Monday, 22 March 2021
Sunday, 14 March 2021
🎊 रमज़ान का तोहफ़ा
🅿🄾🅂🅃 ➪ 01
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रमज़ान के रोज़े कब फ़र्ज़ हुए !? ❞*
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࿐ मदीने शरीफ़ में हिजरत के दूसरे साल शाबान के महीने में रमज़ान के रोज़े फ़र्ज़ किये गये।
࿐ मालूमात में इज़ाफ़े के लिये हमने यह बात लिख दी वैसे आम लोगों को इन बातों में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं लेना चाहिये कि कब क्या हुआ और क्यों हुआ और कैसे हुआ एक मुसलमान के लिये इतना जान लेना काफी है कि उसके लिये क्या जाइज़ है और क्या ना जाइज़ क्या हराम है और क्या हलाल क्या ज़रूरी है और क्या गैर ज़रूरी या कम ज़रूरी।
࿐ जो लोग नमाज़ रोज़े वगैरह के दीनी इस्लामी मसाइल हराम और हलाल जाइज़ और ना जाइज़ से तो दिलचस्पी नहीं रखते और न ही उन्हे सीखने की कोशिश करते हैं हर वक़्त इसी खोजबीन तलाश व जुस्तजू और पूछताछ में लगे रहते हैं कि यह कब हुआ? वह कब हुआ? यह क्यों हुआ? वह क्यों हुआ? यह कैसे हुआ? और वह कैसे हुआ? ऐसे लोग अक्सर गुमराह हो जाते हैं गुमराह व बद दीन आदमी की यह भी एक पहचान है कि वह दीनी इस्लामी एहकाम व मसाइल से दिलचस्पी न रखता हो तारीखी बातों और क्या? क्यों? कैसे? में हर वक़्त लगा रहता हो। करता कुछ न हो और पूछता ज्यादा हो इस्लामी मसाइल के मामले में कुरेद और बारीकियों में जाने से भी आम लोगों को बचना चाहिये।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 2-3 📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 02
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रमज़ान के रोज़े की अहमियत!? ❞*
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࿐ रमज़ान के रोज़े इस्लाम की पाँच बुनियादों में से एक बुनियाद और सबसे ज्यादा अहम व ज़रूरी अहकाम में से एक हुक्म है, जान बूझकर रमज़ान के रोज़े न रखने वाला सही मआना में मुसलमान नहीं है सिर्फ़ एक रोज़ा रखकर बे वजह तोड़ देने की दुनिया में सज़ा बदला जिसे कफ्फ़ारा कहते हैं वह यह है कि एक गुलाम आज़ाद करे या फिर साठ रोजे लगातार रखे या फिर साठ मिसकीनों को दोनो वक़्त का खाना खिलाये और तोबा करे *कुरआन करीम* में जगह जगह और सैकड़ो हदीसों में रमज़ान के रोज़ों का ज़िक्र मौजूद है अगर कोई शख़्स रमज़ान का सिर्फ़ एक रोज़ा जानबूझकर छोड़ दे और साल के 330 दिन रोजे रखे तो वह इसका बदला नहीं हो सकते जिसके फ़राइज़ पूरे न हों उसका कोई नफ़िल कबूल नहीं है!
