🅿🄾🅂🅃 ➪ 01
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❝ किताब क्यूँ लिखी ❞
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⚘❆➮ रबीउल अव्वल शरीफ़ की बारह तारीख़ को अहले इस्लाम बड़ी तादाद में दुनिया भर में *हुज़ूर रहमते आलम हबीबे किबरिया अहमदे मुजतबा मुहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम* की तशरीफ़ आवरी आप की विलादत,पैदाइश की तरह तरह से ख़ुशी मनाते चले आये हैं, एक मुसलमान होने की नाते हुज़ूर की तशरीफ़ आवरी पर खुश होना ईमान का तकाज़ा बल्कि ईमान की तकमील और उस की पूर्ति है,वह भी क्या मुसलमान जो हुज़ूर के आने पर खुश न हो,और जब खुश होना जाइज़ है तो इस खुशी का इजहार, ऐलान,इश्तिहार और चर्चा करना भी जाइज़ है,
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 04📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 02
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❝ किताब क्यूँ लिखी ❞
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⚘❆➮ बल्कि हर अच्छा नेक और जाइज़ काम जिस तरह करना जाइज़ है उसको ज़ाहिर करना भी जाइज़ है,जब तक शरीअत से उस पर मना साबित न हो,या उसको जाहिर न करने में कोई शरई या समाजी मस्लेहत हो,या तकलीफ़ व ईज़ा रसानी का सबब हो,लेकिन यहाँ इस सब में से कोई बात नहीं। इस खुशी के इज़हार और उस को मनाने में किसी शरई हुक्म की ख़िलाफ़ वरजी न किसी मस्लेहत के ख़िलाफ़ है न किसी की तकलीफ व ईजा रसानी का सबब और *हुज़ूर सल्लललाहु तआला अलैहे वसल्लम* की विलादत व तशरीफ़ आवरी पर खुशी और मुसर्रत का इज़हार करना हर वक़्त जाइज़ है और उस के लिए कोई वक़्त दिन वगैरा मुकर्रर करना भी जाइज है,क्योंकि जो काम हर दिन जाइज़ है वह किसी एक दिन को मुक़र्रर करके भी जाइज़ होगा।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 04📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 03
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❝ किताब क्यूँ लिखी ❞
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⚘❆➮ जब कि खास उस दिन के मुक़र्रर करने को ज़रूरी ख़्याल न करे यानी यह न ख़्याल करे कि सिर्फ उसी दिन जाइज़ है, उस के एलावा और किसी दिन नाजाइज है, यह ऐसा ही है जैसे ब्याह शादी की तकरीबात, मीटिंगों, पंचाइतों, राये मशवरों वगैरा के लिए दिन तारीख़ मुक़र्रर कर ली जाती है, या दीन की तब्लीग और इशाअत के कामों के लिए औकात व अय्याम खास कर लिए जाते हैं कि फुलाँ आलिम साहिब फुलाँ मस्जिद में इतने वक़्त कुर्आन व हदीस का दर्स देते हैं या कोई किताब पढ़ कर सुनाते हैं, तो यह दिनों तारीख़ों या औकात का मुक़र्रर करना किसी शरई हुक्म की वजह से नहीं होता कि शरीअत ने उस काम को इस दिन के लिए ख़ास कर दिया है,
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 04📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 04
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❝ किताब क्यूँ लिखी ❞
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⚘❆➮ और कोई यह अकीदा नहीं रखता कि यह काम उस ख़ास दिन के अलावा किसी और दिन नहीं किया जा सकता या उस वक़्त के अलावा किसी और वक़्त किया जाता तो गुनाह हो जाता, जलसे जुलूस, महफ़िलों, मज्लिसों, न्याजों, फ़ातिहाओं वगैरा के लिए जो दिन मुक़र्रर कर लिए जाते हैं उनका मुआमला भी बस ऐसा ही और इतना ही है इस से ज़्यादा नहीं, मुर्दो की फ़ातिहा उन के ईसाल सवाब के लिए तीजे, दस्वी, चालीसवीं, और बर्सी वगैरा के दिन जो मुक़र्रर होते हैं उनके लिए भी शरीअत का कोई हुक़्म नहीं हर दिन हर वक़्त हर मरने वाले को किसी कारे खैर,अच्छे काम का सवाब पहुँचाया जा सकता है!
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 04📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 05
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❝ किताब क्यूँ लिखी ❞
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⚘❆➮ दिनों और औक़ातका मुक़र्रर करना सिर्फ़ अपनी सहूलतों आसानियों और मस्लेहतों की वजह से होता है, शरई हुक़्म समझ कर नहीं और जो लोग किसी ख़ास फातिहा या ईसाले सबाब को किसी ख़ास दिन या वक़्त के साथ ज़रूरी समझते है। कि इस के अलावा और दिन या और वक़्त में जाइज़ नहीं यह उन की जिहालत व नादानी और ना वाक़िफी है!
*आला हजरत इमाम अहमद रज़ा खाँ अलहिर्रहमा बरेलवी फरमाते हैं!*
यह तईनात उर्फिया हैं इन में असलन हर्ज़ नही, जब कि उन्हें शरअन लाज़िम न जाने यानी यह न समझे कि इन्ही दिनों सवाब पहुँचेगा आगे पीछे नहीं।
*📕फ़तावा रज़विया ज़िल्द 9 सफ़हा 604📕*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 06📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 06
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❝ किताब क्यूँ लिखी ❞
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⚘❆➮ कभी यह खास दिनों का मुक़र्रर करना किसी मुनासिबत या तअल्लुक़ की वजह से भी होता है, जैसे किसी बुजुर्ग के ईसाले सवाब के लिए उन के विसाल व इन्तिकाल के दिन को मुक़र्रर कर लेते हैं जिसे उस कहा जाता है।
⚘❆➮ रबीउल अब्बल के महीने की बाराह तारीख़ का मुआमला भी ऐसा ही है उस तारीख़ को *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की विलादत तशरीफ़ आवरी और पैदाइश से यक़ीनन मुनासिबत और तअल्लुक़ है, यानी इस तारीख़ में सुब्ह सादिक़ के वक़्त *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की तशरीफ आवरी हुई लिहाज़ा इस तारीख़ को इस मुनासिबत से जश्ने विलादत के लिए ख़ास कर लेना भी दुरुस्त है और पूरे साल और भी कभी किसी दिन महफ़िले मीलाद मुन्अक़िद की जाये तो वह भी सही है, जब कि यह काम शरीअत के दाइरे में रह कर हों और कोई ऐसी हरकत न की जाये जिस में इस्लाम के किसी कानून की खिलाफ वर्जी हो, और कोई सुन्नी मुसलमान यह सब न भी करे लेकिन उन कामों को जाइज़ जानता हो तो वह अगर्चे इस के सवाब से महरूम रहेगा:
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 06📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 07
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❝ किताब क्यूँ लिखी ❞
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⚘❆➮ और आज कल हर तरफ़ से कुछ ज़्यादतियाँ हो रही हैं और यह छोटी सी किताब हम ने उन्ही ज़्यादतियों की निशान दही और उन से आगाही के लिए ही मुरत्तब करने का इरादा किया है, हम आने वाले सफ़हात में उन के ज़हिनों को भी साफ़ करने की कोशिश करेंगे जो बारहवी शरीफ़ मनाने या महफिले मीलाद मुन्अक़िद करने की मुख़ालिफ़त करते और उसे नाजाइज़ व हराम समझते और कहते हैं, और उन्हें भी समझाने की कोशिश करेंगे जो इन उमूर में शरीअत की हद से आगे बढ़ गये हैं,और बढ़ते ही जा रहे हैं, और अच्छे कामों को उन्होंने पूरी तफ़रीह तमाशा और दिल लगी नौटंकी बना डाला और दीन के नाम पर खुराफातें करने लगे और जलसे जुलूस,शर पसन्द लड़कों के शौक़ बन गये,या अहले सियासत के लिए सियासी रोटियाँ सेकने के तन्दूर हो गये।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 07,08📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 08
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❝ किताब क्यूँ लिखी ❞
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⚘❆➮ किताब के शुरू में हम उन लोगों के ऐतिराज़ात को दफ़अ करेंगे जो बारहवीं शरीफ के सिरे से मुख़ालिफ़ और मुन्किर हैं, और बाद में हद से आगे बढ़ने वालों के लिए भी दाइरा खींचा जायेगा, और उन्हें बताया जायेगा कि आप को क्या करना चाहिए था और आप क्या कर रहे हैं, कहाँ तक जाना चाहिए था और कहाँ पहुँच गये हैं। हमारा काम समझाना और बताना है और दिल में डालना तो अल्लाह तआला ही का काम है, और वह हर ख़ैर की तौफीक व ताकत देने वाला है, और उसी के लिए हैं सब तारीफें हम्द व सताइश, बड़ाइयाँ, बुज़ुर्गियाँ और वलन्दियाँ। उस के बे शुमार, अन गिन्त, ला तादाद दुरूद व सलाम और रहमतें नाज़िल होती रहें उस के उन *महबूब पैगम्बर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* पर जिन के नूर से काइनात रौशन हुई, अंधेरा छंटा उजाला आया, ज़ुल्मत दूर हुई नूर चमका, रात ढली और दिन निकला।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 07,08📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 09
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❝ विलादत की ख़ुशी कुर्आन व हदीश से? ❞
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⚘❆➮ اذکروا نعمة الله عليکم
और याद करो अल्लाह की वह नेअमत (एहसान) जो तुम पर
है।
*📚 सूरतुल बकरा, आयत न• 231*
*📚 सूरतुल बकरा, आयत न• 231*
واشكروا نعمة الله إن كنتم إياه تعبدون
और अल्लाह की नेअमत का शुक्र करो अगर तुम उस को पूजते (मानते) हो।
*📚 सूरतुन्नहल, आयत न• 114*
और अल्लाह की नेअमत का शुक्र करो अगर तुम उस को पूजते (मानते) हो।
*📚 सूरतुन्नहल, आयत न• 114*
और कुरआन करीम की सूराए इब्राहीम आयत न• 29 में
الذین بدلوا نعمت اللہ کفرا
(जिन लोगों ने अल्लाह की नेअमत को कुफ्र से बदल डाला) की तफसीर में सहाबी-ए-रसूल हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास और हज़रत अमर इब्ने दीनार से सही बुख़ारी में यूँ मरवी
الذین بدلوا نعمت اللہ کفرا
(जिन लोगों ने अल्लाह की नेअमत को कुफ्र से बदल डाला) की तफसीर में सहाबी-ए-रसूल हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास और हज़रत अमर इब्ने दीनार से सही बुख़ारी में यूँ मरवी
ثم والله کفر قریش قال عمرو وهم قريش ومحمد صلى الله
و تعالى عليه و سلم نعمة الله
و تعالى عليه و سلم نعمة الله
यानी जिन्होंने अल्लाह की नेअमत को कुफ्र से बदला वह कुरैश खान्दान के काफिर थे, और अल्लाह की नेअमत मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम हैं।
*📚 सही बुख़ारी, ज़िल्द 2, सफ़ह 566, किताबुलमग़ाज़ी बाब कत्ल अबी जहल*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 08,09📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 10
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❝ विलादत की ख़ुशी कुर्आन व हदीश से? ❞
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⚘❆➮ यानी कुरआन में जो लफ़्ज़ अल्लाह की नेअमत आया है, सही बुख़ारी की हदीस से यह मालूम हुआ वह हुज़ूर हैं, और पहले ज़िक्र की गई आयतों में और उस के अलावा भी कई आयतों में अल्लाह तआला ने अपनी नेअमत का ज़िक्र व चर्चा करने और इस नेअमत पर अल्लाह का शुक्र करने का हुक्म दिया, गोया कि हुज़ूर की तशरीफ़ आवरी पर खुशी का इज़हार करना और अल्लाह तआला की इस नेअमत का ज़िक्र और खूब चर्चा करना अल्लाह का शुक्र करना है।
⚘❆➮ एक जगह कुरआने करीम में फ़रमाया जाता है
قل بفضل الله وبرحمته فبذلك فليفرحوا
आप कहिए अल्लाह के फल और उसकी रहमत पर खुशी मनाओ
आप कहिए अल्लाह के फल और उसकी रहमत पर खुशी मनाओ
*📚 सूरह युनूस, आयत 58*
एक मकाम पर यूँ फरमाया गया
و اما بنعمة ربك فحدث
و اما بنعمة ربك فحدث
*📚 सूरह वद्दोहा, आयत 11*
⚘❆➮ और अपने रब की नेअमत को खूब बयान करो। मैं पूछता हूँ कि *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* से बढ़ कर अल्लाह तआला की कौन सी रहमत है और कौनसी नेअमत है, और कौन सा फज़्ल है तो आप की विलादत पर खुशी का इज़हार करना और जाइज़ तौर तरीक़ों से ख़ुशी मनाना क्यों नाजाइज़ हो गया?
