमत का शुक्र करो अगर तुम उस को पूजते (मानते) हो।
📒 सूरतुन्नहल, आयत न• 114
और क़ुरआन करीम की सूराए इब्राहीम आयत न• 29 में
الذین بدلوا نعمت اللہ کفرا
(जिन लोगों ने अल्लाह की नेअमत को कुफ्र से बदल डाला) की तफसीर में सहाबी-ए-रसूल हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास और हज़रत अमर इब्ने दीनार से सही बुख़ारी में यूँ मरवी
ثم والله کفر قریش قال عمرو وهم قريش ومحمد صلى الله
و تعالى عليه و سلم نعمة الله
यानी जिन्होंने अल्लाह की नेअमत को कुफ्र से बदला वह कुरैश खान्दान के काफिर थे, और अल्लाह की नेअमत मुहम्मद ﷺ हैं।
📚 सही बुख़ारी, ज़िल्द 2, सफ़ह 566, किताबुलमग़ाज़ी बाब कत्ल अबी जहल
यानी क़ुरआन में जो लफ़्ज़ अल्लाह की नेअमत आया है, सही बुख़ारी की हदीस से यह मालूम हुआ वह हुज़ूर ﷺ हैं, और पहले ज़िक्र की गई आयतों में और उस के अलावा भी कई आयतों में अल्लाह तआला ने अपनी नेअमत का ज़िक्र व चर्चा करने और इस नेअमत पर अल्लाह का शुक्र करने का हुक्म दिया, गोया कि हुज़ूर ﷺ की तशरीफ़ आवरी पर खुशी का इज़हार करना और अल्लाह तआला की इस नेअमत का ज़िक्र और खूब चर्चा करना अल्लाह का शुक्र करना है।
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 08-09
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-40)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨*
एक जगह क़ुरआने करीम में फ़रमाया जाता है
قل بفضل الله وبرحمته فبذلك فليفرحوا
आप कहिए अल्लाह के फज़्ल और उसकी रहमत पर खुशी मनाओ
📓 सूरह युनूस, आयत 58
एक मकाम पर यूँ फरमाया गया :
و اما بنعمة ربك فحدث
📗 सूरह وَ الضُّحٰى, आयत 11
और अपने रब की नेअमत को खूब बयान करो। मैं पूछता हूँ कि हुज़ूर ﷺ से बढ़ कर अल्लाह तआला की कौन सी रहमत है और कौनसी नेअमत है, और कौन सा फज़्ल है तो आप की विलादत पर खुशी का इज़हार करना और जाइज़ तौर तरीक़ों से ख़ुशी मनाना क्यों नाजाइज़ हो गया?
तो जब मदीने वालों ने मदीने में हुज़ूर ﷺ के आने की ख़ुशी मनाई थी तो दुनियाँ वालों को दुनियाँ में आने की ख़ुशी मनाना चाहिए, और अहले मदीना ने हिजरते मुस्तफा और मदीने में आप की तशरीफ़ आवरी की इस ख़ुशी को हर साल के लिए बाकी भी रखा यानी हिजरी सन तभी से चली जो हर साल आती है और हर साल हुज़ूर ﷺ के मदीने आने की याद दिलाती है।
हुज़ूर ﷺ की तशरीफ़ आवरी की ख़ुशी को भुलाने वालों को चाहिए कि वह हिजरी सन का इस्तेमाल न किया करें, क्यों कि यह भी मदीने में हुज़ूर ﷺ के आने की याद गार है।
यह किताब हम ने अपने अवाम भाइयों के लिए मुख़्तसर लिखने का इरादा किया है, वर्ना हम चाहें तो अल्लाह तआला की तौफीक से इस मज़मून को बहुत फैला सकते हैं और इस मफहूम की बहुत सी कुरआन की आयात व अहादीस जमा कर सकते हैं।
अहादीस की किताबों में हुज़ूर ﷺ की पैदाइश की ख़ुशी में हुज़ूर ﷺ के चचा अबूलहब का अपनी बांदी सुवैबा को आज़ाद करने का वाकिया आ भी बहुत मशहूर है। काफ़िर था लेकिन फिर भी उस ख़ुशी पर बांदी को आज़ाद करने की वजह से उस के अज़ाब में आसानी कर दी गई जैसा कि उसने ख़्वाब में अपने घरवालों को बताया था, देखिये।
📕 सही बुखारी ज़िल्द 2 सफ़ह 764 किताबुन्निकाह व उसकी शरह फत्हुलबारी व उम्दतुल कारी
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 10-12
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-41)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨*
कुछ लोग कहते हैं कि हुज़ूर ﷺ की विलादत पर खुश होना और खुशी मनाना अगर जाइज़ भी है तो एक बार ऐसा कर लेना काफी है यह बार-बार महफ़िले मीलाद क्यों करते हो और हर साल बारह रबीउल अव्वल की तारीख़ आने पर जश्न क्यों मनाते हो, तो हम कहते हैं जो काम अच्छा है और बार-बार किया जाये तब भी अच्छा ही रहेगा, बार-बार करने से अच्छाई बढ़ेगी या घटेगी? मिसाल के तौर पर ग़रीबों मिस्कीनों को खाना खिलाना सवाब है तो अगर एक दिन या एक बार खिलाये तब भी सवाब मिलेगा और अगर बार-बार रोज़ाना खिलाये तो सवाब बढ़ेगा न कि कम होगा।
कलमा पढ़ना दुरूद शरीफ पढ़ना या कोई भी ज़िक्रे ख़ैर तस्बीह व तहमीद व तहलील व तकबीर पढ़ना बड़ी फज़ीलत व सवाब का काम है, अगर कोई बहुँत ज़्यादा पढ़े बार-बार पढ़े बल्कि हर वक़्त पढ़े तो किया معاذ الله यह गुनाह हो जायेगा।
हजरत अबू क़तादा رضى الله تعالیٰ عنه से रिवायत है कि हुज़ूर ﷺ से पीर (सोमवार) के दिन रोज़े के बारे में पूछा गया तो आप ने फरमाया : इसी दिन मेरी पैदाइश हुई और इसी दिन से। मेरे ऊपर वही नाज़िल हुई।
📕 सही मुस्लिम किताबुस्सियामः 1 / 388 - मिश्कात,सफ़ह 1791
इस हदीस से अच्छी तरह वाज़ेह हो गया कि हुज़ूर ﷺ ने अपनी पैदाइश के दिन को यादगार के तौर पर बाकी रखने के लिए पीर के दिन रोज़ा रखने की इजाज़त दी।