࿐ रमज़ान में रोजे न रखना तो बहुत बड़ा गुनाह है और सख़्त हराम है लेकिन उनकी फ़र्जियत का इनकार करना यानि यह कहना कि यह कोई ज़रूरी काम नहीं है कुफ्र है और यह कहने वाला काफ़िर हो जाता है। ऐसे ही रोज़ों की या रोज़ेदारों की रोज़े की वजह से हंसी उड़ाने मज़ाक बनाने वाला भी मुसलमान नहीं रहता जैसे कुछ लोग कह देते हैं कि रोज़ा वह रखे जिसके घर खाने को न हो ऐसा कहने वाला इस्लाम से ख़ारिज हो जाता है ऐसे ही यह मिसाल देना कि नमाज़ पढ़ने गये थे रोज़े गले पड़ गये यह भी कल्मा-ए-कुफ्र है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 3-4 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रोज़े की हिक़मते!? ❞*
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࿐ रोज़े में दीनी उख़रवी फायदों के साथ दुनियवी फायदे भी बहुत ज़्यादा हैं गैर मुस्लिम दानिश मन्दों ने भी इस्लामी रोजों की तारीफ़ की है रोजे रखने से भूखे प्यासे रहने की और भूख प्यास को बर्दाश्त करने की आदत पड़ती है और यह इन्सानी ज़िन्दगी के लिये ज़रूरी है रोजे रखने से खाने पीने की क़द्र व कीमत मालूम होती है। सही बात यह है कि भरे पेट पर उम्दा गिज़ाएं वह लज़्ज़त नहीं देतीं जो भूखे और खाली पेट वाले को घटिया किस्म की गिज़ाओं में हासिल होती है एक गरीब रोज़ेदार को दिन भर रोज़ा रखकर शाम को एक गिलास पानी सादा सालन और रोटी के दो लुक्मों में जो मज़ा आता है वह अमीरों रईसों नवाबों बादशाहों को सैकड़ों तरह के खाने सजे दस्तरख्वानों पर नहीं आता है और यह *अल्लाह तआला* का फ़ज़ल है। वह जिस पर चाहता है फरमाता है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 4 📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 04
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रोज़े की हिक़मते!? ❞*
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࿐ एक बुजुर्ग से मनकूल है कि जब वह खाना खाते तो यह कहते या *अल्लाह तआला* तेरा शुक्र है तूने भूख अता फ़रमाई मुरीदों ने अर्ज किया कि भूख का शुक्र करते हैं खाने का शुक्र नहीं करते तो फ़रमाया अगर भूख न होती तो खाने में मज़ा न आता। रोज़ा रखने से इन्सान भूखा रहता है और उसे भूख और प्यास की परेशानी महसूस होती है तो भूखे लोगों को खिलाने का जज़्बा पैदा होता है रोज़ा रखने में डाक्टरी और तिब्बी फ़ायदे भी बहुत ज़्यादा हैं रोज़े और उनकी भूख बहुत सी बीमारियों को खत्म करती है जिस्म को साफ़ करती और निखारती है पेट की गन्दगी आलाइशों बीमारी के कीड़ों और जरासीम को जलाती है लेकिन सहरी व इफ़्तार के वक़्त ढूंसकर खाना खाने वाले या रात में बार बार खाने वाले रोज़े के तिब्बी और जिस्मानी फ़ायदे पूरे तौर पर नहीं पाते।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 5 📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 05
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*❝ ग्यारह महीने काम एक महीने आराम!? ❞*
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࿐ यह एक मशवरह है कोई शरअई हुक्म नहीं क्योकि बहुत से लोग रमज़ान में काम-धाम की वजह से या तो रोज़ा रख ही नहीं पाते या रखते हैं तो उन पर बहुत भारी पड़ता है इस लिये उलमा ने फ़रमाया है कि रमज़ान में उतना ही काम करे जो रोज़ा रखकर आसानी से कर सके लिहाज़ा ग्यारह महीने काम करे कमाये और हो सके तो रमज़ान में आराम और इतमिनान से रोजे रखें और इस माहे मुबारक को इबादत व तिलावत में गुजारें।