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 08,09📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 11
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❝ विलादत की ख़ुशी कुर्आन व हदीश से? ❞
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⚘❆➮ ख़ुलासा यह कि बाक़ाइदा एहतिमाम के साथ बारहवीं शरीफ़ मनाना या महफ़िले मीलाद का इन्अकाद करना अगर्चें इस्लाम में यह नये काम हैं। सहाबा व ताबेईन के दौर में उनका रिवाज न था। लेकिन उनकी असल कुरआन व हदीस से साबित है." और इन सब की असल *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की तशरीफ़ आवरी पर ख़ुशी का इज़हार आप का ज़िक्र और चर्चा करना और आप को याद रखना है यह यक़ीनन कुरआन व हदीस से साबित है।
*कुरआन की एक मशहूर आयत यह भी है!*
*ورفعنا لك ذكرك (سورہ الم نشرح: آیت*
*हम ने आप के ज़िक्र को आप के लिए बुलन्द किया।*
*ورفعنا لك ذكرك (سورہ الم نشرح: آیت*
*हम ने आप के ज़िक्र को आप के लिए बुलन्द किया।*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 10📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 12
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❝ विलादत की ख़ुशी कुर्आन व हदीश से? ❞
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⚘❆➮ तो अल्लाह का *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* के ज़िक्र को बुलन्द करने। का मतलब यही तो होगा कि खूब ज़्यादा आप का ज़िक्र कराया और आप का नाम मखलूक़ की ज़बान पर जारी करा दिया, और चहार दांगे आलम में आप का, डंका बजवा दिया, बारहवीं शरीफ़ मनाने और महफिले मीलाद मुन्अक़िद करने से यह बातें ख़ूब अच्छी तरह हासिल होती हैं, और उन में अल्लाह व रसूल के ज़िक्र व चर्चे के अलावा और क्या है? हज़रत बरअ से मरवी हदीस पाक में है कि *हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम* जब मदीना तशरीफ़ लाये तो मैंने मदीना वालों को इतना ख़ुश होते किसी बात पर कभी न देखा जितना ख़ुश वह *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* के तशरीफ़ लाने पर थे, यहाँ तक कि छोटे छोटे बच्चों को मैंने देखा कि वह खुश हो कर कहते थे।
"यह अल्लाह के रसूल हैं जो हमारे यहाँ तशरीफ लाये हैं"
(सही बुख़ारी जि.1स.बाब मक़्दमिन्नबीए इल्लमदीना)
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा ,11📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 13
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❝ विलादत की ख़ुशी कुर्आन व हदीश से? ❞
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⚘❆➮ तो जब मदीने वालों ने मदीने में *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* के आने की ख़ुशी मनाई थी तो दुनियाँ वालों को दुनियाँ में आने की ख़ुशी मनाना चाहिए, और अहले मदीना ने हिजरते मुस्तफा और मदीने में आप की तशरीफ़ आवरी की इस ख़ुशी को हर साल के लिए बाकी भी रखा. यानी हिजरी सन तभी से चली जो हर साल आती है. और हर साल *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* के मदीने आने की याद दिलाती है।
⚘❆➮ *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की तशरीफ़ आवरी की ख़ुशी को भुलाने वालों को चाहिए कि वह हिजरी सन का इस्तेमाल न किया करें, क्यों कि यह भी मदीने में *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* के आने की याद गार है।
⚘❆➮ यह किताब हम ने अपने अवाम भाइयों के लिए मुख़्तसर लिखने का इरादा किया है, वर्ना हम चाहें तो अल्लाह तआला की तौफीक से इस मज़मून को बहुत फैला सकते हैं और इस मफहूम की बहुत सी कुरआन की आयात व अहादीस जमा कर सकते हैं।
⚘❆➮ अहादीस की किताबों में *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की पैदाइश की ख़ुशी में *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* के चचा अबूलहब का अपनी बांदी सुवैबा को आज़ाद करने का वाकिया आ भी बहुत मशहूर है। काफ़िर था लेकिन फिर भी उस ख़ुशी पर बांदी को आज़ाद करने की वजह से उस के अज़ाब में आसानी कर दी गई जैसा कि उसने ख़्वाब में अपने घरवालों को बताया था, देखिये
*📕सही बुखारी जि.2स. 764 किताबुन्निकाह व उसकी शरह फत्हुलबारी व उम्दतुल कारी📕*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 11,12📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 14
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❝ बार-बार ख़ुशी मनाना!? ❞
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⚘❆➮ कुछ लोग कहते हैं कि *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की विलादत पर खुश होना और खुशी मनाना अगर जाइज़ भी है तो एक बार ऐसा कर लेना काफी है यह बार-बार महफ़िले मीलाद क्यों करते हो और हर साल बारह रबीउल अव्वल की तारीख़ आने पर जश्न क्यों मनाते हो, तो हम कहते हैं जो काम अच्छा है और बार-बार किया जाये तब भी अच्छा ही रहेगा, बारबार करने से अच्छाई बढ़ेगी या घटेगी? मिसाल के तौर पर ग़रीबों मिस्कीनों को खाना खिलाना सवाब है तो अगर एक दिन या एक बार खिलाये तब भी सवाब मिलेगा और अगर बार-बार रोज़ाना खिलाये तो सवाब बढ़ेगा न कि कम होगा।
⚘❆➮ कलमा पढ़ना दुरूद शरीफ पढ़ना या कोई भी ज़िक्रे ख़ैर तस्बीह व तहमीद व तहलील व तकबीर पढ़ना बड़ी फज़ीलत व सवाब का काम है, अगर कोई बहुँत ज़्यादा पढ़े बार-बार पढ़े बल्कि हर वक़्त पढ़े तो किया मआज़ल्लाह यह गुनाह हो जायेगा।
⚘❆➮ *हजरत अबूक़तादा रदिअल्लाहु तआला अन्हु* से रिवायत है कि *हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम* से पीर (सोमवार) के दिन रोज़े के बारे में पूछा गया तो आप ने फरमाया।
*इसी दिन मेरी पैदाइश हुई और इसी दिन से। मेरे ऊपर वही नाज़िल हुई।*
*📕सही मुस्लिम,किताबुस्सियामः1/388-मिश्कात,सः179 1📕*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 15
••──────────────────────••►
❝ बार-बार ख़ुशी मनाना!? ❞
••──────────────────────••►
⚘❆➮ इस हदीस से अच्छी तरह वाज़ेह हो गया कि *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* ने अपनी पैदाइश के दिन को यादगार के तौर पर बाकी रखने के लिए पीर के दिन रोज़ा रखने की इजाज़त दी
⚘❆➮ और सही हदीसों से साबित है कि *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* खुद भी पीर के दिन रोज़ा रखते थे, और पीर का दिन हर -हफते में एक बार आता है,तो जब हर हफ्ते पीर के दिन रोज़ा रख कर *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की पैदाइश की यादगार मनाना जाइज़ हुआ तो हर साल कैसे नाजाइज़ होगा? पीर का दिन तो साल में बार-बार यानी कम अज़ कम पचास बार तो आता ही है, बारह रबीउलअब्बल तो एक ही बार तशरीफ़ लाता है।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 12,13📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 16
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❝ बार-बार ख़ुशी मनाना!? ❞
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⚘❆➮ इस मौक़े पर *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की तशरीफ़ आवरी की ख़ुशी में मीलाद पढ़ने और पढ़वाने वाले और बारहवी शरीफ़ मनाने वालों से यह गुज़ारिश ज़रूर करूँगा कि यह इस सब के साथ हुजूर की पैदाइश की यादगार के तौर पर पीर को रोज़ा भी रख लिया करें, तो और बेहतर रहेगा, *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की यह ख़ास सुन्नत है, और सहाबा-ए-किराम भी यह रोज़ा रखा करते थे, और उसके लिए मज़ीद हवालों की भी ज़रूरत नहीं हदीस व फिक़्ह की सारी किताबों में इस रोज़े का सुन्नत होना मजकूर है, और मैं समझता हूँ कि पीर के दिन का रोज़ा *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की विलादत पर ख़ुशी का सब से उम्दा इज़हार और आप की तशरीफ़ आवरी की बेहतरीन याद गार है, लोग और तरीकों से जश्न और ख़ुशियाँ मनाने और जलसों और जुलूसों में लग गयें हैं, और इस रोज़े को भूले हुये हैं जो ख़ास *हुज़ूरे पाक सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* से वाज़ेह तौर पर सही और सरीह हदीसों से साबित है ख़ुदा-ए-तआला यह रोज़ा रखने की हमें तौफीक व ताकत दे और हमारे तमाम अहले सुन्नत भाइयों को।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 12,13📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 17
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❝ बार-बार ख़ुशी मनाना!? ❞
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⚘❆➮ एक और हदीस पाक में है *हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास रदियल्लाहु तआला अन्हु* जब मदीने तशरीफ़ लाये तो देखा कि मदीने के यहूदी दस मुहर्रम आशूरा के दिन रोज़ा रखते हैं *रसूले पाक सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम* ने उन से फरमाया तुम्हारे यह रोज़ा रखने का किया सबाब है? उन्होने ने कहा यह एक अज़ीम दिन है इस दिन अल्लाह तआला ने *हज़रत मूसा अलैहिस्सलात वस्सलाम* और उन की क़ौम को निजात दी, और फिरऔन और उस की क़ौम को डूबो दिया *हज़रत मूसा अलैहिस्सलात वस्सलाम* ने शुक्र अदा करने के लिए उस दिन रोज़ा रखा था और हम भी रखते है इस पर *रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआलाअलेहे वसल्लम* ने फरमाया हज़रत मूसा की वजह से शुक्र करने का तुम से ज़्यादा हमारा हक है फिर *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* इस दिन का रोज़ा ख़ुद भी रखा और रखने का हुक्म दिया
*📕सही बुखारी ज़ि.1बाब सियाम यौम आशूरा स.266, व सही मुस्लिम जि.,बाब सौम आशुरा स.359📕*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 15📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 18
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❝ बार-बार ख़ुशी मनाना!? ❞
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⚘❆➮ इस हदीस से भी अच्छी तरह वाजेह हो गया। कि जिस दिन अल्लाह तआला ने कोई ख़ास एहसान फरमाया हो उस दिन कोई अच्छा काम कर के यादगार के तौर पर मनाना जाइज़ है, और हर साल मनाना भी जाइज़ है.क्योंकि आशूरे का रोज़ा एक बार ही नहीं बल्कि हर साल रखना सवाब का काम है।
⚘❆➮ इस हदीस से यह भी साबित हुआ कोई अच्छा काम अगर ग़ैर लोग करते हों तो हमें उन की ज़िद में उस काम को छोड़ना नहीं चाहिए बल्कि अच्छे कामों में उन से आगे रहना चाहिए जैसे आज कल वहाबी फ़िर्क़े के लोग नमाज़ पढ़ने पर बहुँत जोर देते हैं तो हमारी जमाअत के कई मुक़र्रिरों ने नमाज़ की मुखालिफत सी करना शुरू कर दी है, और तक़रीरों मे ऐसी बातें करते हैं जिस से नमाज़ का हलका पन जाहिर होता है कोई कहता है जन्नत नमाज़ रोज़े से नहीं बल्कि अक़ीदत व मोहब्बत से मिलेगी, कोई कहता कि नमाज़ से जन्नत मिलती तो शैतान जन्नत से। क्यों निकाला जाता, वह तो बड़ा नमाज़ी था, कोई कहता है कि नाबालिग बच्चा मरजाये तो जन्नत जायेगा हालांकि उस पर नमाज़ फर्ज़ नहीं। में कहता हूँ कि असली सच्ची हक़ीक़ी मोहबत अक़ीदत वाला वही जो सुन्नी है और नमाज़ी है और शैतान जन्नत से इसलिए नहीं निकाला गया था कि वह नमाज़ी था बल्कि इसलिए कि उस ने अल्लाह की नाफरमानी की और तकब्बुर किया था। और नाबालिग जिस पर नमाज़ फर्ज़ नहीं उसकी मिसाल उन लोगों से देना। ही गलत है जो बालिग हैं और उन पर नमाज़ फर्ज़ है सही बात यह है कि ऐसे जाहिल मुक़र्रिरों की तक़रीरें सुनना सुनवाना सब नाजाइज़ व गुनाह है, और उनकी सोहबत से बचना चाहिये जो नमाज़ जैसे इस्लामी फरीजे की अहमियत लोगों की नज़र में गिरायें।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 15,16📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 19
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❝ बार-बार ख़ुशी मनाना!? ❞
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⚘❆➮ हालात यहाँ तक पहुँच गये कि अगर हमारी जमाअत का कोई आलिम अल्लाह तआला के ज़िक्र उस के शुक्र और उसकी ऐबादत पर लिखे या बोले। तो कुछ लोग उस के बदमज़हब होने का शक करने लगते हैं। यह कितनी ख़राब बात है गोया कि अल्लाह का ज़िक्र बदमज़हबों का हिस्सा हो गया और अम्बिया व औलिया के फज़ाइल हमारा हिस्सा हो गये हालांकि हक यह है कि वह भी हमारा हिस्सा और यह भी हमारा, ज़िक्रे ख़ुदा भी हमारा काम है और फज़ाइले अम्बिया, औलिया भी। कभी ऐसा होता है कि इस क़िस्म की तक़रीरों की कोई बदमज़हब तअरीफ कर देता है। तो लोग कहते है कि फलाँ मौलवी साहब की तक़रीर की दूसरे फ़िर्क़े के लोग तारीफ़ कर रहे थे और इस को अच्छा नही समझते। मैं कहता हूँ या तो अच्छी बात है कि ग़ैर लोग भी हमारी तारीफ़ करें हमारे *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की तारीफ़ हर दौर में ग़ैर मुस्लिमों ने की है। और आप की नाते भी लिखी है और बदमज़हबों ने तो आला हज़रत अलैहिर्ररहमा की भी तारीफें की हैं जो छिपी हुई नहीं बल्कि किताबों में छपी हुई है। हाँ सुन्नी आलिम को अपने सन्नी होने का इज़हार भी किसी तरह कर देना चाहिए।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 16📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 20
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❝ क्या 12 रबीउल अव्वल विलादत की तारीख़ नही!? ❞
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⚘❆➮ *हुज़ूर रहमते आलम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम* की तशरीफ़ आवरी की तारीख़ के बारे में रिवायात मुख्तलिफ हैं रबीउलअव्वल की बारह तारीख़ के अलावा कुछ किताबों में और तारीखें भी मज़कूर हैं यह इसलिए हुआ कि जिस जमाने में सरकार की तशरीफ़ आवरी हुई उस वक़्त नसब महफ़ूज़ रखने पर तो बहुत ज़ोर दिया जाता था एक आम आदमी भी अपने बाप दादाओं में दस बीस पुश्तों तक के नाम सुना सकता था, लेकिन पैदाइश की तारीख़ लिखने या याद रखने का कोई ख़ास रिवाज न था, यह भी आम तौर से मालूम न था कि यह बच्चा महबूबे परवरदिगार है सारी काइनात का सरदार है जो आप की हर हर बात लिख कर रखी जाती हर अदा महफूज़ की जाती, बाद में तलाश करने वालों में इख्तिलाफ़ हो गया, कुछ मुहद्दिसीन और मुवर्रिख़ीन की तहकीक़ बारह रबीउल्ल अव्वल के अलावा भी है लेकिन ज़्यादा तर हज़रात की तहक़ीक़ यही है कि वह बारह रवीउल अव्वल ही है, इमाम अहमद कुस्तुलानी ने सारी रिवायात जमा करने के बाद में बारह रबीउलअव्वल का ज़िक्र फरमाया वह लिखते हैं!
وعليه عمل أهل مكة في زيارتهم بموضع مولده في هذا الوقت
मक्का मुअज़्ज़मा(जिस शहर में हुज़ूर की विलादत हुई) वहाँ के लोगों का अमल बारह रबीउल अव्वल पर ही है क्यों कि वह लोग इस दिन उस मकान की ज़्यारत करते हैं जिस में हुज़ूर की पैदाइश हुई थी।
:"والمشهوژانه ولد يوم الإثنين ثانی عشر شهر ربيع الأول و وهو قول ابن اسحاق وغيره“
और मशहूर यही है कि आप पीर के दिन बारह रबीउल अव्वल को दुनिया में तशरीफ़ लाये।
*📕अलमवाहिबुल लदुनिया,ज़ि,1स,142📕*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 17📚*
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❝ क्या 12 रबीउल अव्वल विलादत की तारीख़ नही!? ❞
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⚘❆➮ हज़रत मुहम्मद इब्ने इस्हाक तारीख़ व सीरत के पहले इमाम हैं ताबेईन से हैं 85 हिजरी में मदीने में पैदा हुये, 150 हिजरी में बगदाद शरीफ में दफ़न हुये। सारे मुअर्रिख़ीन व सीरत निगारों के नज़दीक उन की तहकीक़ हर्फ आख़िर की तरह है, उन्हें भी बारह रबीउल अव्वल शरीफ़ ही को तारीख़े विलादत बताया है जैसा कि मवाहिबुल्लदुनिया की एबारत में अभी आप ने देखा और बाक़ाइदा *सीरते रसूल सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* पर लिखी गई पहली किताब सीरत इब्ने हिशाम में भी उनकी यह रिवायत देखी जा सकती है।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 18📚*
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❝ क्या 12 रबीउल अव्वल विलादत की तारीख़ नही!? ❞
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⚘❆➮ दर असल बारह रबीउल अव्वल के अलावा और तारीख़ों को *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* का दिन बता कर उन रिवायतों को भी आवाम के सामने बयान करने वाले ज़्यादा तर वही लोग हैं, जिन्हे बारह रबीउल अव्वल की खुशियाँ अच्छी नहीं लगती, तारीखों में शक डालकर बारहवी के जश्ने विलादत को भुलाना चाहते है। हम कहते हैं चलिए तारीखें विलादत मे इख़्तिलाफ़ है बारह रबीउल अव्वल के अलावा और तारीखों का ज़िक्र भी किताबों में आया है, लेकिन जश्ने विलादत मनाने के लिए सारी उम्मत ने बारह रबीउलअव्वल को मुतअय्यन कर लिया तो इसमें ख़ाराबी किया है, *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की दिलादत व तशरीफ़ आवरी पर ख़ुश होगा और ख़ुशी मनाना और ज़िक्र ख़ुदा व रसूल की महफ़िलें मज्लिसें हर दिन मुन्अक़िद करना जाइज़ है, तो बारह रबीउल अव्वल को भी जाइज़ है, और सारी उम्मत का जश्ने विलादते मुस्तफा के लिए बारह, रबीउल अव्वल पर। मुत्तफिक़ हो जाना में समझता । अल्लाह की तरफ से है!
*हदीस पाक में है*
*وما رأه المسلمون حسنا هو عندالله حسن*
जिस चीज़ को अहले इस्लाम अच्छा जाने वह अल्लाह के नज़दीक भी अच्छी है।
*وما رأه المسلمون حسنا هو عندالله حسن*
जिस चीज़ को अहले इस्लाम अच्छा जाने वह अल्लाह के नज़दीक भी अच्छी है।
*📕मुसनद इमाम अहमद इब्ने हदीरस 3418📕*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 19📚*
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❝ क्या 12 रबीउल अव्वल विलादत की तारीख़ नही!? ❞
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⚘❆➮ और हम कहते हैं कि ठीक है *हुज़रे पाक सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम* की पैदाइश की तारीखों में इख्तिलाफ बारह रवीउल अवल के अलावा और तारीख़ों के ज़िक्र की भी रिवायतें है तो हम जशने विलादत के लिए 12 रबीउल अव्वल को इख़्तियार कर लिया और उन तारीखों को हम ने आप के लिए छोड़ दिया है, इन तारीख़ो मे आप *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की विलादत का जशन मनायें और मीलाद शरीफ़ पढ़े, हम आप को मना नहीं करेगे, आप मनायें भी तो!
⚘❆➮ हकीक़त यह है कि यह तारीख़ो का इख्तिलाफ़ बयान कर के शक मे डालना एक चाल है और बहाने बाज़ी है जो मुन्किर है वह कभी भी किसी भी तारीख़ मे नहीं करेंगे फिर वह तारीख़ी इख़्तिलाफ़ का ज़िक्र ही क्यूँ करते है!
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा ,20📚*
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❝ तारीख़े विलादत और तारीख़े विसाल!? ❞
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⚘❆➮ कुछ लोग कहते है कि बारह रबीउल अव्वल की बारह तारीख़ को अगर *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की विलादत हुई है तो आप की तारीख़े विसाल भी यही है, यानी उस तारीख़ में आप दुनिया से तशरीफ ले गये, तो अगर पैदाइश की ख़ुशी मनाते हो तो दिसाल का ग़म भी मनाओ या कुछ भी न मनाओ क्यों कि ख़ुशी में जब ग़म हो जाये तो ख़ुशी ख़त्म हो जाती है ,तो यह भी एक धोका है और यह बातें करने वाले भी चाहते है कि किसी तरह *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की विलादत के जश्न को लोगों के ज़हिन से निकाला जाये और बारह रबीउल अव्वल को बिल्कुल भुला दिया जाये।
⚘❆➮ बात दर असल यह की इस्लाम मज़हब में अच्छी बातों कामों और अच्छे लोगों के दुनिया में आने पर ख़ुश होना तो आया है लेकिन मौत व मुसीबत, दुख दर्द, आफात व हादसात पर गम मनाने के बजाये सब्र व की हुक्म है मुसीबतों पर सब्र करने की तलक़ीन के मुतअल्लिक़ अगर आयात व अहादीस को जमा किया जाये तो बा क़ाइदा एक किताब तैयार हो सकती है,
*कुरआने करीम में है-::-وبشر الصابرين*
*सब्र करने वालों को खुश खबरी दे दो, बेशक अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है।*
*सब्र करने वालों को खुश खबरी दे दो, बेशक अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है।*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 21 📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 25
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❝ तारीख़े विलादत और तारीख़े विसाल!? ❞
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⚘❆➮ हदीस पाक में है *हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम* की साहबज़ादी हज़रत ज़ैनब के दो बेटे जां कनी के आलम में थे उन्होंने *हुज़ूरे अकरम सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* को बुलाया तो *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* ने यह कहला भेजा कि मेरा सलाम कहना और उन से कह दो,
⚘❆➮ बेशक अल्लाह का है जो उसने ले लिया और उसी का है जो उसने दिया, और सब के लिए उसके यहाँ एक वक़्त मुक़र्रर है तो चाहिये कि वह सब्र करें, और सवाब की उम्मीद रखें।
⚘❆➮ एक हदीस में है कि एक बार *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* एक औरत के पास से गुज़रे जो एक क़ब्र के पास रो रही थी तो फरमाया!
⚘❆➮ *अल्लाह से डरो और सब्र करो!*
यह दोनों हदीस मिश्कात बाबुलबुका-ए-अलल मय्यत स.150 पर है!
यह दोनों हदीस मिश्कात बाबुलबुका-ए-अलल मय्यत स.150 पर है!
⚘❆➮ खुलासा यह कि इस्लाम में मौत के बाद जहाँ तक मुमकिन हो गम न कर के सब्र का हुक्म है और विलादत व पैदाइश पर ख़ुशी की इजाज़त है!