और सही हदीसों से साबित है कि हुज़ूर ﷺ खुद भी पीर के दिन रोज़ा रखते थे, और पीर का दिन हर -हफते में एक बार आता है, तो जब हर हफ्ते पीर के दिन रोज़ा रख कर हुज़ूर ﷺ की पैदाइश की यादगार मनाना जाइज़ हुआ तो हर साल कैसे नाजाइज़ होगा? पीर का दिन तो साल में बार-बार यानी कम अज़ कम पचास बार तो आता ही है, बारह रबीउलअब्बल तो एक ही बार तशरीफ़ लाता है।
इस मौक़े पर हुज़ूर ﷺ की तशरीफ़ आवरी की ख़ुशी में मीलाद पढ़ने और पढ़वाने वाले और बारहवी शरीफ़ मनाने वालों से यह गुज़ारिश ज़रूर करूँगा कि यह इस सब के साथ हुज़ूर ﷺ की पैदाइश की यादगार के तौर पर पीर को रोज़ा भी रख लिया करें, तो और बेहतर रहेगा, हुज़ूर ﷺ की यह ख़ास सुन्नत है, और सहाबा-ए-किराम भी यह रोज़ा रखा करते थे, और उसके लिए मज़ीद हवालों की भी ज़रूरत नहीं हदीस व फिक़्ह की सारी किताबों में इस रोज़े का सुन्नत होना मजकूर है, और मैं समझता हूँ कि पीर के दिन का रोज़ा हुज़ूर ﷺ की विलादत पर ख़ुशी का सब से उम्दा इज़हार और आप की तशरीफ़ आवरी की बेहतरीन याद गार है, लोग और तरीकों से जश्न और ख़ुशियाँ मनाने और जलसों और जुलूसों में लग गयें हैं, और इस रोज़े को भूले हुये हैं जो ख़ास हुज़ूरे पाक ﷺ से वाज़ेह तौर पर सही और सरीह हदीसों से साबित है ख़ुदा-ए-तआला यह रोज़ा रखने की हमें तौफीक व ताकत दे और हमारे तमाम अहले सुन्नत भाइयों को।
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 12-13
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-42)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨*
एक और हदीस पाक में है हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास رضى الله تعالیٰ عنه जब मदीने तशरीफ़ लाये तो देखा कि मदीने के यहूदी दस मुहर्रम आशूरा के दिन रोज़ा रखते हैं रसूले पाक ﷺ ने उन से फरमाया तुम्हारे यह रोज़ा रखने का किया सबाब है? उन्होने ने कहा यह एक अज़ीम दिन है इस दिन अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलातु वस्सलाम और उन की क़ौम को निजात दी, और फिरऔन और उस की क़ौम को डूबो दिया हज़रत मूसा अलैहिस्सलातु वस्सलाम ने शुक्र अदा करने के लिए उस दिन रोज़ा रखा था और हम भी रखते है इस पर रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया हज़रत मूसा की वजह से शुक्र करने का तुम से ज़्यादा हमारा हक है फिर हुज़ूर ﷺ इस दिन का रोज़ा ख़ुद भी रखा और रखने का हुक्म दिया।
📕 सही बुखारी ज़िल्द 1 बाब सियाम यौम आशूरा सफ़ह 266, व सही मुस्लिम ज़िल्द बाब सौम आशुरा सफ़ह 359
इस हदीस से भी अच्छी तरह वाजेह हो गया। कि जिस दिन अल्लाह तआला ने कोई ख़ास एहसान फरमाया हो उस दिन कोई अच्छा काम कर के यादगार के तौर पर मनाना जाइज़ है, और हर साल मनाना भी जाइज़ है क्योंकि आशूरे का रोज़ा एक बार ही नहीं बल्कि हर साल रखना सवाब का काम है।
इस हदीस से यह भी साबित हुआ कोई अच्छा काम अगर ग़ैर लोग करते हों तो हमें उन की ज़िद में उस काम को छोड़ना नहीं चाहिए बल्कि अच्छे कामों में उन से आगे रहना चाहिए जैसे आज कल वहाबी फ़िर्क़े के लोग नमाज़ पढ़ने पर बहुँत जोर देते हैं तो हमारी जमाअत के कई मुक़र्रिरों ने नमाज़ की मुखालिफत सी करना शुरू कर दी है, और तक़रीरों मे ऐसी बातें करते हैं जिस से नमाज़ का हलका पन जाहिर होता है कोई कहता है जन्नत नमाज़ रोज़े से नहीं बल्कि अक़ीदत व मोहब्बत से मिलेगी, कोई कहता कि नमाज़ से जन्नत मिलती तो शैतान जन्नत से। क्यों निकाला जाता, वह तो बड़ा नमाज़ी था, कोई कहता है कि नाबालिग बच्चा मर जाये तो जन्नत जायेगा हालांकि उस पर नमाज़ फर्ज़ नहीं। मैं कहता हूँ कि असली सच्ची हक़ीक़ी मोहबत अक़ीदत वाला वही जो सुन्नी है और नमाज़ी है और शैतान जन्नत से इसलिए नहीं निकाला गया था कि वह नमाज़ी था बल्कि इसलिए कि उस ने अल्लाह की नाफरमानी की और तकब्बुर किया था। और नाबालिग जिस पर नमाज़ फर्ज़ नहीं उसकी मिसाल उन लोगों से देना। ही गलत है जो बालिग हैं और उन पर नमाज़ फर्ज़ है सही बात यह है कि ऐसे जाहिल मुक़र्रिरों की तक़रीरें सुनना सुनवाना सब नाजाइज़ व गुनाह है, और उनकी सोहबत से बचना चाहिये जो नमाज़ जैसे इस्लामी फरीजे की अहमियत लोगों की नज़र में गिरायें।