࿐ आजकल अक्सर लोग जो काम धंधे के लिये पागल से बने घूम रहे हैं यह पेट की दो रोटी और तन के दो कपड़ों के लिये नहीं बल्कि इन्होने अपने शौक अरमान और खर्च बढ़ा लिये हैं उनकी पूर्ति के लिये इन्हें रात दिन फुरस्त नही है आजकल ब्याह शादी रस्मो रिवाज खाने पीने ओढ़ने बिछोने घर मकान बनाने के कितने खर्चे तो वह हैं जो आदमी जरूरत की वजह से नही बल्कि शान शेखी दिखाने या यारो दोस्तों के कहने सुन्ने की वजह से करता है कि ऐसा नहीं करूंगा तो लोग क्या कहेंगे यह नहीं होगा तो क्या कहेंगे यह सब बड़े बेवकूफ होते है कि जो दूसरों के कहने में आकर या उनको दिखाने के लिये अपने आप को बर्बाद कर लेते हैं।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 5 📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 06
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ ग्यारह महीने काम एक महीने आराम!?❞*
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࿐ बहरहाल हमारा मशवरह हमारे भाईयों के लिये यही है कि ग्यारह महीने कमायें और रमज़ान का महीना नमाज़ और ज़िक्र शुक्र में गुज़ारें रमज़ान में जहाँ तक मुमकिन हो सफ़र से भी बचें।
࿐ और जो शख़्स रमज़ान में रोज़ा रखने वाले नौकर नौकरानियों या कोई अफसर अपने मातहत रोजेदार मुलाज़मीन के साथ नर्मी और आसानी का बर्ताव करे उनसे कम से कम काम ले या अल्लाह तौफीक वुसत और हिम्मत दे तो बे काम के तनख्वाह और उजरत दे दे तो ऐसा शख्स बड़े अजर का मुस्तहक है और साहिबे ईमान हो तो यकीनन वह जन्नत का हकदार है और उम्मीद है कि दुनिया में भी अल्लाह तआला उसको बहुत नवाज़ेगा।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 6 📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 07
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रोज़ा किसे कहते है!? ❞*
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࿐ पिछली उम्मतों में रोज़े रखने की मुख़्तलिफ़ शक्लें और सूरतें रही है लेकिन शरिअते मोहम्मदी में रौज़ा दिन में सुबह सादिक़ से लेकर सूरज डूबने के वक़्त तक खाने पीने पेट या दिमाग में कोई गिज़ा या दवा दाखिल करने सोहबत यानि हमबिस्तरी से खुद को रोकने का नाम है रोज़े में अल्लाह की इबादत की नियत करना भी ज़रूरी है यानि दिल से यह ख़्याल करना कि मेरा यह भूखा प्यासा रहना अल्लाह तआला की इबादत और उसको राज़ी करने के लिये है।
࿐ अगर कोई शख़्स पूरे एक दिन एक रात बेहोश या सोता रहा या उसको मजबूरन दिन में भूखा प्यासा रहना पड़ा या कोई चीज़ खाने पीने की मिल न सकी या किसी ने पांव बाधकर डाल दिया और बर बिनाये मजबूरी कुछ खा पी ना सका तो यह पेट में कुछ जाना भूखा प्यासा रहना रोज़ा नहीं कहलायेगा क्योंकि दिल में रोज़े और इबादत की नियत नहीं है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 6-7 📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 08
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रोज़ा किसे कहते है!? ❞*
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࿐ यहाँ यह भी जान लेना ज़रूरी है कि नियत नमाज़ की हो या रोज़े की वह दिल के इरादे का नाम है जुबान से कहना ज़रूरी नहीं है जुबान से कुछ भी न कहें सिर्फ़ दिल से इरादा कर ले कि मैं यह काम ख़ुदा की इबादत और रज़ा के लिये कर रहा हूँ तो काफी है इसी को नियत कहते हैं नमाज़ व रोज़े की नियत के जो अल्फाज़ व कलमात राइज़ है यह सब हुज़ूरﷺ आपके सहाबा व ताबिईन के ज़माने के बाद राइज़ हुये हैं और सिर्फ़ मुस्तहब और अच्छे हैं ज़रूरी नहीं है आजकल कुछ लोग जबान से अदा किये जाने वाले नियत के अल्फाज़ को फर्ज़ व वाजिब और ज़रूरी सा समझने लगे हैं और किसी लफज़ में कोई मामूली उलटफेर या तबदीली आ जाये तो तूफान खड़ा कर देते हैं यह सब अनपढ़ और ना समझ लोग होते हैं यह नहीं जानते कि मामूली अल्फ़ाज़ की तबदीली या उलटफेर तो अपनी जगह नमाज़ रोज़े वगैरह की नियत में अगर जबान से कुछ भी न कहे तब भी कोई हर्ज़ नहीं है। हा जो लोग जबान से नियत के अल्फ़ाज़ अदा करने के बिल्कुल क़ाइल ही नहीं इसे ना जाइज़ हराम व बिद्अत कहते हैं वह भी जिहालत में मुब्तिला हैं ज़बान से नियत के अल्फाज़ अदा करना जमाना-ए-रिसालत मआबﷺ में अगरचिह राइज न हो लेकिन साबित ज़रूर है इनको समझाने के लिये हम सिर्फ़ एक कुरआन की आयत और कुछ हदीसे रसूलﷺ लिख देते हैं। कुरआन करीम में है।