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 22📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 26
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❝ तारीख़े विलादत और तारीख़े विसाल!? ❞
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⚘❆➮ *देखिये कुरआने करीम का पारा 26 सूरत जारियात आयत---28*_
और इन फ़िरिश्तों ने *इब्राहीम अलैहिस्सलाम* को एक जी इल्म बच्चे की ख़ुश खबरी दी।
⚘❆➮ किस्सा यह है कि फिरिश्ते *हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम* के पास आये थे और उन्होंने ने *हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम* को उनके यहाँ होनहार बच्चे के पैदा होने की ख़ुश खबरी दी थी, यह *हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलात वस्सलाम* की पैदाइश का वाक़िआ है। कुरआने करीम ने इस को फ़रमाया। यानी बशारत दी "बशारत" ऐसी ख़बर देने को कहते हैं जिस को सुन कर या जान कर ख़ुशी हो तो *हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलात वस्सलाम* की विलादत को कुरआन में बशारत ख़ुश खबरी कहा गया, वैसे भी आम तौर से किसी के यहाँ बच्चा पैदा होता है या होने को हो तो उर्दू मुहाविरा में कहते हैं कि उसके यहाँ खुशी हुई है या खुशी होने को है।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 22📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 27
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❝ तारीख़े विलादत और तारीख़े विसाल!? ❞
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⚘❆➮ गोया कि बच्चे की विलादत इंसानी मुआशिरे की फ़ितरी ख़ुशी है और जब कुरआन की ज़बान में *हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम* की विलादत को फ़िरिश्तों ने ऐसी खबर बताया कि जिस पर उन्हें ख़ुश होना चाहिए तो फिर हबीबे ख़ुदा की तशरीफ़ आवरी पर ख़ुश होने या ख़ुशी मनाने वालों को शरअन मुजिरम कैसे करार दिया जा सकता है।
⚘❆➮ यह तो विलादत पर ख़ुश होने और ख़ुशी मनाने की बात थी अब किसी के दुनिया से जाने और मौत वाकेअ होने पर ग़म मनाने का हुक्म कुरआन में कहाँ आया है ? हमें बताया जाये, हाँ सब्र करने की आयात व अहादीस इस क़द्र हैं कि शुमार करना मुश्किल है, हाँ इंसानी फितरत का लिहाज़ रखते हुये आम मौतों के लिए तीन दिन और बीवी को शौहर की मौत पर चार महीने दस दिन ग़म और सोग मनाने की इजाज़त दी गई, इस के बाद कसदन ग़म मनाना या ग़म वाले काम करना मम्नूअ व नाजाइज़ है, हाँ अज़ ख़ुद किसी बात को याद कर के ग़म हो जाये तो जाइज़ है, जैसे आँसू निकल जाना, या चेहरा उदास हो जाना, लेकिन जान बूझ कर ऐसा करना मना है।
⚘❆➮ हदीस पाक में है हज़रत जाफ़र तैयार
रदियल्लाहु तआला अन्हु की शहादत की ख़बर जब मदीने शरीफ़ में आई और उन के घर में सदमे और ग़म का माहोल बना तो तीन दिन तक हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम कुछ न बोले फिर ख़ुद उनके यहाँ तशरीफ़ लाये और फरमाया!
रदियल्लाहु तआला अन्हु की शहादत की ख़बर जब मदीने शरीफ़ में आई और उन के घर में सदमे और ग़म का माहोल बना तो तीन दिन तक हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम कुछ न बोले फिर ख़ुद उनके यहाँ तशरीफ़ लाये और फरमाया!
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 23📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 28
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❝ तारीख़े विलादत और तारीख़े विसाल!? ❞
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⚘❆➮ और *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* का विसाल तो बारगाहे ख़ुदावन्दी में एक मख़सूस हाज़िरी है वह आम मौतों की तरह नहीं है, आप का आना भी रहमत है और तशरीफ़ ले जाना भी, क्यों कि आप सरापा रहमत हैं आप की हर अदा रहमत है। और आप दुनिया से जो तशरीफ़ ले गये। यह आप की ख़ुशी इख़्तियार और पसन्द से था, यानी आप ने बारगाहे इलाही में हाज़री को अपनी ख़ुशी से ख़ुद पसन्द फ़रमाया।,
*📕सहीह बुख़ारी की हदीस में है!*
*हज़रत अबूसईद खुदरी फ़रमाते हैं कि एक बार हुज़ूर ने खुतबा देते हुये इरशाद फरमाया!*
⚘❆➮ बेशक अल्लाह पाक ने एक बन्दे को इख़्तियार दिया कि चाहे वह दुनिया में रहे चाहे अल्लाह के यहाँ जाये तो इस बन्दे ने अल्लाह के यहाँ जाना पसन्द कर लिया है, यह सुन कर अबुबक्र रो पड़े तो मैंने अपने दिल में सोंचा यह बुजुर्ग क्यों रो रहे हैं अगर अल्लाह ने किसी बन्दे को यह इख़्तियार दे दिया है कि चाहे दुनिया में रहे चाहे अल्लाह के यहाँ जाये, तो इस बन्दे ने ख़ुदा के यहाँ जाना पसन्द कर लिया, और यह बन्दे ख़ुद हुज़ूर ही थे, और अबूबक्र हम में सब से ज़्यादा इल्म वाले थे!
*📕सही बुखारी जि.1 किताबुस्सलात बाबुल ख़ौख़ते वलमगर फिलमस्जिद स.66*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 24📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 29
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❝ तारीख़े विलादत और तारीख़े विसाल!? ❞
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⚘❆➮ मतलब यह है *हज़रत अबूबक्र रदिअल्लाहु तआला अन्हु* यह समझ गये कि जिस बन्दे को *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* फरमा रहे हैं वह ख़ुद आप ही है, और *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* के विसाल का वक़्त क़रीब आ चुका है लिहाज़ा आप की जुदाई की वजह से रोने लगे थे!
⚘❆➮ बुखारी की इस हदीस से खूब वाजेह है कि *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* का दुनिया को छोड़ना अपने इख़्तियार और पसंद से था, आप चाहते सब दिन दुनिया में रहते, लेकिन अल्लाह की मुहब्बत और उस से कुर्ब और उसके दीदार के शौक में आप ने दुनिया में रहना पसंद न किया, क्यों कि दुनियावी मशागिल व मसाइल इस राह में कुछ न कुछ सब के लिए हाइल होते है, और इन बातों को वही जानते हैं जिन्हें अल्लाह तआला बताये।
⚘❆➮ जो लोग हम से यह कहते हैं कि बारह रबीउल तारीख़े विसाल भी है तो तुम ग़म क्यों नहीं मनाते है, मैं उनसे कहूँगा कि विलादत की ख़ुशी हम मनाते है विसाल का ग़म आप मना लिया करें, बशर्त कि आप उसे जाइज़ साबित कर दे जैसे खुशी मनाने को हमने साबित किया है।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 25📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 30
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❝ बारहवी शरीफ़ सहाबा ने क्यूँ न मनाई!? ❞
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⚘❆➮ इस में तो कोई शक नहीं कि सहाबा-ए-किराम *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की तशरीफ़ आवरी और आप की पैदाइश का ज़िक्र फ़रमाते थे, जब ग़ैर मुस्लिमों में जाते और उन्हें इस्लाम की दअवत देते तो फ़रमाते थे *अल्लाह तआला* ने हम में अपना एक रसूल भेजा यानी वह हुज़ूर की तशरीफ़ आवरी का ज़िक्र किसी न किसी तरह ज़रूर:
फरमाते थे।
⚘❆➮ और हुज़ूर के ज़िक्र की महफ़िल तो आप के मुबारक ज़माने में आप ही के सामने मस्जिदे नबवी शरीफ़ में मुन्अक़िद होती थी, सही बुख़ारी और मुस्लिम की हदीस में है *हज़रत आइशा सिद्दीका रदियल्लाहु तआला अन्हा* फ़रमाती हैं! *रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम* मस्जिदे नबवी में हज़रत हस्सान इब्ने साबित के लिए एक मिम्बर रखवाते वह उस पर खड़े हो कर *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की तारीफ़ में नअत शरीफ़ पढ़ते और *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* के दुश्मनों की ऐब जोइयों का जवाब देते *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* खुद सुनते और फरमाते जब उन्होंने हमारी शान बयान की और हमारे दुश्मनों को जवाब दिया। तो *अल्लाह तआला* हजरत रूहुलकुद्स के ज़रीआ उन की ताईद फरमाता है!
*📕मिश्कात बाबुल बयान वश्शिअर,स.410*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 26📚*
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❝ बारहवी शरीफ़ सहाबा ने क्यूँ न मनाई!? ❞
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⚘❆➮ इस हदीस का मफ़हूम सही बुखारी ज़िल्द 1,किताबुस्सलात बाबुश्शेर फ़िल मस्जिद,स.64पर भी है बल्कि ज़िक्र *मुस्तफा सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की इस मज़्लिस का सिलसिला हुज़ूर के विसाल के बाद भी जारी रहा!
⚘❆➮ *हज़रत उमर फारूक़ रदिअल्लाहु तआला अन्हु* का मस्जिद नबवी शरीफ़ मे गुज़र हुआ तो देखा कि *हज़रत हस्सान इब्ने साबित रदिअल्लाहु तआला अन्हु* हुज़ूर की शान मे अश्आर पढ़ रहे है, उन्होने समझा की शायद हज़रत उमर मना करें या नाराज़ हो, फौरन अर्ज़ किया ऐ हज़रत उमर मे यह अशआर उनके ज़माने मे भी पढ़ता था, जो तुम से बहतर है *(यानी रसूलअल्लाह सल्लललाहु अलैहे वसल्लम)* फ़िर हज़रत हस्सान ने हज़रत अबूहुरैरा की तरफ़ देखा और कहाँ ऐ अबूहुरैरा मे तुम को अल्लाह का वास्ता देकर पूंछता हूँ आप बताइये क्या आप ने सुना है, जब मे हुज़ूर की शान मे अश्आर पढ़ता तो *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* फरमाते ऐ अल्लाह रूहुलक़ुदस के ज़रीये उनकी मदद फरमा, जैसा कि उन्होंने मेरे दुश्मनों को जवाब दिया! *हज़रत अबूहुरैरा रदिअल्लाहु तआला अन्हु* ने फरमाया हाँ यह सही है!
*📕सही बुख़ारी ज़िल्द 1 बाब ज़िकरूलमलाइका स.456*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 27📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 32
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❝ बारहवी शरीफ़ सहाबा ने क्यूँ न मनाई!? ❞
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⚘❆➮ और सही मुस्लिम बाब फज़ाइल हस्सान बिन साबित ज़ि.,2 स.300 पर जहाँ यह हदीस है उस के आगे हज़रत हस्सान के यह अश्आर भी है जिनकी तादाद 13 है, उन मे का एक शेअर यह भी है!
*ए हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम के दुश्मनों मेरे माँ बाप उर मेरा सब कुछ तुम से मुहम्मद सल्लललाहु अलैहे वसल्लम की हिफाज़त के लिए कुर्बान है!*
⚘❆➮ तो इस में कोई शक नहीं कि ज़िक्रे पाक मुस्तफा की महफीलें मुन्अक़िद करना जमाना-ए-पाक रिसालत माआब और सहाबा-ए-किराम में राइज़ था लेकिन बाक़ाइदा तौर पर एहतिमाम के साथ किसी तारीख़ को मुतअय्यन कर के रिवाज़ के तौर पर खुशियाँ मनाना महफिलें मन्अक़िद करना रौशनी करना जुलूस निकालना उस दौर में राइज़ न था लेकिन हम इस सब को सहाबा की सुन्नत कब कहते हैं! न उन की सुन्नत समझ कर करते हैं बस एक कारेखैर अच्छा काम मुस्तहब समझ कर करते हैं, किसी काम को फर्ज़ व वाजिब या सुन्नत कहने पर सुबूत व दलील की ज़रूरत होती है, लेकिन सिर्फ़ कारे ख़ैर काम या मुस्तहब और नफ़िल होने के लिए सुबूत व दलील की ज़रूरत नहीं होती उस का सुबूत यही है कि उसमें कोई ख़राबी नहीं कोई खिलाफे शरअ ग़लत बात नहीं जो कुछ है सब अच्छा ही अच्छा है अच्छी बात है। अच्छों का ज़िक्र है।
इस बयान को कुछ तफ़सील के साथ हम वाक़ाइदा एक मुस्तक़िल उनवान के तहत लिखना चाहते हैं।
इस बयान को कुछ तफ़सील के साथ हम वाक़ाइदा एक मुस्तक़िल उनवान के तहत लिखना चाहते हैं।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 27,28📚*
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❝ बारहवी शरीफ़ सहाबा ने क्यूँ न मनाई!? ❞
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⚘❆➮ *दर असल इस्लामी अहकान चन्द तरह के हैं!*
(1)फ़र्ज़ : वह काम है जिस को करना इस्लाम में बहुत ज़्यादा ज़रूरी हो और उस का ज़रूरी होना कुरआन व हदीस से साफ़ तौर पर साबित हो, और उस को एक बार भी क़स़दन छोड़ने वाला बहुत बड़ा गुनेगार हराम कार जहन्नम का हक़दार कहलाये!
(2) वाजिब जो फ़र्ज़ की तरह ज़रूरी तो न हो और उसके कुरआन व हदीस से ज़रूरी साबित होने में कुछ शुबह हो यानी बिल्कुल वाजेह और साफ़ न हो इसका मर्तबा फ़र्ज़ से कुछ कम है, लेकिन क़सदन छोड़ने वाला इसका भी गुनहगार है!
(3) सुन्नत- वह काम है जो फर्ज़ व वाजिब की तरह शरअन ज़रूरी न हों लेकिन फिर भी *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* ने उसको किय् हो, अगर हमाशा किया हो लेकिन कभी कभार सिर्फ़ इस लिए छोड़ दिया हो कि लोग फर्ज़ व वाजिब की तरह ज़रूरी न समझने लगे, उसको सुन्नते मुअक्किदा कहते है और वह काम जिस को हुज़ूर ने हमाशा न किया हुआ हो बल्कि कभी किया हो और कभी छोड़ा हो उसको सुन्नते ग़ैर मुअक्किदा कहतें है, सुन्नते ग़ैर मुअक्किदा को छोड़ने की आदत डालने वाला गुनहगार है, कभी छूट जाये तो गुनाह नहीं और सुन्नते ग़ैर मुअक्किदा को भी आदत के तौर पर छोड़ना शरअन मुनासिब और अच्छा नही, उर एक बड़े सवाब से महरूमी है!
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 29📚*
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❝ बारहवी शरीफ़ सहाबा ने क्यूँ न मनाई!? ❞
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⚘❆➮ किसी काम के फर्ज़ व वाजिब या सुन्नत हीने के लिए इस का हुज़ूर या आपके सहाबा से साबित होना ज़रूरी है, इस सब के बाद दर्जा है मुस्तहब काइस को कारे ख़ैर और अच्छा काम भी कह सकते है! इस के लिए ज़रूरी नहीं कि वह हुज़ूर या आप के सहाबा ने किया हो.फराइज़ व वाजिबात और सुन्नतों की शुमार और गिनती है लेकिन सिर्फ़ अच्छे कामों की कोई हद व शुमार और गिनती नहीं होती, वह कितने भी हो सकते हैं, इन का कोई दाइरा नहीं खींचा जा सकता, किसी भी काम के सिर्फ़ अच्छा और मुस्तहब होने के लिए सिर्फ़ इतना काफ़ी है कि उस में कोई बुराई न हो किसी इस्लामी कानून की ख़िलाफ़ वरज़ी न हो किसी के लिए बाइसे तकलीफ़ न हो, हाँ इस को कोई न भी करे तो वह किसी अज़ाब व इताब का मुस्तहक़ नहीं, जैसे कि फर्ज़,वाजिब और सुन्नतों को छोड़ने वाले उन सज़ाओं के मुस्तहक हैं, हाँ उन से रोकने और मना करने वाला यक़ीनन क़ाबिले सज़ा है, और वह कोई बुरा आदमी होगा, जो अच्छे कामों पर फतवे लगा रहा है, और उन से रोक रहा है,बारहवीं शरीफ़ और उस से मुतअल्लिक़ जो कारे ख़ैर हैं जैसे जलसे जुलूस,रौश्नियाँ करना मिठाइयाँ बांटना, सलात व सलाम पढ़ना यह भी सिर्फ़ कारे ख़ैर और मुस्तहब काम हैं, फर्ज़ व वाजिब यानी शरअन लाज़िम व ज़रूरी नहीं और जिस अन्दाज़ से जिस शक़्ल व सूरत में आज किए जाते हैं यह हुज़ूर या आप के सहाबा की। सुन्नत भी नहीं लेकिन कारे ख़ैर जाइज़ व मुस्तहब और अच्छे सवाब के काम होने में शुबह भी नहीं। जैसे सहाबा के ज़माने में कुरआन करीम में ऐराब ज़बर ज़ेर, और पेश वगैरा न थे 30 पारों में तकसीम न थी,रूकूअ और आयतो के नम्बर न थे यह सब काम उनके बाद हुये और होते ही चले आये!