हालात यहाँ तक पहुँच गये कि अगर हमारी जमाअत का कोई आलिम अल्लाह तआला के ज़िक्र उस के शुक्र और उसक इबादत पर लिखे या बोले। तो कुछ लोग उस के बदमज़हब होने का शक करने लगते हैं। यह कितनी ख़राब बात है गोया कि अल्लाह का ज़िक्र बदमज़हबों का हिस्सा हो गया और अम्बिया व औलिया के फज़ाइल हमारा हिस्सा हो गये हालांकि हक यह है कि वह भी हमारा हिस्सा और यह भी हमारा, ज़िक्रे ख़ुदा भी हमारा काम है और फज़ाइले अम्बिया, औलिया भी। कभी ऐसा होता है कि इस क़िस्म की तक़रीरों की कोई बदमज़हब तअरीफ कर देता है। तो लोग कहते है कि फलाँ मौलवी साहब की तक़रीर की दूसरे फ़िर्क़े के लोग तारीफ़ कर रहे थे और इस को अच्छा नही समझते। मैं कहता हूँ या तो अच्छी बात है कि ग़ैर लोग भी हमारी तारीफ़ करें हमारे हुज़ूर ﷺ की तारीफ़ हर दौर में ग़ैर मुस्लिमों ने की है। और आप की नाते भी लिखी है और बदमज़हबों ने तो आला हज़रत अलैहिर्ररहमा की भी तारीफें की हैं जो छिपी हुई नहीं बल्कि किताबों में छपी हुई है। हाँ सुन्नी आलिम को अपने सन्नी होने का इज़हार भी किसी तरह कर देना चाहिए।
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 14-16
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-43)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨* हुज़ूर रहमते आलम ﷺ की तशरीफ़ आवरी की तारीख़ के बारे में रिवायात मुख्तलिफ हैं रबीउल अव्वल की बारह तारीख़ के अलावा कुछ किताबों में और तारीखें भी मज़कूर हैं यह इसलिए हुआ कि जिस जमाने में सरकार की तशरीफ़ आवरी हुई उस वक़्त नसब महफ़ूज़ रखने पर तो बहुत ज़ोर दिया जाता था एक आम आदमी भी अपने बाप दादाओं में दस बीस पुश्तों तक के नाम सुना सकता था, लेकिन पैदाइश की तारीख़ लिखने या याद रखने का कोई ख़ास रिवाज न था, यह भी आम तौर से मालूम न था कि यह बच्चा महबूबे परवरदिगार है सारी काइनात का सरदार है जो आप की हर हर बात लिख कर रखी जाती हर अदा महफूज़ की जाती, बाद में तलाश करने वालों में इख्तिलाफ़ हो गया, कुछ मुहद्दिसीन और मुवर्रिख़ीन की तहकीक़ बारह रबीउल्ल अव्वल के अलावा भी है लेकिन ज़्यादा तर हज़रात की तहक़ीक़ यही है कि वह बारह रवीउल अव्वल ही है, इमाम अहमद कस्तुलानी ने सारी रिवायात जमा करने के बाद में बारह रबीउलअव्वल का ज़िक्र फरमाया वह लिखते हैं!
وعليه عمل أهل مكة في زيارتهم بموضع مولده في هذا الوقت
मक्का मुअज़्ज़मा (जिस शहर में हुज़ूर ﷺ की विलादत हुई) वहाँ के लोगों का अमल बारह रबीउल अव्वल पर ही है क्यों कि वह लोग इस दिन उस मकान की ज़्यारत करते हैं जिस में हुज़ूर ﷺ की पैदाइश हुई थी।
:"والمشهوژانه ولد يوم الإثنين ثانی عشر شهر ربيع الأول و وهو قول ابن اسحاق وغيره“
और मशहूर यही है कि आप पीर के दिन बारह रबीउल अव्वल को दुनिया में तशरीफ़ लाये।
📕अलमवाहिबुल लदुनिया,ज ज़िल्द सफ़ह ,142
हज़रत मुहम्मद इब्ने इस्हाक तारीख़ व सीरत के पहले इमाम हैं ताबेईन से हैं 85 हिजरी में मदीने में पैदा हुये, 150 हिजरी में बगदाद शरीफ में दफ़न हुये। सारे मुअर्रिख़ीन व सीरत निगारों के नज़दीक उन की तहकीक़ हर्फ आख़िर की तरह है, उन्हें भी बारह रबीउल अव्वल शरीफ़ ही को तारीख़े विलादत बताया है जैसा कि मवाहिबुल्लदुनिया की एबारत में अभी आप ने देखा और बाक़ाइदा सीरते रसूल ﷺ पर लिखी गई पहली किताब सीरत इब्ने हिशाम में भी उनकी यह रिवायत देखी जा सकती है।
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 17-18
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-44)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨* दर असल बारह रबीउल अव्वल के अलावा और तारीख़ों को हुज़ूर ﷺ का दिन बता कर उन रिवायतों को भी आवाम के सामने बयान करने वाले ज़्यादा तर वही लोग हैं, जिन्हे बारह रबीउल अव्वल की खुशियाँ अच्छी नहीं लगती, तारीखों में शक डालकर बारहवी के जश्ने विलादत को भुलाना चाहते है। हम कहते हैं चलिए तारीखें विलादत मे इख़्तिलाफ़ है बारह रबीउल अव्वल के अलावा और तारीखों का ज़िक्र भी किताबों में आया है, लेकिन जश्ने विलादत मनाने के लिए सारी उम्मत ने बारह रबीउल अव्वल को मुतअय्यन कर लिया तो इसमें ख़ाराबी क्या है,) हुज़ूर ﷺ की दिलादत व तशरीफ़ आवरी पर ख़ुश होना और ख़ुशी मनाना और ज़िक्र ख़ुदा व रसूल की महफ़िलें मज्लिसें हर दिन मुन्अक़िद करना जाइज़ है, तो बारह रबीउल अव्वल को भी जाइज़ है, और सारी उम्मत का जश्ने विलादते मुस्तफा के लिए बारह, रबीउल अव्वल पर मुत्तफिक़ हो जाना में समझता । अल्लाह की तरफ से है!
हदीस पाक में है :
*وما رأه المسلمون حسنا هو عندالله حسن*
जिस चीज़ को अहले इस्लाम अच्छा जाने वह अल्लाह के नज़दीक भी अच्छी है।
📕मुसनद इमाम अहमद इब्ने हदीरस 3418
और हम कहते हैं कि ठीक है हुज़रे पाक ﷺ की पैदाइश की तारीखों में इख्तिलाफ बारह रबीउल अव्वल के अलावा और तारीख़ों के ज़िक्र की भी रिवायतें है तो हम जशने विलादत के लिए 12 रबीउल अव्वल को इख़्तियार कर लिया और उन तारीखों को हम ने आप के लिए छोड़ दिया है, इन तारीख़ो मे आप हुज़ूर ﷺ की विलादत का जशन मनायें और मीलाद शरीफ़ पढ़े, हम आप को मना नहीं करेगे, आप मनायें भी तो!