࿐ तुम ज़बान में कहो कि मेरी नमाज़ और हर किस्म की इबादते और मेरा मरना मेरा जीना सब अल्लाह तआला के लिये जो सारे जहानों का रब है।
📗पारा न. 8
࿐ यानि जो काम अल्लाह तआला की रज़ा और उसकी इबादत के तौर पर किया जाये उसका इज़हार ज़बान से भी किया जा सकता है कि हम यह काम अल्लाह तआला के लिये कर रहे हैं।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 7 📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 09
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रोज़ा किसे कहते है!? ❞*
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࿐ हदीसे पाक में है कि एक सहाबी-ए-रसूल हज़रत सय्यदना सअद बिन उबादह रदिअल्लाहु तआला अन्हु की माँ का इन्तिक़ाल हुआ तो उन्होने हुज़ूरﷺ से दरयाफ्त किया कि मेरी माँ का इन्तिक़ाल हुआ है उनकी रूह सवाब पहुँचाने के लिये कौन सा सदका बेहतर है हुज़ूरﷺ ने फरमाया "पानी बेहतर है" तो उन्होंने एक कुँआ खुदवा दिया और उसके पास खड़े होकर ज़बान से यह अल्फाज़ कहे।
࿐ यह मेरी माँ के लिये है।, यानि इससे जो लोग फायदा उठाये उसका सबाब मेरी माँ को पहुँचता रहे।
📗मिस्कात सफा 169
࿐ तो बात साफ है कि जुबान से नियत के अल्फाज़ अदा करना अगर ना जाइज़ होता तो हज़रत सअद कुँए के पास खड़े होकर मुंह से यह न कहते कि "यह कुआँ मेरी माँ के लिये है। क्योंकि कुआँ माँ के ईसाले सवाब की नियत ही से खुदवाया था पता चला कि किसी कारे ख़ैर के करने के लिये दिल के इरादे के साथ जुबान से कह लेने में भी कोई हर्ज़ नहीं है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 7-8 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रोज़ा किसे कहते है!? ❞*
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࿐ इसके अलावा एक और हदीसे पाक मे है। रसूले पाकﷺ ने कुर्बानी के दो मेण्डे सींग वाले चितकबरे खस्सीं किये हुये ज़िबह किये और ज़िबह के वक़्त कुर्बानी और ज़िबह की दुआ पड़ने के बाद फ़रमाया।
࿐ यह मेरी तरफ़ से और मेरी उम्मत के उन लोगों की तरफ़ से जिन्होंने कुर्बानी नहीं की
📗मिस्कात सफा 128
࿐ अल्लाह ताला दिल के इरादों से खूब वाकिफ हैं इसके बावजूद सरकारﷺ को ज़बान से यह फरमाना कि यह कुर्बानी मेरी और मेरी उम्मत के उन लोगों की तरफ़ से है जो कुर्बानी न कर सकें इससे साफ पता चला है कि किसी न किसी शक्ल में ज़बान से अल्फ़ाज़े नियत की अदायगी पैगम्बरे इस्लाम और आपके सहाबा से साबित है फिर इसकी एक दम बिदअत और नाजाइज़ कह देना मज़हब से नावाकिफी है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 7-8 📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 11
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रमज़ान के रोज़े किस पर फर्ज़ है!? ❞*
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࿐ हर मुसलमान मर्द औरत जो समझदार और बालिग हो उस पर रमज़ान के रोज़े फर्ज है नाबालिग बच्चे और पागल पर रोज़े फर्ज नही हैं। औरतों को उनके महावारी के दिनों में रोज़े रखने की इजाज़त नहीं है, रमज़ान के बाद इन रोज़ों की कज़ा करे जो कमज़ोर औरत हमल यानि पेट से हो या बच्चे को दूध पिलाती हो और रोज़े रखने की वजह से अपनी या बच्चे की जान जाने या सख्त बीमारी का खतरा महसूस करे वह रोज़े कज़ा कर सकती है यूं ही हर बीमार और कमज़ोर आदमी रमज़ान के रोज़े रखने की वजह से बीमारी खतरनाक होने या जान जाने का सही गुमान करे उसको भी रोज़ा कज़ा करने की इजाज़त है।