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 30📚*
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❝ बारहवी शरीफ़ सहाबा ने क्यूँ न मनाई!? ❞
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⚘❆➮ मदरसों में जो उलूम पढाये जाते हैं यह भी न थे, जैसे इल्मे नहव, इल्मे सर्फ इल्मे लुगत, इल्मे कलाम इल्मे मआनी व बयान, इल्मे उरुज़ व क़वाफी, इल्मे मन्तिक व फलसफा,बल्कि जैसे आज मदरसे चलाये जा रहे हैं इस अन्दाज़ के मदरसे भी सहाबा के ज़माने में न थे, और यही मुआमला है, न्याज़ो फातिहाओ का तीजे दस्वें बीस्वें चालीसवा छ: माही बरसी और उरसों वगैरा का। नाम पाक पर अंगूठे चूमने कब्र पर अज़ान पढ़ने अज़ान के बाद तस्वीब यानी सलात पुकारने या नमाज़ के बाद हाथ बांध कर खड़े हो कर अस्सलातु वस्सलामु अलैका या रसूलल्लाह आहिस्ता आहिस्ता पढ़ने का। यह काम जिस अन्दाज़ में आज किए जाते हैं इस तरह सहाबा, से आम तौर पर रिवाजन साबित नहीं, लेकिन उन कामों में कोई बुराई नहीं लिहाज़ा उन्हें बुरे काम भी नहीं कहा जा सकता, बल्कि अच्छाइयाँ हैं लिहाज़ा अच्छा काम ही कहा जायेगा, इन सब कामों में कुरआन की तिलावत है अल्लाह और उस के रसूल और महबूब बन्दों का ज़िक्र और उनकी तअरीफें हैं या अहबाब दोस्तों रिशते दारों या ग़रीबों मिस्कीनों को खिलाना और पिलाना है, हाँ अगर कोई उन कामों को न भी करे तो उस पर शरअन जुर्म आइद नहीं होता, और वह गुनहगार नहीं क्योंकि मुस्तहब का माना ही यह है कि न करने वाला गुनहेगार न हो,और करने वाला सवाब पाये।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 31📚*
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❝ बारहवी शरीफ़ सहाबा ने क्यूँ न मनाई!? ❞
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⚘❆➮ इस सिलसिले में हमारे कुछ भाई ज़्यादती कर बैठते हैं। अगर कोई शख़्स जुलूस में शरीक न हो, या न्याज़ फातिहा न करे या उर्स वगैरा में न जाये उसे खट से वहाबी, इस्लाम से ख़ारिज कह देते हैं यह सही नहीं। यह तो गुस्ताखों बे अदबों की एक जमाअत का नाम है और जो उनकी बे अदबियों गुस्ताख़ियों को जानते समझते हुये उन में शामिल और इस जमाअत से जुड़ा हुआ है वह भी उन्ही में से है।
⚘❆➮ *आला हज़रत अलैहिर्ररहमा* ने एक जगह अपनी किताब फ़तावा रज़विया में वहाबियों में जो लोग अल्लाह रब्बुल इज्ज़त, शान रिसालत और सहाबा-ए-किराम की बारगाहों के खुले गुस्ताख़ और बे अदब थे उन पर कुफ्र का फतवा लगा कर बाद में लिखा
⚘❆➮ "हाँ जो बद मज़हब, दीने इस्लाम की ज़रूरी बातों में से किसी बात में शक न करता हो सिर्फ़ उन से नीचे दर्ज़े के अक़ीदों में मुखालिफ़ हो जैसे राफ्ज़ियों में तफसीली या वहावियों में इस्हाकी वगैराहुम वह अगर्चे गुमराह है मगर काफिर नहीं इन के हाथ का जबीहा हलाल है।
*📕फ़तावा रज़विया ज़ि. 20 स. 248*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 32📚*
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⚘❆➮ वहाबियों में यह इस्हाक़ी गिरोह जिस को *आला हज़रत अलैहिर्ररहमा* ने काफिर न कह कर सिर्फ़ गुमराह फरमाया और उन के जुबह किए हुये जानवर के गोश्त को खाना हराम न कहा यह वह लोग थे जो मौलवी इस्हाक़ देहलवी और उन की किताब मिआतु मसाइल को मानने वाले थे इस किताब में न्याज़ व फातिहा और मीलाद वगैरा रुसूमे अहले सुन्नत की मुखालिफत तो है लेकिन बारगाह ख़ुदा व रसूल में खुली गुस्ताखी और बेअदबी नहीं।
⚘❆➮ न्याज़ व फातिहा उर्स व जुलूस में शरीक़ न होने वाला सुन्नी भी हो सकता है, जब कि वह बदमज़हबों की किसी तन्ज़ीम से वाबस्ता न हो। हो सकता है कि उस के दिमाग में यह बात न आई हो। कि जो काम *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* और सहाबा के ज़माने में न था वह अब क्यों? और हक़ीक़त से नावाक्फियत की वजह से इन्कार भी करे तो उसे जाहिल नादान ना समझ गुमराह तो कहा जाये लेकिन इस्लाम से ख़ारिज या काफिर नहीं इस में एहतियात की ज़रूरत है, किसी भी मुसलमान को बहुत सोच समझ कर ऐसे अल्फ़ाज़ बोलना चाहिए ज़ल्दबाजी में खुद अपने लिए खतरा है!
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 33📚*
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⚘❆➮ इस में तो कोई शक नहीं कि न्याज़ व फातिहा मीलाद व उर्स वगैरा का इन्कार करना बदमज़हबों का काम है. लेकिन इस में भी कोई शक नहीं कि उन कामों को न करने वाले या इन्कार करने वाले सब बदमज़हब नहीं हैं बदमज़हब वही हैं जो उन की तन्ज़ीमों और तहरीकों से जुड़े हुये हैं, हाँ उन्हें इन कामों के फज़ाइल से आगाह करते रहें कि वह अगर्चे न करे, लेकिन उन उमूरे ख़ैर को बुरा कहने से बाज़ रहें. किसी काम के जाइज़ और नाजाइज़ होने इखिलाफात तो उम्मत में पहले ही से चले आये हैं, चाहिए कि नयाज़ व फातिहा उर्स व मीलाद न करने वालों को भी सुन्नी ही समझें जब तक कि वह किसी दूसरे फिर्के की तहरीक़ में शामिल और उन के गिरोह के फर्द न बन जायें और अल्लाह व रसूल की शान में गुस्ताखी न करने लगे!
⚘❆➮ *आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खाँ बरेलवी रहमतुल्लाह अलैह* से एक बार पूछा गया कि अज़ान के बाद नमाज़ से पहले जो तस्वीब यानी सलात वगैरा पुकारी जाती है इसका क्या हुक़्म है और कोई न पुकारे तो उस को गुनहगार समझना वहाबी नज़्दी ख़्याल करना इस के वगैर नमाज़ में कमी समझना कैसा है। तो उन्होंने जवाब में जो फरमाया उस का मफहूम यह है, तस्वीब जो अज़ान के बाद पढ़ी जाती है वह मुस्तहब व मुस्तहसन है कोई न पड़े तो उस को गुनहगार जान्ना या न पढ़ने की वजह से नमाज़ में कोई कमी समझना न पढ़ने वाले इमाम को तक़लीद से ख़ारिज जानना उसे वहाबी नज़्दी कहना यह सब खियालात बातिल और गुमराही हैं और ऐसा एअतिक़ाद रखने वालों पर तौबा फर्ज़ है!
*📕फ़तावा रज़विया जि.5 स.388📕*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 34📚*
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❝ बारहवी शरीफ़ सहाबा ने क्यूँ न मनाई!? ❞
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⚘❆➮ हज़रत मौलाना मुफ़्ती अहमद यार खाँ नईमी अलैहिर्रहमा फरमाते हैं!*और वहाबी जिन्होंने गुस्ताख़ी न की हो अग़र्चे आखिर कार मग्फिरत पाकर मन्ज़िले जन्नत तक पहुँच जायेंगे लेकिन बहुत दुश्वारियों और मुसीबतों के बाद।
*📕अशरफुत्तफासीर सफहा 86जेरे, आयत इहदिनस्सिरातल मुस्तकीम📕*
⚘❆➮ एक और जगह लिखते हैं, जिन की बद अक़ीदगी हदे कुफ़्र को न पहुँची हो जैसे नयाज़ व फातिहा के मुन्किर देवबन्दी!
*📕अशरफुत्तफासीर, ज़ि1स.96📕*
⚘❆➮ इस का मतलब यह है कि काफिर ग़ैर मुस्लिम इस्लाम से ख़ारिज कहने में एहतियात की जरूरत है। ज़ल्द बाज़ी नहीं करना चाहिए अलबत्ता गुमराह बद्दीन बद मज़हब,बद अक़ीदा कहना यह और बात है!
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 35📚*
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❝बारहवी शरीफ़ सहाबा ने क्यूँ न मनाई!? ❞
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⚘❆➮ काफिर तो वही लोग हैं जो बारगाहे ख़ुदा और रसूल में खुले गुस्ताख़ हैं उन के अलावा और लोगों को हमें अपना ने और समझाने की कोशिश करते रहना चाहिए। लेकिन हमारे कुछ लोग बहुत ज़ल्द कुफ़्र के फतवे लगा देते हैं और जो ग़ैर नहीं थे उन्हें ग़ैर बना देते हैं और फिर वह ग़ैर ही हो जाते हैं।
⚘❆➮ दुनिया की हर कौम अपनी जमाअत को बढ़ाने. में लगी है और हम में कुछ लोग मामूली इख्तिलाफात और छोटी छोटी बातों पर अपनों को ग़ैर बना देते. है.कि जिसको हम सुन्नी कहेंगे वही सुन्नी है ऐसा कोई मामला हो तो ख़ुद फतवा देने के बजाये जिम्मेदार सुन्नी उलेमा की तरफ़ रूज़ू करना चाहिए।
⚘❆➮ इस बयान का ख़ुलासा यह है कि बारहवीं शरीफ़ मनाने और उससे मुताअल्लिक़ जो जाइज़ काम रिवाज पा गये हैं हम उन्हें सिर्फ़ जाइज़ मुस्तहब और कारे ख़ैर और अच्छे काम ही कहते हैं फर्ज़ व वाजिब या सुन्नत नहीं कहते कि हम से उन का सुबूत मांगा जाय और यह कहा जाये कि जब सहाबा ने और *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* ने जो काम नहीं किया वह तुम क्यों करते हो!
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 35,36📚*
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❝ बारहवी शरीफ़ सहाबा ने क्यूँ न मनाई!? ❞
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⚘❆➮ एक मर्तबा *हुज़ूर मुफ्ती-ए-आज़म मौलाना मुस्तफा रज़ा खाँ बरेलवी अलैहिर्रहमा* से सवाल किया गया कि अज़ान के बाद सलात पुकारना और दफन के बाद कब्र पर अज़ान पढ़ना कुरआन व हदीस से उस का किया सुबूत है, तो हज़रत ने इस के जवाब में बहुत सारी बातें। लिखने के बाद एक जगह फरमाया!
⚘❆➮ "हाँ अगर कोई जवाज़ के साथ ऐसे अम्र की सुन्नियत का भी मुददई हो तो अलबत्ता उस से यह सवाल होगा कि बताओ कि हुज़ूर या सहाबा से यह कहा साबित हुआ है।
इस एवारत का मतलब यह है कि जो शख़्स उन कामों को सिर्फ़ जाइज़ न कहे बल्कि सुन्नत होने का दअवा करे उस से यह पूँछा जाये कि हुज़ूर ने कब किया और सहाबा ने कब किया और हम सिर्फ़ जाइज़ कहते हैं सुन्नत नहीं तो हम से यह सुबूत मांगना ग़लत है।
इस एवारत का मतलब यह है कि जो शख़्स उन कामों को सिर्फ़ जाइज़ न कहे बल्कि सुन्नत होने का दअवा करे उस से यह पूँछा जाये कि हुज़ूर ने कब किया और सहाबा ने कब किया और हम सिर्फ़ जाइज़ कहते हैं सुन्नत नहीं तो हम से यह सुबूत मांगना ग़लत है।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 36📚*
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❝बारहवी शरीफ़ सहाबा ने क्यूँ न मनाई!? ❞
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⚘❆➮ *फिर हज़रत मुफ़्ती आज़म हिन्द अलैहिर्रहमा उसी बयान में थोड़ा आगे लिखते हैं!*
⚡️हम मुजव्वज़ीन,अज़ाने कब्र या इस तस्वीब को सुन्नत कब बताते हैं जिन से यह सवाल किया जाता कि तस्वीब मुकर्रर इत्तिलाअ करना और कब्र पर अज़ान देना *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* से या आप के सहाबा से साबित है या नहीं और सिर्फ़ जाइज़ होने के लिए हुज़ूर या सहाबा का करना ज़रूरी नहीं।
*📕फ़तावा मुस्तफविया, 165,166 मतबूआ रज़ा एकेडमी बम्बई📕*
⚘❆➮ हज़रत के इस बयान का मतलब भी यही है कि हम मुजव्वज़ीन हैं यानी कब्र पर अज़ान और नमाज़ से पहले सलात पुकारने को सिर्फ़ जाइज़ कहते हैं सुन्नत नहीं कहते तो हम से यह क्यों पूँछा जाता है कि हुज़ूर या आप के सहाबा से इन चीज़ों को साबित करो किसी काम के सिर्फ़ जाइज़ होने के लिए हुज़ूर या सहाबा से साबित होना ज़रूरी नहीं।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 37📚*
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⚘❆➮ आज कल कुछ हमारे सुन्नी भाई उस तस्वीब,सलात पुकारने को इतनी अहमियत देने लगे है कि अज़ान सुनकर उनके कान पर जूं नहीं रींगती बल्कि मस्जिद को जाने के लिए सलात का इन्तिज़ार करते हैं यह सब गलत हो रहा है अज़ान की अहमियत को घटाना बहुत सख़्त गलत बात है और कुछ लोग यह समझते हैं कि अगर सलात न पुकारी जाये तो शायद नमाज़ में कोई कमी रह जायेगी हांलाकि ऐसा नहीं। ऐसे ही हर नमाज़ के बाद मदीने शरीफ की तरफ मुंह कर के धीरे धीरे जो सलात पढ़ने का रिवाज़ है उसको भी लगता है जैसे कुछ लोग नमाज़ का हिस्सा समझने लगे हैं हालाकि वह नमाज़ का हिस्सा नहीं। मेरा तरीका है कि मैं उस को कभी पढ़ता हूँ ताकि कोई नाजाइज़ न समझने लगे और कोई नाजाइज़ कहे तो मैं उस से बहस व मुबाहिसा कर के जाइज़ साबित कर सकता हूँ। लेकिन कभी कभी नही
पढ़ता और छोड़ देता हूँ ताकि उस को लोग फर्ज,वाजिब या सुन्नत या नमाज़ का हिस्सा न समझने लगें।
*आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खाँ बरेलवी अलैहिर्रहमा* से शोहदा-ए-करबला की नज़र व नियाज़ और बुजुर्गाने दीन के उर्स के मुताअल्लिक़ पूँछा गया तो उन्होंने फरमाया!
यह उमूर अगर बतौर शरअ शरीफ़ हों तो सिर्फ़ मुस्तहबात हैं, और मुस्तहब पर जब्र नहीं हो सकता।
यह उमूर अगर बतौर शरअ शरीफ़ हों तो सिर्फ़ मुस्तहबात हैं, और मुस्तहब पर जब्र नहीं हो सकता।
*📕फ़तावा रज़विया,जदीद जि 26 स289📕*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा ,38📚*
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❝ बारहवी शरीफ़ सहाबा ने क्यूँ न मनाई!? ❞
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⚘❆➮ यानी यह सब काम सिर्फ़ मुस्तहब हैं फर्ज़ व वाजिब या सुन्नत नहीं हैं, कोई करे तो सवाब न करे तो गुनाह नहीं और करने के लिए किसी पर दबाव डालना भी सही नहीं। एक मर्तबा एक लड़के ने अपनी माँ के इन्तिकाल के बाद उसकी छोड़ी हुई जाइदाद या नक़्दी में से कफ़न, दफ़न और नयाज़ व फातिहा में दो हज़ार सात सौ रुपये ख़र्च कर डाले और दूसरे भाई बहन जो उसके वारिस होंगे उन से नहीं पूछा, और यह बात कम अज़ कम सौ साल पहले की होगी, उस जमाने में यह रकम बड़ी अहमियत की हामिल होगी, *आला हज़रत अलैहिर्रहमा* से सवाल किया गया तो उन्होंने दफ़न और कफ़न को सुन्नत करार दे कर उस में जो ख़र्चा किया उस को तो जाइज़ रखा कि उस ख़र्चे के लिए दरारे वरसा से पूछने की ज़रूरत नहीं, लेकिन फातिहा,तीजा और चालीसवा वगैरा में जो ख़र्चा किया उस के बारे में फरमाया कि वह उस लड़के को अपने पास से भरना पड़ेगा, क्योंकि यह काम सुन्नत नहीं, सन्नत से जाइद हैं सिर्फ़ मुस्तहब हैं। *आला हज़रत अलैहिर्रहमा* के अल्फाज़ यह हैं!
⚘❆➮ बक़द्रे सुन्नत गुस्ल व कफ़न व दफ़न में जिस क़द्र सर्फ़ होता है उसी क़द्र के हिस्सा रस्द ज़िम्मेदार हो सकते हैं, फातिहा व सदक़ात व सोम व चहल्लुम में जो सर्फ़ हुआ या क़ब्र को पुख्ता किया और मसारिफ क़द्र सुन्नत से ज़ाइद किए वह सब ज़िम्मा-ए-पिसर पड़ेंगे, बाकी वारिसों को इस से सरोकार नहीं।
*📕फतावा रज़विया जि.26 स:288📕*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 38,39📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 45
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❝ बारहवी शरीफ़ सहाबा ने क्यूँ न मनाई!? ❞
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⚘❆➮ एक बार आला हज़रत अलैहिर्रहमा से किसी ने पूँछा कि औलिया अल्लाह के कफ़न दफ़न और नयाज़ व फातिहा में कितना रूपया ख़र्च करना चाहिए, तो जवाब में लिखा!