हकीक़त यह है कि यह तारीख़ो का इख्तिलाफ़ बयान कर के शक मे डालना एक चाल है और बहाने बाज़ी है जो मुन्किर है वह कभी भी किसी भी तारीख़ मे नहीं करेंगे फिर वह तारीख़ी इख़्तिलाफ़ का ज़िक्र ही क्यूँ करते है।
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 19-20
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-45)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨*
तारीख़े विलादत और तारीख़े विसाल !?
देखिये क़ुरआने करीम का पारा 26 सूरत जारियात आयत---28
और इन फ़िरिश्तों ने इब्राहीम अलैहिस्सलाम को एक जी इल्म बच्चे की ख़ुश खबरी दी।
किस्सा यह है कि फिरिश्ते हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के पास आये थे और उन्होंने ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को उनके यहाँ होनहार बच्चे के पैदा होने की ख़ुश खबरी दी थी, यह हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलातु वस्सलाम की पैदाइश का वाक़िआ है। क़ुरआने करीम ने इस को फ़रमाया। यानी बशारत दी "बशारत" ऐसी ख़बर देने को कहते हैं जिस को सुन कर या जान कर ख़ुशी हो तो हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलातु वस्सलाम की विलादत को क़ुरआन में बशारत ख़ुश खबरी कहा गया, वैसे भी आम तौर से किसी के यहाँ बच्चा पैदा होता है या होने को हो तो उर्दू मुहाविरा में कहते हैं कि उसके यहाँ खुशी हुई है या खुशी होने को है।
गोया कि बच्चे की विलादत इंसानी मुआशिरे की फ़ितरी ख़ुशी है और जब क़ुरआन की ज़बान में हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम की विलादत को फ़िरिश्तों ने ऐसी खबर बताया कि जिस पर उन्हें ख़ुश होना चाहिए तो फिर हबीबे ख़ुदा की तशरीफ़ आवरी पर ख़ुश होने या ख़ुशी मनाने वालों को शरअन मुजिरम कैसे करार दिया जा सकता है।?
यह तो विलादत पर ख़ुश होने और ख़ुशी मनाने की बात थी अब किसी के दुनिया से जाने और मौत वाकेअ होने पर ग़म मनाने का हुक्म क़ुरआन में कहाँ आया है ? हमें बताया जाये, हाँ सब्र करने की आयात व अहादीस इस क़द्र हैं कि शुमार करना मुश्किल है, हाँ इंसानी फितरत का लिहाज़ रखते हुये आम मौतों के लिए तीन दिन और बीवी को शौहर की मौत पर चार महीने दस दिन ग़म और सोग मनाने की इजाज़त दी गई, इस के बाद कसदन ग़म मनाना या ग़म वाले काम करना मम्नूअ व नाजाइज़ है, हाँ अज़ ख़ुद किसी बात को याद कर के ग़म हो जाये तो जाइज़ है, जैसे आँसू निकल जाना, या चेहरा उदास हो जाना, लेकिन जान बूझ कर ऐसा करना मना है।
हदीस पाक में है हज़रत जाफ़र तैयार رضى الله تعالیٰ عنه की शहादत की ख़बर जब मदीने शरीफ़ में आई और उन के घर में सदमे और ग़म का माहोल बना तो तीन दिन तक हुज़ूर ﷺ कुछ न बोले फिर ख़ुद उनके यहाँ तशरीफ़ लाये और फरमाया!
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 22-23
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-46)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*🇨🇨 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨*
तारीख़े विलादत और तारीख़े विसाल !?
और हुज़ूर ﷺ का विसाल तो बारगाहे ख़ुदावन्दी में एक मख़सूस हाज़िरी है वह आम मौतों की तरह नहीं है, आप का आना भी रहमत है और तशरीफ़ ले जाना भी, क्यों कि आप सरापा रहमत हैं आप की हर अदा रहमत है। और आप दुनिया से जो तशरीफ़ ले गये। यह आप की ख़ुशी इख़्तियार और पसन्द से था, यानी आप ने बारगाहे इलाही में हाज़री को अपनी ख़ुशी से ख़ुद पसन्द फ़रमाया।
📔 सहीह बुख़ारी की हदीस में है!
हज़रत अबू सईद खुदरी رضى الله تعالیٰ عنه फ़रमाते हैं कि एक बार हुज़ूर ﷺ ने खुतबा देते हुये इरशाद फरमाया! बेशक अल्लाह पाक ने एक बन्दे को इख़्तियार दिया कि चाहे वह दुनिया में रहे चाहे अल्लाह के यहाँ जाये तो इस बन्दे ने अल्लाह के यहाँ जाना पसन्द कर लिया है, यह सुन कर अबुबक्र رضى الله تعالیٰ عنه रो पड़े तो मैंने अपने दिल में सोंचा यह बुजुर्ग क्यों रो रहे हैं अगर अल्लाह ने किसी बन्दे को यह इख़्तियार दे दिया है कि चाहे दुनिया में रहे चाहे अल्लाह के यहाँ जाये, तो इस बन्दे ने ख़ुदा के यहाँ जाना पसन्द कर लिया, और यह बन्दे ख़ुद हुज़ूर ﷺ ही थे, और अबूबक्र हम में सब से ज़्यादा इल्म वाले थे!
📕 सही बुखारी ज़िल्द 1 किताबुस्सलात बाबुल ख़ौख़ते वलमगर फिलमस्जिद सफ़ह 66
मतलब यह है हज़रत अबू बक्र رضى الله تعالیٰ عنه यह समझ गये कि जिस बन्दे को हुज़ूर ﷺ फरमा रहे हैं वह ख़ुद आप ही है, और हुज़ूर ﷺ के विसाल का वक़्त क़रीब आ चुका है लिहाज़ा आप की जुदाई की वजह से रोने लगे थे!
बुखारी की इस हदीस से खूब वाजेह है कि हुज़ूर ﷺ का दुनिया को छोड़ना अपने इख़्तियार और पसंद से था, आप चाहते सब दिन दुनिया में रहते, लेकिन अल्लाह की मुहब्बत और उस से कुर्ब और उसके दीदार के शौक में आप ने दुनिया में रहना पसंद न किया, क्यों कि दुनियावी मशागिल व मसाइल इस राह में कुछ न कुछ सब के लिए हाइल होते है, और इन बातों को वही जानते हैं जिन्हें अल्लाह तआला बताये।
जो लोग हम से यह कहते हैं कि बारह रबीउल तारीख़े विसाल भी है तो तुम ग़म क्यों नहीं मनाते है, मैं उनसे कहूँगा कि विलादत की ख़ुशी हम मनाते है विसाल का ग़म आप मना लिया करें, बशर्त कि आप उसे जाइज़ साबित कर दे जैसे खुशी मनाने को हमने साबित किया है।
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 24-25
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-47)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨*
बारहवीं शरीफ़ सहाबा ने क्यों नही मनाई!?