࿐ जो शख़्स शरअन मुसाफ़िर है उसको कुरआन व हदीस में रमज़ान के रोज़े न रखने की इजाज़त दी गई है लेकिन सफ़र में अगर आराम हो कोई ख़ास परेशानी न हो तो रोज़ा रख लेना ही बेहतर है हाँ अगर न रखे तब भी वह गुनाहगार नहीं है जबकि रमज़ान के बाद कज़ा कर ले।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 9-10 📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 12
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रमज़ान के रोज़े किस पर फर्ज़ है!? ❞*
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࿐ जो शख़्स बुढ़ापे की वजह से इतना कमज़ोर हो गया कि उसमें रोज़ा रखने की ताक़त नहीं और आइंदा सही होने की भी कोई उम्मीद नहीं उस पर रोज़े माफ हैं। लेकिन हर रोज़े के बदले फ़िदया देना उस पर वाजिब है। और फिदया यह है कि हर रोज़े के बदले एक मोहताज को दोनों वक़्त पेट भरकर खाना खिलायें या हर रोज़े के बदले सदक़ा-ए-फ़ितर के बराबर गल्ला या रूपया ख़ैरात करे। जो ज़्यादा सही तहकीक़ के मुताबिक तकरीबन 2 किलो 45 ग्राम गेहूँ है। आजकल सही मआनि में ज़रूरत मन्द मोहताज व मिसकीन नही मिलते आम तौर पर पेशावर फ़कीर हैं उनमें भी ज़्यादातर बे नमाज़ी फ़ासिक व बदकार, गुन्डे लफंगे जुआरी और शराबी तक हैं लेहाज़ा दीनी मदरसों के तलबा और ज़रूरतमन्द मुस्तहक़ मस्जिदों के इमामों मोअज़्ज़िनों को इस क़िस्म की रक़में या गल्ले दे दिये जायें तो ज़्यादा बेहतर है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 9-10 📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 13
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रमज़ान के रोज़े किस पर फर्ज़ है!? ❞*
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࿐ वह औरतें जिनके शौहर इन्तिक़ाल कर गये और उन्होने दूसरा निकाह भी न किया ऐसे ही वह घर जिनमें एक ही कमाने वाला था वह भी बीमार हो गया इस क़िस्म के लोग अगर साहिबे जायेदाद न हों सदक़ात व ख़ैरात ज़कात के मुस्तहक़ हों ऐसों को तलाश करके देना चाहिये पेशावर और मांगने वालों से ऐसे ज़रूरतमन्दों को देना ज़्यादा सवाब का काम है। और उन लोगों को भी लेने में शर्म नही करना चाहिये आजकल कुछ लोगों को देखा कि वह बेईमानी ख़यानत और कर्ज़ व उधार लेकर न देने के आदी हैं लेकिन अगर कोई ज़कात सदक़ा ख़ैरात या फिदये की रक़म दे तो इस को लेने में अपनी तौहीन समझते हैं, यह उसकी भूल है।
࿐ अगर कोई शख़्स ज़कात, फ़ितरह, सदक़ा वगैरह व ख़ैरात का मुस्तहक़ और ज़रूरत मन्द हो लेकिन लेने में शर्म महसूस करे तो उसको बताया न जाये कि यह ज़कात ख़ैरात है हदिया या तोहफ़ा नियोता वगैरह जिस नाम से चाहे देदे आपकी ज़कात, फ़िदया, क़फ्फारा अदा हो जाएंगे।
࿐ और जिस बूढ़े के तन्दुरुस्त होने की उम्मीद न हो और साथ ही ग़रीब व नादार फिदया देने पर क़ुदरत न रखता हो उस को चाहिए कि तौबा व इस्तिग़फ़ार करता रहे उसके लिए रोज़े माफ़ हैं।...✍🏻
📗ख़ज़ाइनुल इरफ़ान
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 9-10 📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 14
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ किन चीज़ो से रोज़ा टूटता है और किन से नहीं!? ❞*
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࿐ खाने पीने मर्द औरत के सोहबत करने से रोज़ा टूट जाता है और अगर रोज़ेदार होना याद न हो भूल और धोके में यह काम हुए तो रोज़ा नही टूटता, बीड़ी सिगरेट हुक्का सिगार पीने पान तम्बाकू, सुरती, गुटखा खाने से भी रोज़ा टूट जाता है पान की पीक थूक दी फिर भी रोज़ा न रहा कान में तेल या दवा डालने से भी रोज़ा टूट जाता है। पानी अगर कान में पहुंच जाये तो रोज़ा नही टूटता। लोबान, अगरबत्ती वगैरह का धुंआ नाक या मुंह में चला जाये इस से भी रोज़ा नही टूटता। औरत को सिर्फ छूने छेड़ने से रोज़ा नही टूटता हां अगर इन्जाल हो गया यानि मनी निकल गयी तो रोज़ा जाता रहा। रोजे की हालत में सोया और एहतलाम हो गया तो रोज़ा नही टूटेगा। रोजे में बहालते मजबूरी इन्जकशन लगवाया जा सकता है ख्वाह रग मे लगे या गोश्त मे बर बिनाये मजबूरी गलूकोज़ वगैरह की बोतले भी चढ़ाई जा सकती है लेकिन जहां तक मुमकिन हो इस से बचना बेहतर है। उल्टी कैय अगर खुद से हो इस से रोज़ा नही टूटता हां अगर जानबूझकर कसदन कैय की तो अगर मुंह भरकर हो तो रोज़ा टूट जायेगा।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 11 📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 15