तजहीज़ व तकफ़ीन में उसी क़द्र जो आम मुसलमानों के लिए सर्फ़ हो सकता है,फातिहा व उर्स के लिए शरअ से कोई मुतालबा नहीं
*📕फतावा रज़विया,जि,26स.288📕*
⚘❆➮ यानी फातिहा व उर्स शरअन फ़र्ज़ व वाजिब और लाज़िम व ज़रूरी नहीं, और अगर कोई बारहवी,:ग्यारहवी मनाने जुलूस व नयाज़ व फ़ातिहा उर्स वगैरा को फ़र्ज़ व वाजिब कहे तो यह ज़्यादती है और उसे ख़ुदा के ख़ौफ से लर्जना चाहिए,कि जो काम *जमान-ए-पाक रिसालत मआब सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* और सहाबा में मौजूद सुरतों में नहीं पाये जाते उन्हें इस्लाम का जुज़ (हिस्सा) बना देना और इस्लाम में दाखिल कर देना जुरअते बेजा है, और ख़ुदा से न डरने वालों का काम है। हमें नहीं चाहिए कि हम किसी फ़िर्क़े की ज़िद और चिढ़ में हद से आगे बढ़ जायें, हम मुसलमान हैं। हमारा मज़हब इस्लाम है। अगर किसी की ज़िद में हम इस्लामी हुदूद से आगे बढ़ रहे हैं तो यह गिरोह बन्दी है हक़ परस्ती और हक़ पसन्दी नहीं।
⚘❆➮ कुछ हज़रात कहते हैं कि इन कामों को फर्ज़ व वाजिब शरअन लाज़िम व ज़रूरी कहने में मस्लेहत और सुन्नियत का फायदा है तो मैं कहता हूँ कि क्या आप आला हज़रत अलैहिर्रहमा से भी ज़्यादा मस्लेहत शनास और सुन्नियत को फायदा पहुँचाने वाले हो गये हैं. जिन्होंने उन कामों को बार-बार सिर्फ़ मुस्तहब और क़द्रे सुन्नत से ज़ाइद लिखा। और सुन्नियत का फाइदा मुस्तहब समझ कर करने में है। फ़र्ज़ व वाजिब का दर्जा देने में नुक़्सान है।
⚘❆➮ यानी फातिहा व उर्स शरअन फ़र्ज़ व वाजिब और लाज़िम व ज़रूरी नहीं, और अगर कोई बारहवी,:ग्यारहवी मनाने जुलूस व नयाज़ व फ़ातिहा उर्स वगैरा को फ़र्ज़ व वाजिब कहे तो यह ज़्यादती है और उसे ख़ुदा के ख़ौफ से लर्जना चाहिए,कि जो काम *जमान-ए-पाक रिसालत मआब सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* और सहाबा में मौजूद सुरतों में नहीं पाये जाते उन्हें इस्लाम का जुज़ (हिस्सा) बना देना और इस्लाम में दाखिल कर देना जुरअते बेजा है, और ख़ुदा से न डरने वालों का काम है। हमें नहीं चाहिए कि हम किसी फ़िर्क़े की ज़िद और चिढ़ में हद से आगे बढ़ जायें, हम मुसलमान हैं। हमारा मज़हब इस्लाम है। अगर किसी की ज़िद में हम इस्लामी हुदूद से आगे बढ़ रहे हैं तो यह गिरोह बन्दी है हक़ परस्ती और हक़ पसन्दी नहीं।
⚘❆➮ कुछ हज़रात कहते हैं कि इन कामों को फर्ज़ व वाजिब शरअन लाज़िम व ज़रूरी कहने में मस्लेहत और सुन्नियत का फायदा है तो मैं कहता हूँ कि क्या आप आला हज़रत अलैहिर्रहमा से भी ज़्यादा मस्लेहत शनास और सुन्नियत को फायदा पहुँचाने वाले हो गये हैं. जिन्होंने उन कामों को बार-बार सिर्फ़ मुस्तहब और क़द्रे सुन्नत से ज़ाइद लिखा। और सुन्नियत का फाइदा मुस्तहब समझ कर करने में है। फ़र्ज़ व वाजिब का दर्जा देने में नुक़्सान है।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 39,40📚*
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❝ एक शानदार कुर्आनी तजज़िया!? ❞
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⚘❆➮ अल्लाह तआला और उसके *रसूल सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* ने जिन कामों का न हुक़्म दिया न ही उन से मना किया उनको बिलकुल नाजाइज़ व हराम न कहा जायेगा, अगर उन में कोई अच्छी बात शरई मस्लेहत मुसलमानों का फायदा और नफा है या इस्लामी शान का मुज़ाहिरा है। तो उन्हें अच्छे काम ही कहा जायेगा और उन में किसी शरीअत के हुक़्म की मुखालिफ़त है या वह काम बजाते ख़ुद ग़लत और बुरा है,उस में किसी मुसलमान का नुकसान या उस के लिए वह बाइसे परेशानी है तब ही उस से मना किया जायेगा उस सब की बेहतरीन मिसाल कुरआन करीम की यह आयत है!👇
⚘❆➮ और वह राहिब बनना तो यह बात उन्होंने दीन में अपनी तरफ़ से निकाली हम ने उन्हें इस का हुक्म नहीं दिया था हाँ यह नया काम उन्होंने *अल्लाह तआला* की रज़ा चाहने के लिए किया था फिर उस को निबाह न सके जैसे कि निबाह ने का हक़ था तो हम ने उन में के ईमान वालों को उस का सवाब दिया और उन में के बहुत से बदकार हैं।
*📕सूरतुलहदीद आयत 27📕*
⚘❆➮ राहिब बनने का मतलब यह है कि *हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम* की क़ौम के कुछ लोगों ने दुनिया बिलकुल छोड़दी थी जंगलों में रहते थे निकाह नहीं करते थे, मोटे कपड़े पहनते सिर्फ़ जीने के लाइक़ खाते पीते अपने नफ़स,हसरतों,अरमानों और ख़्वाहिशात को मारकर बहुत ज़्यादा *अल्लाह तआला* की एबादत करते थे। हालाकि अल्लाह ने इस सब का हुक़्म नहीं दिया था।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 40,41📚*
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❝ एक शानदार कुर्आनी तजज़िया!? ❞
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⚘❆➮ अल्लाह तआला के इस फरमान कुरआन की इस आयत से चन्द बातें वाज़ेह और साफ तौर पर मालूम हुई!
(1) कुछ काम ऐसे हो सकते हैं जिन का न अल्लाह ने हुक़्म दिया न ही उन से मना किया लेकिन फिर भी। उनको करना जाइज़ है।
(2) उन को करने का मक़सद ख़ुदा-ए-पाक की रज़ा हासिल करना भी हो सकता है यानी उन से भी अल्लाह राज़ी होता है।
(3) उन कामों के करने पर अल्लाह तआला अज्र व सवाब भी अता फरमाता है।
(4) उन कामों के करने वालों में कुछ लोग फासिक बदकार गुनहेगार भी हो सकते हैं और यह वही लोग होते हैं जो शरई पाबन्दियों की परवाह नहीं करते और हद से आगे बढ़ जाते हैं।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 42,📚*
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❝ एक शानदार कुर्आनी तजज़िया!? ❞
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⚘❆➮ इस आयत करीमा की रौशनी में गौर किया जाये तो आज भी हमारे सामने तीनों किस्म के लोग मौजूद हैं एक वह जो हर नये काम को चाहे वह कितना ही अच्छा हो एक दम बिदअत व नाजाइज़ व हराम कह देते हैं वह लोग गलती पर हैं उन्हें इस आयत से सबक हासिल करना चाहिए दूसरे वह जो नये अच्छे कामों को सिर्फ़ एक अच्छा काम कारे खैर और मुस्तहब समझ कर करते हैं और उसे फर्ज़ व वाजिब नहीं समझते अल्लाह से सवाब की उमीद रखते हुये करते हैं, जैसा कि आयत करीमा में उन पर अल्लाह के सवाब देने का ज़िक्र है, तीसरे वह लोग जो उन कामों के करने में शरीअते इस्लामिया के दाइरे से बाहर निकल गये और इस्लामी कानूनों को तोड़ डाला। उर्स व मीलाद, नियाज़ व फातिहा, जलसे और जलसों के मुआमले में भी जीनों तरह के लोग पाये जाते हैं कुछ सिरे से इन्कार करने वाले, कुछ मुस्तहब समझ कर करने वाले, कुछ हद से आगे बढ़ने वाले यानी फ़र्ज व वाजिब बना देने वाले या उन कामों को मैले ठेले, नाच तफरीह तमाशे और नोटंकी बना देने वाले।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा ,43📚*
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❝ बारह रवीउल अव्वल का जुलूस!? ❞
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⚘❆➮ *हुज़ूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम* की पैदाइश के दिन बारह रबीउल अव्वल को जुलूस निकालना दुरूद व सलाम पढ़ते हुये गलियों और सड़को पर घूमना यह भी अक़ीदत व मुहब्बत,खुशी व मसर्रत के इज़हार का एक तरीका है अगर्चे नया काम है और इसकी इब्तिदा साठ (60) सत्तर (70) साल के अन्दर ही अन्दर है।
⚘❆➮ आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खाँ बरेलवी रहमतुल्लाह अलैह* के दौर में भी यह न था, मैंने कुछ अहबाब से सुना है कि *सदरुलअफ़ाज़िल हज़रत मौलाना नईमुद्दीन साहब मुरादाबादी अलैहिर्रहमा* ने मुरादाबाद में इस को शुरू किया और हर बात का हक़ीक़ी इल्म तो *अल्लाह तआला* ही के पास है।
⚘❆➮बहर बहर सूरत वह एक नया काम ज़रूर है लेकिन *रसूले पाक सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम* से इज़हारे मुहब्बत का एक अन्दाज़ है अगर इस में कोई खिलाफे शरअ हरकत न की जाये तो इस को नाजाइज़ व हराम कहने की कोई वजह नहीं, हाँ फर्ज़ व वाजिब या सुन्नत भी नहीं कहा जा सकता, नाजाइज़ व हराम कहना भी ज़्यादती है और फ़र्ज व वाजिब या सुन्नत। और शरअन लाज़िम व ज़रूरी ख़्याल करना भी शरीअ हुदूद से बाहर क़दम रखना है। और मुसलमान यह सब फर्ज़ व वाजिब या सहाबा की सुन्नत समझ कर करते भी नहीं कारे ख़ैर समझ कर इज़हारे मुहब्बत के तौर पर करते हैं!
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 49,📚
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❝ बारह रवीउल अव्वल का जुलूस!? ❞
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⚘❆➮ मिसाल के तौर पर कोई शख़्स खाने का आम लंगर अपनी तरफ़ से जारी करे और एक एमारत इस के लिए मख़सूस कर दे कि लोग आयें खायें और ठहरें तो बाक़ाइदा तौर पर लंगर ख़ाने और मुसाफिर ख़ाने बनाने और चलाने का नामज़द हुक़्म साबित नहीं, न हुज़ूर या आप के सहाबा ने ऐसा किया, सिर्फ़ मेहमान नवाज़ी और मुसाफिरों की ख़ातिर दारी और ग़रीबों, मिस्कीनों को खिलाने की फज़ीलत और उस पर उभार ने का ज़िक्र मिलेगा, मेहमान नवाज़ी और गुरबा परवरी का सुबूत तो मिलेगा लेकिन बाक़ाइदा लंगर खाने और मुसाफिर खाने चलाने का न हुक़्म आया है, और न उस का कोई सुबूत लेकिन फिर भी इन कामों को अच्छा ही कहा जायेगा।
⚘❆➮ यूही समझना चाहिए कि *अल्लाह तआला* की हम्द व किबरियाई बयान करने उस के *नबी सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* पर दुरूद व सलाम पढ़ने और उन की शान नज़्म व नस्र में बयान करने का कुरआन व हदीस में ज़िक्र भी है और हुज़ूर और आप के सहाबा से साबित भी है, और जो अच्छी बातें हैं अच्छा ज़िक्र है अच्छा कलाम है वह बैठ कर करे तब भी जाइज़, खड़े हो कर चलते फिरते करे
या लेट कर करे जाइज़ ही रहेगा, अकेले करेगा तब भी जाइज़ होगा और चन्द लोगों को साथ में शामिल कर के करेगा तब भी जाइज़ होगा,जाइज़ काम तो जाइज़ ही रहेगा।
या लेट कर करे जाइज़ ही रहेगा, अकेले करेगा तब भी जाइज़ होगा और चन्द लोगों को साथ में शामिल कर के करेगा तब भी जाइज़ होगा,जाइज़ काम तो जाइज़ ही रहेगा।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 49,50📚
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❝ बारह रवीउल अव्वल का जुलूस!? ❞
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⚘❆➮ कोई गाने गाए गंदी बाते करे तो वह हर तरफ़ नाजाइज़, न बैठ कर जाइज़ और न खड़े होकर, न लेटकर न चलते फिरते न अकेले, न औरों को साथ ले कर। कोई अल्लाह व रसूल का ज़िक्र करे तो चलते। फिरते खाते पीते सोते जागते खड़े बैठे तन्हाई और मज्लिस में घर में या गली में सड़कों पर या बाजारों में हर तरह जाइज़ ही रहेगा,नाजाइज़ तो जब होगा जब उस में कोई नाजाइज़ वाली बात पाई जाये। ख़ुशी व मसर्रत के इज़हार के तौर पर बलन्द आवाज़ से ज़िक्र करना यानी नअरा लगाना भी जाइज़ है।
⚘❆➮ सही रिवायतों से साबित है कि *हज़रत सय्यदिना उमर फारूके आज़म रदिअल्लाहु तआला अन्हु* जब मुसलमान हुये तो वहाँ मौजूद मुसलमानों ने इतनी बलन्द आवाज़ से अल्लाहु अकबर कहा कि मक्के की गलियों में उस की आवाज़ सुनी गई।
*इमाम अहमद इब्ने मुहम्मद कुस्तुलानी खुद हज़रत उमर से मरवी रिवायत बयान फरमाते हैं!*
⚘❆➮ *⚡️हज़रत उमर रदिअल्लाहु तआला अन्हु* फ़रमाते हैं : मैंने कहाँ मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के अलावा कोई माबूद नहीं और आप अल्लाह के रसूल हैं, तो मुसलमानों ने इस ख़ुशी में इतनी ज़ोर से नअरा-ए-तकबीर बुलन्द किया कि उसकी आवाज़ मक्का की सड़कों पर सुनी गई
*📕मवाहिबुललदुनिया जि.1स 243- मतबूआत बरकात रज़ा पूर बन्दर📕*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 51,📚*
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❝ बारह रवीउल अव्वल का जुलूस!? ❞
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⚘❆➮ इस से ज़ाहिर हुआ कि ख़ुशी और मुसर्रत के वक़्त बलन्द आवाज़ से ज़िक्रे ख़ैर करना जाइज़ है और इसी को नअरा लगाना कहते हैं, और *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की विलादत के ज़िक्र से बढ़ कर एक मुसलमान के नज़दीक और कौन सी ख़ुशी की बात है।
⚘❆➮ लिहाज़ा जो लोग ख़्याल करते हैं कि नअरे लगाना इस्लाम में जाइज़ नहीं यह तो सिर्फ़ जंगों में जिहाद के मौके पर लगाये जाते थे उस के अलावा उस की इज़ाज़त नहीं तो उन की यह सोच सही नहीं । हाँ हमारे ख़्याल में नअरों की ज़्यादती भी मुनासिब नहीं कभी कभी बहुँत ज़्यादह ख़ुशी के इज़हार के लिए या मज़हबी जोश पैदा करने के लिए उस में कुछ हर्ज़ नहीं, बार बार और ज़्यादा नअरे लगाने से नअरों की अहमियत घटती है और सिवाये चन्द मख़सूस और मशरू सूरतों के आम हालात में आहिस्ता ज़िक्र ज़ोर से ज़िक्र करने से अफज़ल है, यानी उस में सवाब ज़्यादा है!
⚘❆➮ बहुत ज़्यादा ज़ोर से चीखना तो इस्लाम में मुतलकन मना है, यहाँ तक कि अज़ान पुकारने में भी। ख़ास कर मस्जिदों में बहुत ज़ोर ज़ोर से नअरे लगाना जैसा कि बाज़ जगह मज्लिसों में ऐसा करते हैं अदब के खिलाफ़ है। ख़ुलासा यह कि इस्लाम में ज़ोर से ज़िक्र तो कुछ शराइत के साथ जाइज़ है लेकिन चीखना और चिल्लाना कहीं और कभी जाइज़ नहीं है।
📕दुर्रे मुख़्तार, किताबुस्सलात बाबुलईदैन ज़ि,3 स.76📕*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 51,52📚*
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❝ झंण्डों का बयान!? ❞
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⚘❆➮ बारहवी शरीफ़ के जुलूस में कुछ लोग अपने हाथों में झंन्डे ले कर चलते हैं तो यह भी कोई गलत तरीका नहीं आख़िर इस्लाम में झंन्डा कोई ग़ैर मारूफ चीज़ नहीं जंग व जिहाद के मौक़े पर हुज़ूर पाक और सहाबा के दौर में झन्डा भी होता था।
*📕सही बुख़ारी जि.1स417 किताबुलजिहाद📕*
में पूरा एक बाब ही झन्डों के बयान में है,जिस में इमामः बुखारी ने 3/हदीसें नकल की हैं।
में पूरा एक बाब ही झन्डों के बयान में है,जिस में इमामः बुखारी ने 3/हदीसें नकल की हैं।
⚘❆➮ पहली हदीस में *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* के एक जानिसार सहाबी
*कैस इब्ने सअद अन्सारी रदिअल्लाहु तआला अन्हु* का ज़िक्र है कि हुज़ूर का झन्डा उन के पास रहता था।
*कैस इब्ने सअद अन्सारी रदिअल्लाहु तआला अन्हु* का ज़िक्र है कि हुज़ूर का झन्डा उन के पास रहता था।
⚘❆➮ दूसरी हदीस में जंगे ख़ैबर का ज़िक्र है कि *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* ने फरमाया था कि कल मैं झन्डा ऐसे शख़्स के हाथ में दूँगा जो अल्लाह और उस के रसूल से मोहब्बत करता है और अल्लाह व रसूल उस से अल्लाह तआला उसके हाथ पर जंग में कामयाबी अता फरमायेगा, और वह मौलाये काइनात हज़रत अली थे
⚘❆➮ तीसरी हदीस में *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* के चचा *हज़रत अब्बास रदिअल्लाहु तआला अन्हु* का ज़िक्र है,जिन्होंने हज़रत जुबैर से एक जगह की तरफ इशारा कर के फरमाया क्या *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* ने तुम को इसी जगह झन्डा गाड़ने का हुक्म दिया था?