इस में तो कोई शक नहीं कि सहाबा-ए-किराम हुज़ूर ﷺ की तशरीफ़ आवरी और आप की पैदाइश का ज़िक्र फ़रमाते थे, जब ग़ैर मुस्लिमों में जाते और उन्हें इस्लाम की दअवत देते तो फ़रमाते थे अल्लाह तआला ने हम में अपना एक रसूल भेजा यानी वह हुज़ूर ﷺ की तशरीफ़ आवरी का ज़िक्र किसी न किसी तरह ज़रूर फरमाते थे।
और हुज़ूर ﷺ के ज़िक्र की महफ़िल तो आप के मुबारक ज़माने में आप ही के सामने मस्जिदे नबवी शरीफ़ में मुन्अक़िद होती थी, सही बुख़ारी और मुस्लिम की हदीस में है हज़रत आइशा सिद्दीका رضى الله تعالیٰ عنها फ़रमाती हैं : रसूलुल्लाह ﷺ मस्जिदे नबवी में हज़रत हस्सान इब्ने साबित के लिए एक मिम्बर रखवाते वह उस पर खड़े हो कर हुज़ूर ﷺ की तारीफ़ में नअत शरीफ़ पढ़ते और हुज़ूर ﷺ के दुश्मनों की ऐब जोइयों का जवाब देते हुज़ूर ﷺ खुद सुनते और फरमाते जब उन्होंने हमारी शान बयान की और हमारे दुश्मनों को जवाब दिया। तो अल्लाह तआला हजरत रूहुलकुद्स के ज़रीआ उन की ताईद फरमाता है!
*📓मिश्कात बाबुल बयान वश्शिअर,सफह 410*
इस हदीस का मफ़हूम सही बुखारी ज़िल्द 1, किताबुस्सलात बाबुश्शेर फ़िल मस्जिद सफ़ह 64 पर भी है बल्कि ज़िक्रे मुस्तफा ﷺ की इस मज़्लिस का सिलसिला हुज़ूर ﷺ के विसाल के बाद भी जारी रहा!
हज़रत उमर फारूक़ رضى الله تعالیٰ عنه का मस्जिद नबवी शरीफ़ मे गुज़र हुआ तो देखा कि हज़रत हस्सान इब्ने साबित رضى الله تعالیٰ عنه हुज़ूर ﷺ की शान मे अश्आर पढ़ रहे हैं, उन्होने समझा की शायद हज़रत उमर मना करें या नाराज़ हो, फौरन अर्ज़ किया ऐ हज़रत उमर मे यह अशआर उनके ज़माने मे भी पढ़ता था, जो तुम से बहतर है (यानी रसूलुल्लाह ﷺ) फ़िर हज़रत हस्सान ने हज़रत अबू हुरैरा की तरफ़ देखा और कहाँ ऐ अबू हुरैरा मे तुम को अल्लाह का वास्ता देकर पूंछता हूँ आप बताइये क्या आप ने सुना है, जब मैं हुज़ूर ﷺ की शान मे अश्आर पढ़ता तो हुज़ूर ﷺ फरमाते ऐ अल्लाह रूहुलक़ुदस के ज़रीये उनकी मदद फरमा, जैसा कि उन्होंने मेरे दुश्मनों को जवाब दिया! हज़रत अबू हुरैरा رضى الله تعالیٰ عنه ने फरमाया हाँ यह सही है!
📕 सही बुख़ारी ज़िल्द 1 बाब ज़िकरूलमलाइका सफ़ह 456
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 26-27
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-48)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨*
बारहवीं शरीफ़ सहाबा ने क्यों नही मनाई!?
और सही मुस्लिम बाब फज़ाइल हस्सान बिन साबित ज़ि. 2 स.300 पर जहाँ यह हदीस है उस के आगे हज़रत हस्सान के यह अश्आर भी है जिनकी तादाद 13 है, उन मे का एक शेअर यह भी है!
ए हुज़ूर ﷺ के दुश्मनों मेरे माँ बाप और मेरा सब कुछ तुम से मुहम्मद ﷺ की हिफाज़त के लिए कुर्बान है!
तो इस में कोई शक नहीं कि ज़िक्रे पाक मुस्तफा की महफीलें मुन्अक़िद करना जमाना-ए-पाक रिसालत माआब और सहाबा-ए-किराम में राइज़ था लेकिन बाक़ाइदा तौर पर एहतिमाम के साथ किसी तारीख़ को मुतअय्यन कर के रिवाज़ के तौर पर खुशियाँ मनाना महफिलें मन्अक़िद करना रौशनी करना जुलूस निकालना उस दौर में राइज़ न था लेकिन हम इस सब को सहाबा की सुन्नत कब कहते हैं! न उन की सुन्नत समझ कर करते हैं बस एक कारेखैर अच्छा काम मुस्तहब समझ कर करते हैं, किसी काम को फर्ज़ व वाजिब या सुन्नत कहने पर सुबूत व दलील की ज़रूरत होती है, लेकिन सिर्फ़ कारे ख़ैर काम या मुस्तहब और नफ़िल होने के लिए सुबूत व दलील की ज़रूरत नहीं होती उस का सुबूत यही है कि उसमें कोई ख़राबी नहीं कोई खिलाफे शरअ ग़लत बात नहीं जो कुछ है सब अच्छा ही अच्छा है अच्छी बात है। अच्छों का ज़िक्र है।
इस बयान को कुछ तफ़सील के साथ हम वाक़ाइदा एक मुस्तक़िल उनवान के तहत लिखना चाहते हैं।
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 27-28
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-49)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨*
दर असल इस्लामी अहकान चन्द तरह के हैं!
(1) फ़र्ज़ : वह काम है जिस को करना इस्लाम में बहुत ज़्यादा ज़रूरी हो और उस का ज़रूरी होना क़ुरआन व हदीस से साफ़ तौर पर साबित हो, और उस को एक बार भी क़स़दन छोड़ने वाला बहुत बड़ा गुनहगार हराम कार जहन्नम का हक़दार कहलाये!
(2) वाजिब : जो फ़र्ज़ की तरह ज़रूरी तो न हो और उसके क़ुरआन व हदीस से ज़रूरी साबित होने में कुछ शुबह हो यानी बिल्कुल वाजेह और साफ़ न हो इसका मर्तबा फ़र्ज़ से कुछ कम है, लेकिन क़सदन छोड़ने वाला इसका भी गुनहगार है!
(3) सुन्नत : वह काम है जो फर्ज़ व वाजिब की तरह शरअन ज़रूरी न हों लेकिन फिर भी हुज़ूर ﷺ ने उसको किया हो, अगर हमेशा किया हो लेकिन कभी कभार सिर्फ़ इस लिए छोड़ दिया हो कि लोग फर्ज़ व वाजिब की तरह ज़रूरी न समझने लगे, उसको सुन्नते मुअक्किदा कहते है और वह काम जिस को हुज़ूर ने हमाशा न किया हुआ हो बल्कि कभी किया हो और कभी छोड़ा हो उसको सुन्नते ग़ैर मुअक्किदा कहतें है, सुन्नते मुअक्किदा को छोड़ने की आदत डालने वाला गुनहगार है, कभी छूट जाये तो गुनाह नहीं और सुन्नते ग़ैर मुअक्किदा को भी आदत के तौर पर छोड़ना शरअन मुनासिब और अच्छा नही, उर एक बड़े सवाब से महरूमी है!
किसी काम के फर्ज़ व वाजिब या सुन्नत हीने के लिए इस का हुज़ूर या आपके सहाबा से साबित होना ज़रूरी है, इस सब के बाद दर्जा है मुस्तहब का इस को कारे ख़ैर और अच्छा काम भी कह सकते है! इस के लिए ज़रूरी नहीं कि वह हुज़ूर ﷺ या आप के सहाबा ने किया हो! फराइज़ व वाजिबात और सुन्नतों की शुमार और गिनती है लेकिन सिर्फ़ अच्छे कामों की कोई हद व शुमार और गिनती नहीं होती, वह कितने भी हो सकते हैं, इन का कोई दाइरा नहीं खींचा जा सकता, किसी भी काम के सिर्फ़ अच्छा और मुस्तहब होने के लिए सिर्फ़ इतना काफ़ी है कि उस में कोई बुराई न हो किसी इस्लामी कानून की ख़िलाफ़ वरज़ी न हो किसी के लिए बाइसे तकलीफ़ न हो, हाँ इस को कोई न भी करे तो वह किसी अज़ाब व इताब का मुस्तहक़ नहीं, जैसे कि फर्ज़, वाजिब और सुन्नतों को छोड़ने वाले उन सज़ाओं के मुस्तहक हैं, हाँ उन से रोकने और मना करने वाला यक़ीनन क़ाबिले सज़ा है, और वह कोई बुरा आदमी होगा, जो अच्छे कामों पर फतवे लगा रहा है, और उन से रोक रहा है, बारहवीं शरीफ़ और उस से मुतअल्लिक़ जो कारे ख़ैर हैं जैसे जलसे जुलूस, रौश्नियाँ करना मिठाइयाँ बांटना, सलात व सलाम पढ़ना यह भी सिर्फ़ कारे ख़ैर और मुस्तहब काम हैं, फर्ज़ व वाजिब यानी शरअन लाज़िम व ज़रूरी नहीं और जिस अन्दाज़ से जिस शक़्ल व सूरत में आज किए जाते हैं यह हुज़ूर ﷺ या आप के सहाबा की। सुन्नत भी नहीं लेकिन कारे ख़ैर जाइज़ व मुस्तहब और अच्छे सवाब के काम होने में शुबह भी नहीं। जैसे सहाबा के ज़माने में क़ुरआन करीम में ऐराब ज़बर ज़ेर, और पेश वगैरा न थे 30 पारों में तकसीम न थी,रूकूअ और आयतो के नम्बर न थे यह सब काम उनके बाद हुये और होते ही चले आये!
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 29-30
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-50)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨*
मदरसों में जो उलूम पढाये जाते हैं यह भी न थे, जैसे इल्मे नहव, इल्मे सर्फ इल्मे लुगत, इल्मे कलाम इल्मे मआनी व बयान, इल्मे उरुज़ व क़वाफी, इल्मे मन्तिक व फलसफा,बल्कि जैसे आज मदरसे चलाये जा रहे हैं इस अन्दाज़ के मदरसे भी सहाबा के ज़माने में न थे, और यही मुआमला है, न्याज़ो फातिहाओ का तीजे दस्वें बीस्वें चालीसवा छ: माही बरसी और उरसों वगैरा का। नाम पाक पर अंगूठे चूमने कब्र पर अज़ान पढ़ने अज़ान के बाद तस्वीब यानी सलात पुकारने या नमाज़ के बाद हाथ बांध कर खड़े हो कर अस्सलातु वस्सलामु अलैका या रसूलल्लाह आहिस्ता आहिस्ता पढ़ने का। यह काम जिस अन्दाज़ में आज किए जाते हैं इस तरह सहाबा, से आम तौर पर रिवाजन साबित नहीं, लेकिन उन कामों में कोई बुराई नहीं लिहाज़ा उन्हें बुरे काम भी नहीं कहा जा सकता, बल्कि अच्छाइयाँ हैं लिहाज़ा अच्छा काम ही कहा जायेगा, इन सब कामों में क़ुरआन की तिलावत है अल्लाह और उस के रसूल और महबूब बन्दों का ज़िक्र और उनकी तअरीफें हैं या अहबाब दोस्तों रिशते दारों या ग़रीबों मिस्कीनों को खिलाना और पिलाना है, हाँ अगर कोई उन कामों को न भी करे तो उस पर शरअन जुर्म आइद नहीं होता, और वह गुनहगार नहीं क्योंकि मुस्तहब का माना ही यह है कि न करने वाला गुनहेगार न हो,और करने वाला सवाब पाये।
इस सिलसिले में हमारे कुछ भाई ज़्यादती कर बैठते हैं। अगर कोई शख़्स जुलूस में शरीक न हो, या न्याज़ फातिहा न करे या उर्स वगैरा में न जाये उसे खट से वहाबी, इस्लाम से ख़ारिज कह देते हैं यह सही नहीं। यह तो गुस्ताखों बे अदबों की एक जमाअत का नाम है और जो उनकी बे अदबियों गुस्ताख़ियों को जानते समझते हुये उन में शामिल और इस जमाअत से जुड़ा हुआ है वह भी उन्ही में से है।
आला हज़रत अलैहिर्ररहमा ने एक जगह अपनी किताब फ़तावा रज़विया में वहाबियों में जो लोग अल्लाह रब्बुल इज्ज़त, शान रिसालत और सहाबा-ए-किराम की बारगाहों के खुले गुस्ताख़ और बे अदब थे उन पर कुफ्र का फतवा लगा कर बाद में लिखा "हाँ जो बद मज़हब, दीने इस्लाम की ज़रूरी बातों में से किसी बात में शक न करता हो सिर्फ़ उन से नीचे दर्ज़े के अक़ीदों में मुखालिफ़ हो जैसे राफ्ज़ियों में तफसीली या वहावियों में इस्हाकी वगैराहुम वह अगर्चे गुमराह है मगर काफिर नहीं इन के हाथ का जबीहा हलाल है।
*📕 फ़तावा रज़विया ज़िल्द 20 सफ़ह 248*
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 31-32
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-51)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨*
हज़रत मौलाना मुफ़्ती अहमद यार खाँ नईमी अलैहिर्रहमा फरमाते हैं : और वहाबी जिन्होंने गुस्ताख़ी न की हो अग़र्चे आखिर कार मग्फिरत पा कर मन्ज़िले जन्नत तक पहुँच जायेंगे लेकिन बहुत दुश्वारियों और मुसीबतों के बाद।
📓 अशरफुत्तफासीर सफहा 86 जेरे, आयत इहदिनस्सिरातल मुस्तकीम
एक और जगह लिखते हैं, जिन की बद अक़ीदगी हदे कुफ़्र को न पहुँची हो जैसे नयाज़ व फातिहा के मुन्किर देवबन्दी!