⚘❆➮ और सही बुख़ारी की ही एक हदीसे पाक में है। कि जब मुल्के शाम में मूता के मक़ाम पर जंग हो रही थी तो *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* मदीने में सहाबा के दरमियान फरमा रहे। थे ज़ैद ने झन्डा लिया वह शहीद हो गये फिर जाफर ने ले लिया वह भी शहीद हो गये, फिर अब्दुल्लाह इब्ने रवाहा ने लिया वह भी शहीद हो गये, हज़रत अनस कहते हैं यह बताते वक़्त *हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम* की आँखों में आँसू जारी थे फिर फरमाया अब ख़ालिद इब्ने वलीद ने झन्डा ले लिया उन के हाथ पर जंग में फतह हासिल हो गई।
📕सही बुखारी जि.1किताबुलजनाइज़ स,167📕
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा53,54, 📚*
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❝ झंण्डों का बयान!? ❞
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⚘❆➮ दर असल झन्डा,जिस को अरबी में लिवाअ,रायह या अलम,फारसी में परचम कहते हैं उस के माना निशान और पहचान के हैं कोई न कोई निशान हर क़ौम व मिल्लत की पहचान होता है.जो झन्डे पर बनाया जाता है, आज कल दुनिया में चाँद और तारे का निशान मुसलमानों की पहचान बन गया है जो इस्लामी झन्डों पर बनाया जाता है, तो अगर बारहवी शरीफ़ के जुलूस में कुछ लोग इस्लामी निशान के झन्डे ले कर निकलें। या मकानों की छतों, मस्जिदों के मीनारों गुम्बदों वगैरह पर झण्डे लगा ले तो इस में किया हर्ज़ है, आख़िर वह इस्लामी निशान के झण्डे हाथों में ले कर निकलते हैं, कुफ्र का कोई निशान ले कर तो नहीं निकलते झण्डा चूँकी एक ऊँची और बलन्द चीज़ होती है कि दूर से देखने वाले को भी नज़र आ जाये, और वह उस के निशान से उस क़ौम को पहचान ले कि यह कौन हैं।
⚘❆➮ शायद कोई साहब कहने लगे यह जंग व जिहाद के मौक़े की बातें हैं उस के अलावा यह जाइज़ व साबित नहीं तो उन की यह बात दुरुस्त नहीं क्यों। कि हम पहले लिख चुके हैं कि इस्लाम में किसी काम के सिर्फ़ एक कारख़ैर जाइज़ और मुस्तहब होने के लिए उस का इस ख़ास शक़्ल में साबित होना ज़रूरी नहीं किसी शक़्ल व सूरत में कभी भी कही भी उसका पाया जाना जाइज़ होने के लिए काफ़ी है, हाँ कही कोई साहब यह दिखादे के हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम ने जंग व जिहाद के अलावा झंण्डे का इस्तेमाल नाजाइज़ करार दिया और उससे मना फरमाया तो उनकी बात ज़रूर मानी जाएगी, लेकिन वह यह कभी नही दिखा पाएंगे!
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा,54,55 📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 55
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❝ सहाबा का इश्क़सफ़ हा रसूल ﷺ ❞
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⚘❆➮ बारहवी शरीफ़ मनाना महफिले मीलाद मुन्अक़िद करना,जुलूस निकालना, मिठाइयाँ बांटना रौशनियाँ करना, यह सब काम *हुज़ूर पाक सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम* से मुहब्बत और आप से इश्क़ व अक़ीदत के इज़हार के लिए किये जाते हैं, हाँ इस में कोई शक नहीं कि असली सच्ची और हक़ीक़ी मुहब्बत तो आप की इत्तिबाअ व पैरवी और फरमाँ बरदारी ही है, लेकिन यह काम भी अक़ीदत व मुहब्बत का मुज़ाहिरा हैं अगर्चे सहाबा-ए-किराम ने जिस तरह आज कल राइज़ हैं न किए लेकिन इस में क्या शक है कि सहाबा-ए-किराम सब के सब *हुज़ूरﷺ* से हद दर्जा मुहब्बत व अक़ीदत रखते थे, और उस का मुज़ाहिरा भी। करते थे, और हम पहले कह चुके हैं कि मुहब्बत व अक़ीदत के अन्दाज़ और तरीक़े महदूद नहीं होते, किसी भी जाइज़ तरीक़े पर मुहब्बत की जा सकती, और अक़ीदत का इज़हार हो सकता है उस के लिए ज़रूरी नहीं कि वही तरीक़ा और काम किया। जाये जिस का हुक़्म है,और पहले से चला आता हो।
📕सही बुख़ारी जि,1बाबुश्शुरूत फिलजिहाद,स:379 पर एक हदीस में है कि : सुलह हुदैबिया के मौके पर *हुज़ूरﷺ* वुज़ू फरमाते तो सहाबा आप के धोबन को हासिल करने के लिए झपट पड़ते, आप थूकना फरमाते नाक या मुंह से कोई रतूबत निकलती उस को ज़मीन पर नहीं गिरने देते बल्कि हाथों में ले कर चेहरे और जिस्म पर मल लेते।
⚘❆➮मैं मैं पूछता हूँ *हुज़ूरﷺ* ने कब फरमाया था कि तुम मेरा धोबन लेने के लिए झपटा करो और नाक मुंह की रतूबत चेहरे और जिस्म पर मला करे।
⚘❆➮मैं मैं पूछता हूँ *हुज़ूरﷺ* ने कब फरमाया था कि तुम मेरा धोबन लेने के लिए झपटा करो और नाक मुंह की रतूबत चेहरे और जिस्म पर मला करे।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 45📚*
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❝ सहाबा का इश्क़ ए रसूल ﷺ ❞
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⚘❆➮ बुख़ारी ही में बाबुलमाऊ अललज़ी यग़सिलु बिही शअरुलइन्सान सः29📕*की हदीस में है कि हज़रत उबैदा फरमाते हैं हुज़ूरﷺ* का एक बाल मुबारक मेरे पास हो वह मेरे नज़दीक सारी दुनिया और उस की सब काइनात से। बढ़ कर है।मैं पूछता हूँ *हुज़ूरﷺ* ने यह कब फरमाया कि तुम मेरे बदन के एक बाल को सारी काइनात से बढ़ कर समझना।
⚘❆➮ एक हदीस पाक में है *हज़रत उमर फारुक आज़म रदिअल्लाहु तआला अन्हु* फरमाते हैं! ऐ अल्लाह तू मुझ को शहादत नसीब फरमा और अपने *नबीﷺ* के शहर में मौत नसीब फरमा।
*📕सही बुख़ारी,जि1अववाबे फज़ाइलुलमदीना,स263📕*
⚘❆➮ क्या *हुज़ूरﷺ* ने कभी हज़रत उमर से यह कहा था कि तुम मदीने में मौत की दुआ किया करना?
📕सही मुस्लिम जि.2बाब कुर्बिही सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की हदीस में है कि जब *हुज़ूरﷺ* फजर की नमाज़ से फारिग होते तो मदीने के लोग अपने खादिमों को बरतनों में पानी ले कर *हुज़ूरﷺ* का हाथ उन में डलवाने के लिए भेज देते थे और *हुज़ूरﷺ* इस पानी में बरकत के लिए अपना हाथ डालते।
⚘❆➮ हमें बताया जाये कि *हुज़ूरﷺ* ने यह कब हुक़्म दिया था कि तुम बरतनों में पानी ले कर मेरा हाथ डलवाने के लिए मेरे पास फजर के बाद आया करो।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 45,46📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 57
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❝ सहाबा का इश्क़े रसूल ﷺ ❞
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⚘❆➮ और सही मुस्लिम म उसी जगह एक हदीस मे है कि एक बार *हुज़ूरﷺ* अपने बाल मुबारक मुंडवारहे थे। और सहाबा चारों तरफ से घेरे हुये थे और हर बाल किसी किसी के हाथ में आता था यानी एक बाल भी ज़मीन पर नहीं गिरने दिया गया हर मुबारक बाल नूरानी सर से जुदा होते ही उसे कोई न कोई सहाबी झपट लेता था! किया आप बता सकते हैं कि *हुज़ूरﷺ* ने कभी हुक़्म दिया था कि मेरे बालों को ज़मीन पर मत गिरने देना।
⚘❆➮ अभी *हज़रत उबैदा रदिअल्लाहु तआला अन्हु* वाली हदीस बुखारी से हम ने जो लिखी उस की शरह में इमाम बदरूद्दीन ऐनी फरमाते हैं, हज़रत ख़ालिद इब्ने वलीद अपनी टोपी में *हुज़ूरﷺ* का मुबारक बाल रखते थे और जंगों में उसकी बरकत से फतह हासिल फ़रमाते थे!
*📕उम्दातुलक़ारी जि.3स:37अश्शिफाअ लिइमाम क़ाजी अयाज़ मालिकी,जुज़ 2,स:59 बाब मिन एजामिही व इक्बारेही📕*
⚘❆➮ हज़रत ख़ालिद से *हुज़ूरﷺ* ने कब फरमाया था कि अपनी टोपी में मेरा बाल रख लेना उस की बरकत से तुम जंगों में कामयाबी पाओगे।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 47,48📚*
••──────────────────────••►📮 नेस्ट पोस्ट कंटिन्यू ان شاء الله
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 58
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❝ सहाबा का इश्क़े रसूल ﷺ ❞
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⚘❆➮ सही मुस्लिम जि.2 बाब तीबु अरकेही स.257 पर एक हदीस में है"एक सहाबिया हज़रत उम्मे सुलैम जिन के यहाँ कभी कभी आप दो पहर में आराम फ़रमाते थे वह बिस्तर से आप का मुबारक पसीना शीशी में कर के रख लेती और उस को खुश्बू की जगह इस्तेमाल फरमाती तो *हुज़ूरﷺ* ने उन से यह कब कहा था कि तुम खुश्बू की जगह मेरा पसीना इस्तेमाल किया करो। और इसी सही मुस्लिम जि.2 किताबुल लिबास में है कि हज़रत अस्मा बिन्त अबी बक्र *हुज़ूरﷺ* के जुब्बे कुर्ते को धो कर मरीजों को शिफा के लिए पिलाती थीं।
इस किस्म की काफ़ी हदीसें हम ने अपनी किताब" हदीसों की रौशनी में जमा कर दी हैं वहाँ देख ली जायें।
⚘❆➮ और यह जो आलिमे मदीना हज़रत इमाम मालिक के बारे में मशहूर है कि वह मदीने शरीफ़ की गलियों में सवारी पर बैठ कर नहीं चलते थे, और फरमाते कि मुझ को शर्म आती है कि जिस ज़मीन में *हुज़ूरﷺ* हों उस को जानवरों के खुरों से रौंदू।
*📕अश्शिफा,जुज़ 2 स.57 फस्ल मिन एज़ामिही📕*
⚘❆➮ मैं पूछता हूँ क्या इमाम मालिक से इन ज़माने के मदीने वालों ने यह सवाल किया था कि मदीने की गलियों में सवारी पर न बैठने का सुबूत क्या है? बात का खुलासा यह है कि मोहब्बत व अक़ीदत के अन्दाज़ मुख्तलिफ होते हैं कोई किसी तरह कोई किसी तरह अपने महबूब से मुहब्बत का इज़हार करता है, इस के लिए किसी सुबूत की ज़रूरत नहीं होती, बस इस का यही सुबूत है कि वह जो कुछ है सब मुहब्बत में है, हाँ अगर शरई हुदूद से आगे बढ़ा जाये या किसी कारे ख़ैर और मुस्तहब काम को फर्ज़ व वाजिब या सुन्नत एअतिक़ाद करने लगे तो यह ज़्यादती है और उसकी इजाज़त न होगी।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा ,48📚*
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❝ जुलूस का बदलता रंग ❞
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⚘❆➮ अभी गुज़रे हुये बयान में हम साबित कर चुके। कि बारहवी शरीफ़ के मौक़े पर *हुज़ूरﷺ* की पैदाइश की खुशी मनाना इस ख़ुशी का इज़हार करना हर उस तरीके से जाइज़ है जो खिलाफे शरअ न हो, और इस्लामी हुदूद से बाहर न हो, मगर हमें बड़े अफ़सोस के साथ यह भी लिखना पड़ रहा है कि अभी दस बीस सालों में जुलूस का रंग बड़ी तेजी के साथ बदलता जा रहा है, इस्लामी रंग उतरता और फीका पड़ता जा रहा है, ग़ैर इस्लामी तफरीहों तमाशों का रंग चढ़ता जा रहा है, और बहुँत से जुलूस तो अब लड़कों का दुनियावी शौक बन गये हैं, कूद फान्द मचाने शोर हंगामे करने के लिए बारहवी शरीफ़ का जुलूस एक, अच्छा ठिकाना मिल गया है, नाम भी बारहवी शरीफ़ मनाने और *हुज़ूरﷺ* की विलादत पर ख़ुशी ज़ाहिर करने का रहेगा और दिली अरमान भी सब निकल जायेंगे, शौक भी सब पूरे हो जायेंगे छतों छज्जों खिड़कियों पर औरतों के तमाशाई हजूम, नीचे से डी जे बीजे। बाजों की धुन पर नवजवानों के डांस और नाच यह सब हो रहा है, इस्लाम के अज़ीम पैग़म्बर के यौमे पैदाइश मनाने के नाम पर बिलकुल भूल गये कि किस की यादगार है किस का यौमे पैदाइश है, और उस की तालीमात क्या है और उसे क्या पसन्द है,और क्या नापसन्द, उन्हें यह ध्यान भी नहीं आ रहा है।
⚘❆➮ *हबीब परवरदिगारﷺ* के विलादत के दिन को तफरीहों और तमाशों का दिन बनाने वालो और उन के नाम पर नाजाइज़ व हराम हरकतें करने वालो तुम दुनिया को धोका दे सकते हो और मज़हब का नाम ले कर इन्सान की आँखों में धूल झोंक सकते हो, लेकिन तुम उस *ख़ुदाये पाक* को धोका नहीं दे पाओगे जिसे। खुले की खबर है और छुपे की भी वह खूब जानता है, कि तुम को उस के *रसूलﷺ* से कितनी मुहब्बत है और मुहब्बत किसे कहते हैं और मुहब्बत कैसे की जाती है!
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 56,57,📚*
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❝ जुलूस का बदलता रंग ❞
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⚘❆➮ अब तो हद हो गई कुछ जगह के जुलूसों में सुनने को मिला कि शराबें पी कर डांस किए गये, नअतें फिल्मी गानों की तर्ज़ पर पढ़ी गयीं हैं, और अज़ीब व ग़रीब क़िस्म के कलाम पढ़े गये एक नअतिया कलाम पढ़ा जाता है: *"सोंड़ा आया सोंड़ा आया"* मुझे यह भी पसन्द नहीं। कहते है कि यह लफ्ज़ किसी जबान में अच्छे और खूबसूरत के माना में है मैं कहता हूँ होगा किसी जबान में हमारे लिए हमारे *नबीﷺ* की शान बयान करने के लिए उन के वह नाम और अल्फाज़ काफी है: जो खुद अल्लाह तआला ने उन के जरीऐ हमें बताये हैं, किसी ज़बान के यह बेढंगे भोंडे बद सूरत,अल्फाज़ उन की शान में हमें बोलने की क्या ज़रूरत है!
⚘❆➮ जुलूस का तरीक़ा यह है कि मुसलमान लोग अपने मुहल्लों, बस्तियों की गलियों और सड़कों पर निगाहें नीचे किए हुये आहिस्ता आहिस्ता धीमी आवाज में ज़िक्र व दूरूद में मशगूल निक्लें न किसी के घर में झांके न छज्जों,छत्तों और मकानों की खिड़कियों की तरफ़ नज़र उठे, कि *हुज़ूरﷺ* की यह अदा याद आ जाये👇।
*नीची नज़रों की शर्मो हया पर दुरूद*
*ऊँची बीनी की रिफअत पे लाखों सलाम*
*ऊँची बीनी की रिफअत पे लाखों सलाम*
*फजले पैदाइशी पर हमेशा दुरूद*
*खेलने से कराहत पे लाखों सलाम*
*(आला हज़रत अलैहिर्रहमा)*
*खेलने से कराहत पे लाखों सलाम*
*(आला हज़रत अलैहिर्रहमा)*
हुई.जो तैबा को बार याबी तो अपनी सज धज यह होगी हामिद खमीदा सर आँख बन्द लब पर मेरे दुरुद व सलाम होगा
*(हुज्जातुल इस्लाम मौलाना हामिद रज़ा खाँ अलहिर्रहमा)* कभी कभी नअरा लगाया जाये तो यह भी जाइज़ है बुलन्द आवाज़ से मिल जुल कर दुरूद का सलाम पढ़ते हुये चलें यह भी बेहतर रास्ते बन्द न करें। राह गीरों को परेशान न होने दें, चलने में एक दूसरे का भी ख़्याल रखें किसी को तकलीफ़ न हो।
*(हुज्जातुल इस्लाम मौलाना हामिद रज़ा खाँ अलहिर्रहमा)* कभी कभी नअरा लगाया जाये तो यह भी जाइज़ है बुलन्द आवाज़ से मिल जुल कर दुरूद का सलाम पढ़ते हुये चलें यह भी बेहतर रास्ते बन्द न करें। राह गीरों को परेशान न होने दें, चलने में एक दूसरे का भी ख़्याल रखें किसी को तकलीफ़ न हो।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा ,57,58📚*
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❝ मुखालिफे शरअ जुलूस !? ❞
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⚘❆➮ मुख़ालिफे शरअ जुलूसों से मेरी मुराद वही जुलूस हैं जिन में नाच तमाशे,ढोल बाजे,शराब और नशे फोटो ग्राफ़ियाँ जैसे खिलाफे शरअ काम किए जाये,ऐसे जुलूसों को सुधारने और शरीअत के दाइरे मेंषलाने की कोशिश की जाये, और हराम काम हद से -आगे बढ़ जायें उनका गलबा हो जाये तो ऐसे जुलूसों को बन्द करने रोकने और रुकवाने में भी हर्ज़ नहीं,और कुछ नहीं तो खुद को उन में शिरकत से रोक लिया जाये और शरीक़ न हुआ जाये एक कारे ख़ैर और। मुस्तहब काम के लिए हराम कारियों की इजाज़त नहीं दी जा सकती।
⚘❆➮ *आला हज़रत इमाम अहमद रजा खाँ बरेलवी अलैहिर्रहमा* आज कल के कुछ उसों के बारे में तहरीर फरमाते हैं! खुसूसन इस तूफान के तमीज़ी रक़स व मज़ामीर व सुरूद में जो आज कल अअरासे तय्यबा में जाहिली ने बर्पा कर रखा है इस की शिरकत तो मैं अवाम रिजाल को भी पसन्द नहीं रखता!