📕 अशरफुत्तफासीर, ज़िल्द 1 सफ़ह 96
इस का मतलब यह है कि काफिर ग़ैर मुस्लिम इस्लाम से ख़ारिज कहने में एहतियात की जरूरत है। ज़ल्द बाज़ी नहीं करना चाहिए अलबत्ता गुमराह बद्दीन बद मज़हब, बद अक़ीदा कहना यह और बात है!
काफिर तो वही लोग हैं जो बारगाहे ख़ुदा और रसूल में खुले गुस्ताख़ हैं उन के अलावा और लोगों को हमें अपना ने और समझाने की कोशिश करते रहना चाहिए। लेकिन हमारे कुछ लोग बहुत ज़ल्द कुफ़्र के फतवे लगा देते हैं और जो ग़ैर नहीं थे उन्हें ग़ैर बना देते हैं और फिर वह ग़ैर ही हो जाते हैं।
दुनिया की हर कौम अपनी जमाअत को बढ़ाने. में लगी है और हम में कुछ लोग मामूली इख्तिलाफात और छोटी छोटी बातों पर अपनों को ग़ैर बना देते. है.कि जिसको हम सुन्नी कहेंगे वही सुन्नी है ऐसा कोई मामला हो तो ख़ुद फतवा देने के बजाये जिम्मेदार सुन्नी उलेमा की तरफ़ रूज़ू करना चाहिए।
इस बयान का ख़ुलासा यह है कि बारहवीं शरीफ़ मनाने और उससे मुताअल्लिक़ जो जाइज़ काम रिवाज पा गये हैं हम उन्हें सिर्फ़ जाइज़ मुस्तहब और कारे ख़ैर और अच्छे काम ही कहते हैं फर्ज़ व वाजिब या सुन्नत नहीं कहते कि हम से उन का सुबूत मांगा जाय और यह कहा जाये कि जब सहाबा ने और हुज़ूर ﷺ ने जो काम नहीं किया वह तुम क्यों करते हो!
एक मर्तबा हुज़ूर मुफ्ती-ए-आज़म मौलाना मुस्तफा रज़ा खाँ बरेलवी अलैहिर्रहमा से सवाल किया गया कि अज़ान के बाद सलात पुकारना और दफन के बाद कब्र पर अज़ान पढ़ना क़ुरआन व हदीस से उस का किया सुबूत है, तो हज़रत ने इस के जवाब में बहुत सारी बातें। लिखने के बाद एक जगह फरमाया!
"हाँ अगर कोई जवाज़ के साथ ऐसे अम्र की सुन्नियत का भी मुददई हो तो अलबत्ता उस से यह सवाल होगा कि बताओ कि हुज़ूर या सहाबा से यह कहा साबित हुआ है।
इस एवारत का मतलब यह है कि जो शख़्स उन कामों को सिर्फ़ जाइज़ न कहे बल्कि सुन्नत होने का दअवा करे उस से यह पूँछा जाये कि हुज़ूर ﷺ ने कब किया और सहाबा ने कब किया और हम सिर्फ़ जाइज़ कहते हैं सुन्नत नहीं तो हम से यह सुबूत मांगना ग़लत है।
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 35-36
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-52)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
*बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस 🇨🇨*
फिर हज़रत मुफ़्ती आज़म हिन्द अलैहिर्रहमा उसी बयान में थोड़ा आगे लिखते हैं : हम मुजव्वज़ीन,अज़ाने कब्र या इस तस्वीब को सुन्नत कब बताते हैं जिन से यह सवाल किया जाता कि तस्वीब मुकर्रर इत्तिलाअ करना और कब्र पर अज़ान देना हुज़ूर ﷺ से या आप के सहाबा से साबित है या नहीं और सिर्फ़ जाइज़ होने के लिए हुज़ूर ﷺ या सहाबा का करना ज़रूरी नहीं।
📔 फ़तावा मुस्तफविया, 165,166 मतबूआ रज़ा एकेडमी बम्बई
हज़रत के इस बयान का मतलब भी यही है कि हम मुजव्वज़ीन हैं यानी कब्र पर अज़ान और नमाज़ से पहले सलात पुकारने को सिर्फ़ जाइज़ कहते हैं सुन्नत नहीं कहते तो हम से यह क्यों पूँछा जाता है कि हुज़ूर ﷺ या आप के सहाबा से इन चीज़ों को साबित करो किसी काम के सिर्फ़ जाइज़ होने के लिए हुज़ूर ﷺ या सहाबा से साबित होना ज़रूरी नहीं।
आज कल कुछ हमारे सुन्नी भाई उस तस्वीब,सलात पुकारने को इतनी अहमियत देने लगे है कि अज़ान सुनकर उनके कान पर जूं नहीं रींगती बल्कि मस्जिद को जाने के लिए सलात का इन्तिज़ार करते हैं यह सब गलत हो रहा है अज़ान की अहमियत को घटाना बहुत सख़्त गलत बात है और कुछ लोग यह समझते हैं कि अगर सलात न पुकारी जाये तो शायद नमाज़ में कोई कमी रह जायेगी हांलाकि ऐसा नहीं। ऐसे ही हर नमाज़ के बाद मदीने शरीफ की तरफ मुंह कर के धीरे धीरे जो सलात पढ़ने का रिवाज़ है उसको भी लगता है जैसे कुछ लोग नमाज़ का हिस्सा समझने लगे हैं हालाकि वह नमाज़ का हिस्सा नहीं। मेरा तरीका है कि मैं उस को कभी पढ़ता हूँ ताकि कोई नाजाइज़ न समझने लगे और कोई नाजाइज़ कहे तो मैं उस से बहस व मुबाहिसा कर के जाइज़ साबित कर सकता हूँ। लेकिन कभी कभी नही पढ़ता और छोड़ देता हूँ ताकि उस को लोग फर्ज, वाजिब या सुन्नत या नमाज़ का हिस्सा न समझने लगें।