*📕फतावा रज़विया,जि,9 स,542📕*
⚘❆➮ कुछ लोग समझते है कि जुलूस निकालने से सुन्नियत मज़बूत होती है और इस से मज़हबे अहले सुन्नत को तक़वीयत मिलती है तो यह हक बात है। लेकिन अगर जुलूस में खिलाफे शरअ हरकात बेहूदगी और वाहियात का गलबा हो गया तो इस से सुन्नियत कमज़ोर होगी और मज़हब अहले सुन्नत का नुक़सान होगा,और मुन्किरीन का फायदा और नफा।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा,59 📚*
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❝ मुखालिफे शरअ जुलूस !? ❞
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⚘❆➮ *हज़रत अल्लामा ग़ुलाम रसूल सईदी मद्दज़िल्लाहु लिखते हैं!* : पहले मुसलमान सिर्फ़ महफिल का इन्क़ाद और सदक़ा व खैरात किया करते थे,बाद में अहले मुहब्बत ने इस ख़ुशी में जुलूस निकालना शुरू किया जिस में नअत ख्वानी होती थी, क़सीदा-ए-बुर्दा शरीफ़ पढ़ा जाता था और उलमा-ए-किराम तकरीरें किया करते थे और नमाज़ों के औक़ात में नमाज़ पढ़ी जाती थी, कोई ग़ैर शरई हरक़त नहीं की जाती थी,इस जुलूस को फर्ज़ व वाजिब और सुन्नत का दर्ज़ा नहीं दिया जाता था। *रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम* के ज़िक्र की ताज़ीम और आप की अज़मत के इज़हार के लिए जुलूस निकाला जाता था,क्यों कि आज कल किसी की अज़मत व शौक़त के इज़हार का एक ज़रीआ जुलूस भी है इस अम्न के पेश नज़र जुलूस निकालना बिलाशुबह एक अम्र मुस्तहसन है,लेकिन जैसा कि हम ने अभी ज़िक्र किया बाज़ गैर मोअतदिल लोग हर नेक और अच्छे काम में अपनी हवा व हवस के तक़ाजे से बुराई के रास्ते निकाल लेते हैं इसलिए हम देखते हैं कि बाज़ शहरों में ईदे मीलाद के जुलूस के तक़द्दुस को बिल्कुल पामाल कर दिया गया है, जुलूस तंग रास्तों से गुज़रता है और मक़ानों की खिड़कियों और बालकनियों से नौ जवान लड़कियाँ और औरतें शुरकाए जुलूस पर फल वगैरा फेंकती हैं। औबाश नौजवान फहश हरकतें करते हैं जुलूस में मुख्तलिफ गाड़ियों पर फ़िल्मी गानों की रीकार्डिग होती है, और नौजवान लड़के फ़िल्मी गानों की धुनों पर नाचते हैं, और नमाज़ के औक़ात में भी जुलूस चलता रहता है, मसाजिद के आगे से गुज़रता है और नमाज़ का कोई एहतिमाम नहीं किया जाता,इस क़िस्म के जुलूस मीलदुन्नबी के तक़द्दुस पर बदनुमा दाग हैं, की अगर इसलाह न हो सके तो उन को फौरन बन्द कर देना चाहिए. क्यों कि अम्रे मुस्तहसन के नाम पर इन मुहर्रमात के इर्तिकाब की शरीअत में कोई असल नहीं, अलबत्ता इन ग़ैर शरई जुलूसों को देख कर मुतलकन ईद मीलादुन्नबी के जुलूसों को हराम और नाजाइज़ कहना सही नहीं।
*📕शरअ सही मुस्लिम, जि,3 स,170📕*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा,59,60📚*
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❝ शैतान की एक चाल !? ❞
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⚘❆➮ शैतान की एक चाल और उस का एक दांव है। कि जब वह मज़हबी भले और दीन दार लोगों से खेल तमाशे नहीं करा पाता तो धीरे धीरे मज़हबी कामों को। ही खेल तमाशों में तब्दील कराने की कोशिश में लग जाता है, मुहर्रम में हज़रत सय्यदिना *इमाम हुसैन रदिअल्लाहु तआला अन्हु* के नाम पर जो तअजियेदारी होती है इस का और आज के बहुँत से उर्सों का बिल्कुल यही मुआमला है और अब बहुँत सारे जुलूस का हाल भी यही होने जा रहा है,ढोल बाजे, खेल तमाशे कूद फांद, शोर, हंगामे नौटंकियौं वाली बातें और काम इन में भी होने लगे आगे आगे देखिये होता है क्या, ख़ुदा महफ़ूज रखे शैतान की तरकीबों और उसकी चालों से काफी जुलूसों में अब नाम मज़हब का है इस्लाम का और पैग़म्बर इस्लाम का और काम हो रहे हैं शैतान को खुश करने वाले,खेल तमाशों के शौकीन यूँ तो वह खेल तमाशों में रहते ही हैं लेकिन अब वह बारहवी शरीफ़ के जुलूस में मौलाना हज़रात को साथ में ले कर यह काम करेंगे और मौलवी बेचारे टुक टुक दीदम दम न कशीदम सब कुछ देखो कुछ न बोलो के फार्मूले पर अमल करते हैं, करें भी क्या ज़रा बोले तो गई इमामत व ख़िताबत नहीं मिलेगा चन्दा फिर कैसे चलेगा मदरसा, उधर तमाशाइयों ने क़सम खा रखी है। कि मौलवियों को न रगेदा और अकेले ही तमाशा कर लिया तो फिर मज़ा ही किस बात का, मज़ा तो इसी में है कि हज़रत आगे आगे क़ियादत फरमायें और हम पीछे पीछे खेल तमाशे करें,ढोल बाज़े बजायें,खूब नाचें। खूब कूदें, हद यह है कि बाज़ जगह मौलवियों को। तअज़ियेदारी में शामिल किया जाता है,और यह बेचारे ख़्वाही नख़्वाही खूब हस्से हस्से करते घूमते हैं।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 61,62📚*
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❝ शैतान की एक चाल !? ❞
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⚘❆➮ मैं कहता हूँ मेरे भाइयो इन तमाशाइयों को समझाओ लड़ाई झगड़े की ज़रूरत नहीं,लेकिन प्यार व मुहब्बत से हलाल व हराम में फ़र्क बताओ, और न माने तो कम अज़ कम खुद को बचाओ, और तक़रीरें करने वाले उलमा-ए-किराम से मैं अर्ज़ करूँगा कि बारहवी शरीफ़ मनाने और उस के जुलूस व डीकोरेशन के सुबूत तो आप दे रहे हैं और पठ्ठे ठोंक ठोंक कर कह रहे हैं कि कौन कहता है कि नाजाइज़ है, लेकिन इस के साथ साथ जो खुराफातें और ख़िलाफे शरअ बातें। रिवाज पा रही हैं उनको समझाने के लिए किसे बुलाया जायेगा, यह आप का काम नहीं है? सोचिये और बताइये,और शैतान के हर दांव और हर चाल और हर तरक़ीब से अवाम को बा ख़बर कीजिए इस्लाम की चहार दीवारी में किसी भी जानिब से सूराख मत होने दीजिए ख़ुदा-ए-पाक आप की मदद फरमायेगा और आप को वहाँ से रोज़ी देगा जहाँ से आप को गुमान भी नहीं और असली रोज़ी तो दिल का सुकून है वह दुनिया में नहीं बल्कि दीन ही में है।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 62,63📚*
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❝ आम आदमी एक कमज़ोरी!? ❞
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⚘❆➮ मैंने देखा और तजर्बा किया कि आम आदमी का राहे रास्त पर रहना मुश्किल सा होता है और तौफीक अल्लाह ही की तरफ़ से है। यह या तो बदमज़हब बनेंगे गुस्ताख़ और बे अदब, मामूली बातों पर शिर्क व कुफ्र और बिदअत के फ़तवे लगाने वाले, या फिर सुन्नी रहेंगे, तो निरे तमाशाई नमाज़ रोज़े और कुरआन की तिलावत से उन का दिल भर ही नहीं सकता, उन्हें रक़्स व सुरूद नाच गाने बाजे ढोल ढमाके चाहिए, कभी कव्वालियों के नाम पर कभी तअज़िये दारी के और अब बारहवी शरीफ़ के जुलूस को भी ख़ालिस तफ़रीह व तमाशा बनाये दे रहे हैं, और जो बदमज़हब हो जाता है कोई कितनी ही एहतियात के साथ अल्लाह व रसूल का ज़िक्र करे ज़रा सी तबदीली देखी बस हराम होने का फतवा ठोंक दिया मैं कहता हूँ मेरे सुन्नी भाइयों सही सुन्नी बन कर रहो और नमाज़ रोज़े के पाबन्द बुराइयों से बचो अच्छाइयों पर अमल करो बुजुर्गों से मोहब्बत करो उनकी यादगारें मनाओ लेकिन खेल तमाशों से दूर रहो।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 63📚*
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❝ छतों से खाने का सामान फेंकना!? ❞
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⚘❆➮ आज कल जुलूसों में यह ख़राबी भी आम है कि खाने का सामान मिठाइयाँ बिस्किट, फल फुरूट वगैरा जुलूस वालों पर उन के खाने के लिए छतों से गिराये और फेंके जाते हैं, कुछ हाथों में आये और कुछ ज़मीन पर गिरे, यहाँ तक कि गन्दी नालियों में। ज़मीन पर गिरने वाली चीजें खूब पैरों से रौन्दी और कुचली जाती हैं, किस क़दर बेहुरमती, ना क़दरी होती है ख़ुदाये पाक की दी हुई रोज़ी रोटी को खाया कम जाता है बरबाद और पामाल ज़्यादा किया जाता है। अल्लाह महफूज़ रखे।
⚘❆➮ क्या हो गया है उन मुसलमानों को भूल गये *हुज़ूरेﷺ* और आप के जानिसारों की फाका कशी को खाली पेट रहने और भूक की वजह से पेट से :मपत्थर बांधने वाली प्यारी प्यारी अदाओं को खूब खा रहे हैं और बरबाद कर रहे हैं, पाखाने पेशाब की गन्दी नालियों में बहा रहे हैं इन के दिल में ख़ौफे ख़ुदा नहीं उन्हें महबूबे ख़ुदा से सच्ची मोहब्बत नहीं।
*रिज़के ख़ुदा खाया किया फरमाने हक़ टाला किया*
*शर्मे नबी ख़ौफे ख़ुदा यह भी नहीं वह भी नहीं*
*(आला हज़रत अलैहिर्रहमा)*
*शर्मे नबी ख़ौफे ख़ुदा यह भी नहीं वह भी नहीं*
*(आला हज़रत अलैहिर्रहमा)*
_*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 64 📚*_
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❝ छतों से खाने का सामान फेंकना!? ❞
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⚘❆➮ होना यह चाहिए कि अगर जुलूस वालों की तवांजो करना ही है तो खाने पीने के सामान उन को तक़सीम कर दिए जायें और वह किसी जगह बैठ कर सुन्नत तरीक़े से खायें,खड़े खड़े या चलते फिरते खाना भी तो ख़िलाफ़े सुन्नत और मकरूह है, और यह बाटना तकुसीम करना भी बार बार न हो किसी एक दो मक़ाम पर कुछ लोग ऐसा कर लें तो कुछ हर्ज़ नहीं खाने पीने के सामान की ज़्यादती से कभी कभी उस की ना कुदरी होती है।
⚘❆➮ न्याज़ों फातिहओं के खाने की भी मैंने ना क़दरी देखी है सब लोग ख़ूब बहुत बहुत सा पकालेते हैं तो फिर खाने वाले कहाँ से आयेंगे? न्याज़ फातिहा का एक मक़सद यह भी था कि मालदार करें और ग़रीब खायें अब तो मालदार करें न करें ग़रीब से ग़रीब आदमी के लिए भी न्याज़ फातिहा इतनी ज़रूरी हो गई है कि भले से उधार ले कर करे मगर करेगा ज़रूर हालांकि यह काम इतने ज़रूरी नहीं।
⚘❆➮ हज के मौक़े पर अरफ़ात व मिना के मैदानों में भी मैंने खाने पीने के सामानों की सख़्त ना क़दरी देखी है मुफ़्त में खूब बंटता है ले ले कर ढेर लगा लेते हैं फिर इधर उधर फेंकते हैं और वह सब कूड़े करकट ढेरों में जाता है। मुझ को डर लगता है कि यह रिज़के ख़ुदा की बरबादियाँ कही हमें बरबाद न करे!
⚘❆➮ खुलासा यह कि बारहवी शरीफ़ के जुलूस पर छतों से खाने के सामान फेंकने के रिवाज जहाँ पड़ गये हैं उन्हें बन्द करना चाहिए।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा ,65📚*
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❝ रौशनी करना !? ❞
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⚘❆➮ *हुज़ूरﷺ* की विलादत की ख़ुशी में बारह रबीउल अव्वल की रात को रौश्नियाँ करना भी कोई नाजाइज़ काम नहीं है उसका मक़सद भी ख़ुशी का इज़हार है। लेकिन हद से ज़्यादा डीकरेशन और सजावटें जो तमाशे की शक्ल इख़्तियार कर लें मुनासिब नहीं हैं, ख़ास कर मस्जिदों में ऐसी सजावट करना जिस से नमाज़ी का ध्यान बटे मना है।
⚘❆➮ *आला हज़रत अलैहिर्रहमा फरमाते है!*
ऐसी चीज़ों को दीवारे क़िबला में नसब करना न चाहिए जिस से नमाज़ी का ध्यान बटे।
ऐसी चीज़ों को दीवारे क़िबला में नसब करना न चाहिए जिस से नमाज़ी का ध्यान बटे।
*(📕फतावा रज़विया जि.8स104📕)*
⚘❆➮ हमारे ख़्याल में रौश्नियाँ होना चाहिए लेकिन उस में आज कल जो तरह तरह की आर्ट और कलाकारी दिखाई जाती है छोटे छोटे बल्बौं के जरीओ खिलोने से बनाये जाते हैं, वह कुमकुमे कभी जलते हैं तो कभी बुझते हैं कभी कोई रंग आता है। कभी वह जाता तो दूसरा रंग आ जाता है कभी वह चलते और घूमते दिखाई देते हैं, यह सब रौश्नियाँ नहीं, खेल और तमाशे हैं, लहव लअब हैं, फिर जगह जगह सड़कों ग़लियों चौराहों और पारकों वगैरा में इन तमाशों के ज़रीऐ दिल चस्प मनाज़िरे और सीनरीज़ बनाना रात को मर्दों और औरतों का उन्हें देखने लिए निकलना लड़कियों और लड़कों के वहाँ तमाशाई हुजूम होना फिर उन तमाशों में एक दूसरे से मुकाबिल करना कौन सी कमेटी का डीकरेशन ज़्यादा अच्छा रहा,फिर उन कमीटियों का मुकाबिले में नम्बर और इन्आम हासिल करने के लिए ख़ूब ख़र्च करना, चन्दे करना और गरीबों मज़दूरों के घर घर जा कर भीड़ कर लम्बी लम्बी रकमें बारहवीं शरीफ़ के नाम पर ऐठना यानी गरीबों मज़दूरों का खून चूसना और इस खून से रौशनी करना यह सब मुकाबिलों की वजह से होता है और इन जलसे जुलूस उर्स व न्याजों वाली कमेटियों ने बाज़ जगह ग़रीब मुसलमानों की नाक में दम कर रखा है । उन का जीना मुश्किल कर दिया है, उसों , कव्वालियों, तअज़िये दारी के नाम पर चन्दा करने वालों ने तो वह उधम काट रखा है कि उन के। खिलाफ कानूनी कारवाइयाँ की जायें तो कुछ बे जा नहीं। आज की कव्वालियों और ताज़ियेदारी तो नाजाइज़ काम हैं । लेकिन हमारे ख़्याल में यह जितने कारे ख़ैर और मुस्तहब काम हैं जिन के न करने और न होने में किसी पर कोई गुनाह नहीं उन सब के लिए भी अवाम में चन्दे नहीं होना चाहिए, बस जिस का जितना मौक़ा हो करे, न मौक़ा हो न करे, यह कोई फर्ज़ व वाजिब या सुन्नत काम नहीं हैं,और ज़बरदस्ती या दबाव प्रेशर बना कर मजबूर कर के चन्दे लेना जो काम फर्ज़ व वाजिब हैं उन के लिए भी सही नहीं, ख़ास कर ग़रीबों और मज़दूरों से उन को तो इस्लाम में देना आया है न कि उन से लेना, बल्कि कमेटियाँ मालदारों से चन्दे कर के फन्ड बना कर बारहवी शरीफ़ के मौके पर ग़रीबों की हाजत रवाई करें, उन्हें रूपया या ज़रूरत के सामान बांटे जायें, बगैर ख़र्चे के इजतेमाई निकाह और शादियों कराई जायें तो सही मअना में बारहवीई शरीफ़ का हक अदा करना है। *खुदा - ए - तआला* तौफीक अता फरमाये। आमीन
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 66,67📚*
••──────────────────────••►📮 नेस्ट पोस्ट कंटिन्यू ان شاء الله
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 69
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❝ रौशनी करना !? ❞
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⚘❆➮ आला हज़रत अलैहिर्रहमा* फरमाते हैं! मुसलमान का दिल ख़ुश करने के बराबर अल्लाह अज़्ज़ व जल्ल को फराइज़ के बाद कोई अमल महबूब नहीं, फिर एक हदीस नकल करते हैं *हुज़ूरﷺ* ने फ़रमाया!
⚘❆➮ बेशक *अल्लाह तआला* के नज़दीक फ़र्ज़ो के बाद सब आमाल से ज़्यादा महबूब मुसलमान को खूश करना है।
*(📕फतावा रज़विया जि,5 स668📕)*
⚘❆➮ एक मक़ाम पर *आला हज़रत अलैहिर्रहमा* फरमाते हैं, इतयाने मुस्तहब व तर्क ग़ैरे औला पर मुदारत खलक़ व मुराआते कुलूब को अहम जाने।
*(📕फतावा रज़विया जि,4 स 528📕)*
⚘❆➮ यानी किसी मुसलमान का दिल रखने के लिए मुस्तहब काम को छोड़ा जा सकता है और आज हाल यह है कि मुस्तहब तो दर किनार नाजाइज़ व खिलाफेशरअ कामों के लिए ग़रीबों, मज़दूरों से इस तरह जबरदस्ती चन्दे किए जाते हैं कि लोग कलेजे पकड़ कर और दिल मसोस कर रह जाते हैं।
⚘❆➮ एक जगह फातिहा में घी का चिराग जलानेको भी *आला हज़रत अलैहिर्रहमा* ने फुज़ेल खर्चियों में शुमार किया है। उन का मक़सद यह है कि जब रोश्नी करने का मक़सद कम ख़र्चे से हासिल हो गया यानी तेल के चिराग से तो बे ज़रूरत ख़र्चे न किए जायें। यानी घी का चिराग जलाने की क्या ज़रूरत है।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 67,68📚*
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❝ दिलो को भी सजाओ!? ❞
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⚘❆➮ बारहवी शरीफ़ के मौक़े पर *हुज़ूरﷺ* की विलादत की ख़ुशी के इज़हार के लिए रौश्नियाँ करना चिराग जलाना जाइज़ है लेकिन ऐसा न हो कि गलियाँ और सड़के तो रौशन हो जायें और दिलों में अंधेरा । बाजारों मकानों में उजाला, दिल दिमाग और सीना काला दिल व दिमाग और सीनौं को भी सजाओ, और उन्हें रौशन करने का मतलब यह है कि एक दूसरे से मोहब्बत करो नफरतें मिटाओ, घरवाले हों या बाहर वाले, रिशते दार हो या पड़ोसी, सब का हक अदा करो। खुद परेशान हो लो मगर अपनी ज़ात से दूसरों को परेशान न करो, खूद रोना पड़ जाये मगर तुम्हारी वजह से दूसरा न रोये, सिर्फ़ अपने ही नफा फाइदा , चैन व आराम न देखो दूसरों को भी राहत व सुकून पहुँचाने की कोशिश करो, अपने ही लिए जिये और मरे तो क्या दूसरों के लिए भी जीना और मरना सीखो, एक दूसरे को निबाहो, अगर किसी में कोई कमी भी है तो उस को भी निबाहने की कोशिश करो, जिस तरह सब चेहरे :मएक जैसे नहीं होते ऐसे ही दिल व दिमाग भी अलग अलग होते हैं, और थोड़ी बहुत कमियाँ, कोताहियाँ गलतियाँ सब से हो जाती हैं, उन्हें बरदाशत करो। दूसरों की तरफ से जो ईज़ायें तकलीफें पहुँचें उन पर सब्र करो, अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा.68 📚*
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❝ दिलो को भी सजाओ!? ❞
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⚘❆➮ और अगर आप में यह सब बातें नहीं आप दिलों में एक दूसरे के लिए कीने भरे हुये हैं मामूली मामूली बातों पर आप को गुस्सा आ जाता है किसी से कोई मामूली सा भी नुक़्सान पहुँच जाये तो उस को ! सबक सिखाये बगैर आप को चैन नहीं पड़ता इन्तिकाम और बदला लेने की आग आप के सीने में भड़क रही! है अपना थोड़ा सा मक़सद हासिल करने के लिए दूसरौं को बरबाद कर डालते हैं, खूद हंसते और दूसरो को रुलाते हैं, अपने आराम के लिए औरों को तक़लीफ पहुँचाते हैं अपने और अपनी औलाद के शौक पूरे करने के लिए हराम कमाते हैं, तेरी मेरी बे ईमानियाँ करते। हैं, पैसे के दो पैसे लेते हैं, हर चीज़ में मिलावट, हर काम और बात में धोका, बे रहमी से कमाते हैं, पराई बहन बेटियों को ब्याह कर लाते हैं फिर जहेज़ के नाम पर उन्हें सताते मारते पीटते और तक़्लीफ देते हैं, लम्बी लम्बी बारातें ले जा कर लड़की वालों के घरों पर धावे बोलते हैं, मांगें और डिमान्डे करते हैं, नाश्ते और खाने के लिए लड़ते हैं, सूद ब्याज जूये शराब के आप आदी हैं, नमाज़ों की आप को फुरसत नहीं, रमज़ान के रोज़े रखना आप के बस की बात नहीं, तो आप के दिलों में अंधेरा है! पैगम्बरे इस्लाम से आप दूर हैं, उन के नाम पर यह ज़ाहिरी रौश्नियाँ करने घरों दोकानों गलियों सड़कों को सजाने से उन का हक़ अदा न होगा दि व दिमाग को भी सजाओ कही ऐसा न हो कि घरों ग़लियों में उजाले हों और दिल व दिमाग काले।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 70 📚*
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❝ दिलो को भी सजाओ!? ❞
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⚘❆➮ यह सब हमारे बताने की बातें नहीं आप ख़ुद सोचिये, और अकेले में बैठ कर ग़ौर कीजिए कि आप हैं कहाँ पहुँच चुके हैं, क्या करना चाहिए और क्या कर रहे हैं किस किस को सताया है, और किस किस को रुलाया है, किस की बेईमानी की है , और किस को धोका दिया है? क्या आप यह समझ रहे हैं इन चिरागों कुमकुमों की ज़ाहिरी रौश्नियों, लाइटों से हराम कारियों ज़ुल्म व ज़्यादतियों और बे ईमानियों खुदा वालों की नफ़रमानियों के काले सियाह दाग धब्बों को आप रौशन कर लेंगे और इन ज़ुलमतों को इन माद्दी उजालों से मिटादेंगे? अगर आप ने यह समझ रखा है तो आप ख़ुद धोके में हैं, और सब से ज़्यादा धोके में वह है जो *अल्लाह तआला* को धोका देना चाहे।खूब जान लो *अल्लाह तआला* वह है जो धोका खाने से पाक है वह खूब देख रहा है तुम्हारे जाहिर को भी और बातिन को भी, जो अन्दर है उस को भी और जो बाहर है उस को भी जो सड़कों पर उस को भी और जो दिलों में है उस को भी , जो ज़बानों पर हैं उस को भी और जो सीनों में है उस को भी।
*और जिस को अल्लाह की तरफ़ से नूर न मिला उस के लिए कोई नूर नहीं। 📕कुरआन*
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा,71📚*
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❝ मुकर्ररीन से दो बातें!? ❞
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⚘❆➮ बारहवी शरीफ़ के माहे मुबारक में जलसों महफ़िलों और कांफ्रेसों की कसरत होती है आज काफ़ी मुक़र्ररीन हज़रात को देखा कि वह बारहती शरीफ़ मनाने जलसे जुलूस रौश्नियाँ और सजावटे करने के सुबूत दे कर और तरह तरह से इस सब को जाइज़ साबित करने ही को बारहवी शरीफ़ की तकरीर ख़्याल करते हैं उन्हें और कुछ याद ही नहीं आता. हालांकि यह सब भी सही है और तकरीरों का एक हिस्सा यह हो तो कुछ हर्ज़ नहीं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मुन्किरीन का रद तो खूब ज़ोर दार तरीक़े से हो गया और सुन्नियों को क्लीन चिट दे दी गई कुछ भी करें सब सही। आप की ज़िम्मे दारी है कि जो लोग हद से आगे बढ़ रहे हैं और बारहवी शरीफ़ के नाम पर तमाशे करने लगे हैं ज़बर दस्ती चन्दे करते हैं उन्हें भी प्यार व मुहब्बत से समझायें कि भाइयो यह सब आप क्या करने लगे, इस से हमारे इस्लाम और हमारी सुन्नियत की बड़ी बदनामी हो रही है, यह आप शराबें पी कर डांस करने लगे नअतों को आप ने गानों की तर्ज़ में ढाल दिया, और उन की धुनों पर आप नाचने लगे, ऐसे यह सब जाइज़ नहीं।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 72,📚*
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❝ मुकर्ररीन से दो बातें!? ❞
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⚘❆➮ मैं कहता हूँ कि जाइज़ कामों को आप जाइज़ कहते और साबित करते हैं , लेकिन नाजाइज़ कामों को नाजाइज़ कहने और नाजाइज़ साबित करने वाले कहाँ से आयेंगे ? आप तो हलाल कामों को हलाल बता कर चले गये लेकिन हराम कामों को हराम बताने के लिए क्या अलग से कोई और जलसा करना पड़ेगा? जो जाइज़ कामों का इन्कार करते हैं उन को भी प्यार व मुहब्बत से ही समझाना चाहिए. हर वक़्त हर एक के लिए आस्तीन चढ़ाने और पठ्ठे ठोंकने ही से काम नहीं चलता, सिर्फ़ मुनाज़िरों के चैलेन्ज काफी नहीं है, उन में भी सब हट धरम ज़िद्दी और बदमज़हब नहीं होते, काफी वह हैं जो इन जुलूसों उर्स वगैरा में शामिल ख़िलाफे शरअ उमूर और अवामी ज़्यादतियों और औबाशियों को देख कर कतराने लगे हैं, आप दूध का दूध और पानी का पानी कीजिए जाइज़ को जाइज़ तो नाजाइज़ को नाजाइज़ कहिए, और हर हक़ व सही बात को जहाँ तक मुम्किन हो प्यार व मुहब्बत के साथ नर्म लहजे में समझाने की कोशिश कीजिए, अन्दाज़ वाअिज़ाना, नासिहाना और ख़ैर ख़्वाही भरा हो, खतीबाना अन्दाज़ और हर वक़्त लताड़ने और झिड़कने की आदत जिन की पड़ गई है वह अक़ाइद व आमाल की सही मअना में इस्लाह करने वाले नहीं है!
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 72,73📚*
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❝ मुकर्ररीन से दो बातें!? ❞
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⚘❆➮ हमारा ख़्याल तो यह है कि यह ज़ाहिर करना और बताना भी ज़रूरी है कि यह काम यानी बारहवी शरीफ़, उर्स व नियाज़ वगैरा हमारे नज़दीक सिर्फ कारे ख़ैर जाइज़ व मुस्तहब हैं, हम उन्हें फ़र्ज़ व वाजिब या सुन्नत नहीं कहते कोई न भी करे तो उस पर कोई गुनाह नहीं, हाँ जो उन्हें बुरा कहे वह ज़रूर गुमराह है, क्योंकि अच्छे काम को बुरा वह कहेगा जो खुद बुरा होगा।
⚘❆➮ आज कल अवाम की एक बड़ी तादाद तो वह है जो इस्लाम के ज़रूरी कामों को छोड़ कर नमाज़ को रोज़े वगैरा से मुंह मोड़ कर इन्हीं सब कामों में लग गई है, और वह सिर्फ़ इन्हीं कामों को इस्लाम समझने लगे हैं, लिहाज़ा उलमा व ख़ुतबा को यह ज़ाहिर करना ज़रूरी है जो हम ने ऊपर लिखा।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 73📚*
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❝ मुकर्ररीन से दो बातें!? ❞
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⚘❆➮ बारहवी शरीफ़ के जलसों का एक अहम पहलू , और ज़रूरी हिस्सा *हुज़ूरे पाक सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम* की सीरते पाक आप के अखलाक़ व आदात पर मुश्तमिल होना चाहिए, बड़ा अच्छा मौका मिलता है अवाम जोशे अक़ीदत में खूब आते हैं उन्हें *हुज़ूरﷺ* के तौर तरीक़े रहन सहन और आप की सुन्नते बताइये, कुछ लोग सिर्फ़ फज़ाइल व मोअजेज़ात पर तक़रीरें करते हैं तो यह भी ज़रूरी है लेकिन यह कौन बतायेगा कि *हुज़ूरﷺ* को क्या पसन्द था और क्या, नापसन्द, किस बात पर ख़ुश होते थे और किस से नाराज़? आप की तालीमात क्या हैं, अखलाक़ कैसा था। और आदात कैसी थी?
⚘❆➮ जो लोग हज़राते अम्बिया-ए-किराम औलिया-ए-ऐज़ाम के सिर्फ़ फज़ाइल व मोअजेज़ात कमालात व करामात बयान करते हैं लेकिन उन की तालीमात व इरशादात फरामीन व अक़वाल सीरत व चाल चलन की तरफ़ से बिल्कुल आँख बन्द किए हुये हैं और वअज़ों तक़रीरों में यह सब नहीं बताते वह क़ौम के सही रह नुमाई नहीं कर रहे हैं. और यह वअज़ व तक़रीर का हक अदा नहीं कर रहे हैं, शायद वह कहें जिस चीज़ की ज़रूरत होती है उसी को बयान किया जाता है, तो मैं कहता हूँ कि ऐसा कौन सा जमाना है जिस में *हुज़ूरे पाकﷺ* आप के अस्हाब की सीरत व अखलाक़ बयान करने की ज़रूरत नहीं रह गई, और *हुज़ूरﷺ* से सही इश्क़ तब ही होता है जब इंसान आप की सीरत अखलाक़ व आदात में गौर करता है, और आप की हैरान कुन हमा जिहती शख्सियत उस के ज़हिन व फ़िक्र में बस जाती है, और वह आप की तरफ़ खिंचता चला जाता है,
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 74,75📚*
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❝ मुकर्ररीन से दो बातें!? ❞
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⚘❆➮ सिर्फ़ मरतबे सुन सुन कर जो मुहब्बत पैदा होती है उस में वह पुख्तगी नहीं होती जो हालाते ज़िन्दगी सीरते पाक और चाल चलन में ग़ौर करने से हासिल होती हैं। कारनामे और कार गुज़ारियाँ जितनी असर अन्दाज़ हो सकती है, दरजात व मरातिब इतने नहीं, शान और रुतबों से दिलों में वह जगह नहीं बन्ती जो इंसान के खुलूस उसकी जफा कशी मेहनत व कोशिश से मरतबे तो ख़ुदा-ए-तआला बगैर कुछ किए भी दे सकता है और दे देता है, उस का खुलासा यह है कि वअज़ गोई तक़रीर ख़िताबत सिर्फ़ मरातिब व फज़ाइल सुनाने का नाम नहीं बल्कि उस के साथ साथ *हुजूरﷺ* की तालीमात से आश्ना व आगाह करा कर क़ौम को ऐसा बनाने की भी कोशिश करना है कि *हुज़ूरﷺ* की मुबारक ज़िन्दगी उन के लिए नमूना-ए-अमल बन जाये, हाँ *हुज़ूरﷺ* के फज़ाइल व मनाकिब, दरजात व मरातिब का ज़िक्र भी इस्लाम का एक बड़ा अहम हिस्सा हैं, क्यों कि आप सिर्फ मोमिन नहीं बल्कि ईमान भी हैं सिर्फ़ मुस्लिम नहीं बल्कि इस्लाम भी हैं, आप की याद, ख़ुदा की या , आप का ज़िक्र अल्लाह का जिक्र है, और *ज़िकरुल्लाह* तो आप ही का नाम है, क्योंकि आप उन सब के सरदार हैं जिन्हें देख कर *अल्लाह तआला* की याद आती है। और *अल्लाह तआला* का नाम ज़बान से जारी हो जाता है।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 75,76📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 78
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❝ जुलूस का सियासी रंग!? ❞
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⚘❆➮ बाज़ जगह यह बारहवी शरीफ़ का जुलूस सियासी लोगों के लिए तर लुक़मा मीठा निवाला बन गया है, नौबत यहाँ तक पहुँची कि ग़ैर मुस्लिमों तक को जुलूस का क़ाइद बना कर पेश किया जाता है, दर असल सियासी लोग ऐसी जगहों की तलाश में रहते हैं, कि जहाँ ख़ूब पब्लिक हो बिन बुलाये भी आ जाते हैं, लेकिन ख़ूब जान लो कि यह पब्लिक किसी दुनियावी रह नुमा किसी क़ाइद नेता और सियासी हुक्मरों के नाम पर नहीं आती यह तो मुख़्तारे कुल काइनात के नाम पर जमा होती है इस की क़ियादत वही लोग करें जो उस के वफ़ादार गुलाम हों, सच्चे पक्के दीन दार बा शरअ मुत्तक़ी हो और अहले इल्म व फज़्ल हो मौलवियों आलिमों और मस्जिदों के इमाम हज़रात को ही क़ियादत सोंपी जाये, जहाँ तक शिरकत का तअल्लुक़ है तो कोई भी एक मुसलमान होने के नाते शरीक हो जाये तो यह कुछ हर्ज़ नहीं बल्कि जितने ज़्यादा लोग हो उतना ही बेहतर, गैर मुस्लिम भी अगर साथ में चलने लगें तो उन्हें मना न किया जाये, लेकिन काम सब इस्लामी हो कोई ग़ैर इस्लामी हरकत हर गिज़ न हो, और रह नुमाई क़ियादत और इम्तियाज़ी मक़ाम दीन दारों को हासिल होना चाहिए और दुनिया दार सियासी रह नुमा अगर आयें तो उन्हें एक अकीदत मन्द की हैसियत से शिरकत करना चाहिए क़ाइद बन कर नहीं।
*📬बारवीह शरीफ़ जल्से और जुलूस सफ़हा 76,77📚*
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