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खाँ बरेलवी अलैहिर्रहमा से शोहदा-ए-करबला की नज़र व नियाज़ और बुजुर्गाने दीन के उर्स के मुताअल्लिक़ पूँछा गया तो उन्होंने फरमाया : यह उमूर अगर बतौर शरअ शरीफ़ हों तो सिर्फ़ मुस्तहबात हैं, और मुस्तहब पर जब्र नहीं हो सकता।
📕 फ़तावा रज़विया,जदीद जि 26 सफ़ह 289
यानी यह सब काम सिर्फ़ मुस्तहब हैं फर्ज़ व वाजिब या सुन्नत नहीं हैं, कोई करे तो सवाब न करे तो गुनाह नहीं और करने के लिए किसी पर दबाव डालना भी सही नहीं। एक मर्तबा एक लड़के ने अपनी माँ के इन्तिकाल के बाद उसकी छोड़ी हुई जाइदाद या नक़्दी में से कफ़न, दफ़न और नयाज़ व फातिहा में दो हज़ार सात सौ रुपये ख़र्च कर डाले और दूसरे भाई बहन जो उसके वारिस होंगे उन से नहीं पूछा, और यह बात कम अज़ कम सौ साल पहले की होगी, उस जमाने में यह रकम बड़ी अहमियत की हामिल होगी, आला हज़रत अलैहिर्रहमा से सवाल किया गया तो उन्होंने दफ़न और कफ़न को सुन्नत करार दे कर उस में जो ख़र्चा किया उस को तो जाइज़ रखा कि उस ख़र्चे के लिए दरारे वुरसा से पूछने की ज़रूरत नहीं, लेकिन फातिहा, तीजा और चालीसवा वगैरा में जो ख़र्चा किया उस के बारे में फरमाया कि वह उस लड़के को अपने पास से भरना पड़ेगा, क्योंकि यह काम सुन्नत नहीं, सन्नत से जाइद हैं सिर्फ़ मुस्तहब हैं। आला हज़रत अलैहिर्रहमा के अल्फाज़ यह हैं! बक़द्रे सुन्नत गुस्ल व कफ़न व दफ़न में जिस क़द्र सर्फ़ होता है उसी क़द्र के हिस्सा रस्द ज़िम्मेदार हो सकते हैं, फातिहा व सदक़ात व सोम व चहल्लुम में जो सर्फ़ हुआ या क़ब्र को पुख्ता किया और मसारिफ क़द्र सुन्नत से ज़ाइद किए वह सब ज़िम्मा-ए-पिसर पड़ेंगे, बाकी वारिसों को इस से सरोकार नहीं।
📕 फतावा रज़विया ज़िल्द 26 सफ़ह 288
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 37-39
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ईदे मिलादुन्नबी ﷺ (Part-53)
_जब तलक़ ये चाँद तारे झिल मिलाते जाएंगे_
_तब तलक़ जश्ने विलावत हम मनाते जाएंगे_
एक बार आला हज़रत अलैहिर्रहमा से किसी ने पूँछा कि औलिया अल्लाह के कफ़न दफ़न और नयाज़ व फातिहा में कितना रूपया ख़र्च करना चाहिए, तो जवाब में लिखा : तजहीज़ व तकफ़ीन में उसी क़द्र जो आम मुसलमानों के लिए सर्फ़ हो सकता है, फातिहा व उर्स के लिए शरअ से कोई मुतालबा नहीं।
📕 फतावा रज़विया,ज़िल्द ,26 सफ़ह 288
यानी फातिहा व उर्स शरअन फ़र्ज़ व वाजिब और लाज़िम व ज़रूरी नहीं, और अगर कोई बारहवी, ग्यारहवी मनाने जुलूस व नयाज़ व फ़ातिहा उर्स वगैरा को फ़र्ज़ व वाजिब कहे तो यह ज़्यादती है और उसे ख़ुदा के ख़ौफ से लर्जना चाहिए, कि जो काम जमान-ए-पाक रिसालत मआब ﷺ और सहाबा में मौजूद सुरतों में नहीं पाये जाते उन्हें इस्लाम का जुज़ (हिस्सा) बना देना और इस्लाम में दाखिल कर देना जुरअते बेजा है, और ख़ुदा से न डरने वालों का काम है। हमें नहीं चाहिए कि हम किसी फ़िर्क़े की ज़िद और चिढ़ में हद से आगे बढ़ जायें, हम मुसलमान हैं। हमारा मज़हब इस्लाम है। अगर किसी की ज़िद में हम इस्लामी हुदूद से आगे बढ़ रहे हैं तो यह गिरोह बन्दी है हक़ परस्ती और हक़ पसन्दी नहीं।
कुछ हज़रात कहते हैं कि इन कामों को फर्ज़ व वाजिब शरअन लाज़िम व ज़रूरी कहने में मस्लेहत और सुन्नियत का फायदा है तो मैं कहता हूँ कि क्या आप आला हज़रत अलैहिर्रहमा से भी ज़्यादा मस्लेहत शनास और सुन्नियत को फायदा पहुँचाने वाले हो गये हैं. जिन्होंने उन कामों को बार-बार सिर्फ़ मुस्तहब और क़द्रे सुन्नत से ज़ाइद लिखा। और सुन्नियत का फाइदा मुस्तहब समझ कर करने में है। फ़र्ज़ व वाजिब का दर्जा देने में नुक़्सान है।
📙 बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़ह 39-40
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