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ किन चीज़ो से रोज़ा टूटता है और किन से नहीं!? ❞*
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࿐ मिसवाक करने खुशबू सूंघने, आंख में सुर्मा लगाने या दवा डालने सर या बदन पर तेल या बाम मलने से रोज़ा नही टूटता किरीम या पावडर वैसलीन या मेहंदी लगाने से भी रोज़ा नही टूटता दांतो मे मंजन मलने या ब्रुश करने से बचना चाहिये अगर किया और पेट और हलक में कोई चीज़ न गई तो रोज़ा नही जायेगा लेकिन एहतियात मुश्किल है इस
लिये बचना ज़रूरी है।
࿐ रात में यानि जिन औकात मे रोज़ेदारों के लिये खाना पीना जाईज है इन औकात में मियां बीवी का हम बिस्तर होना और सोहबत करना भी जाईज़ है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 11 📚*
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🅿🄾🅂🅃 ➪ 16
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रोज़े के मकरूहात!? ❞*
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࿐ मकरूह का मअना व मतलब वह काम है कि जिनके करने से रोज़ा तो नही टूटता लेकिन सवाब में कमी होती है। और बार बार ऐसा करने से गुनाहगार और अज़ाब का हक़दार होता है।
࿐ झूट, बदी, गीबत, चुगली खाना, गाली देना, बेहूदा बाते करना यह सब काम नाजाईज़ गुनाह हैं, रोज़े में और ज़्यादा गुनाह हैं इनसे रोज़ा मकरूह हो जाता है और उसका नूर जाता रहता है।
࿐ बे ज़रूरत किसी चीज़ को चखा या चबाया और थूक दिया हलक, घांटी में इसका कोई हिस्सा न गया तो ऐसा करना रोज़े में मकरूह है। और अगर कुछ हिस्सा गले में उतर गया तो रोज़ा न रहा।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 12 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रोज़े के मकरूहात!? ❞*
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࿐ खाना पकाने वाली औरत अगर उसका शौहर या मालिक बद मिज़ाज और ज़ालिम है तो वह नमक चख सकती है जब कि वह फौरन थूक दे। कोई ऐसी चीज़ खरीदी कि बगैर चखे खरीदने से नुक़्सान हो सकता है तो चख कर देख सकता है फौरन थूक देना यहां भी ज़रूरी है।
࿐ बीवी को चूमना, छूना, गले लगाना रोज़े मे मकरूह है जबकि यह ख़तरा हो कि ऐसा करने से बे काबू हो जायेगा और अपने ऊपर कंट्रोल नहीं कर सकेगा और हम बिस्तरी कर बैठेगा और यह खतरा न हो और अपने ऊपर पूरा भरोसा हो तो चूमना छूना लिपटना जाईज़ है। मगर अपने नफ़्स पर भरोसा करना नही चाहिये। शैतान इंसान का खुला दुश्मन है और हर वक़्त साथ लगा है।
࿐ ऐसी ख़ुशबू जिसमें धुंआ न हो इस को सूंघने से रोज़ा मकरूह नही होता। धुएँदार ख़ुशबू भी अगर नाक में आ जाये तो इसमें कोई हर्ज नहीं हां खूब जोर लगाकर करीब से कसदन जानबूझकर इतना सूंघना कि धुंआ हलक या दिमाग में पहुंच जाये रोज़े को तोड़ देता है।
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 12 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रोजा़ के तालुक से कुछ जरूरी मसाइल ❞*
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࿐ *मसअला* - भूल कर खाने पीने या जिमआ करने से रोज़ा नहीं टूटेगा।
*📕 बहारे शरीअत,हिस्सा 5,सफह 112*
࿐ *मसअला* - बिला कस्द हलक में मक्खी धुआं गर्दो गुबार कुछ भी गया रोज़ा नहीं टूटेगा।
*📙 बहारे शरीअत,हिस्सा 5,सफह 112*
࿐ *मसअला* - बाल या दाढ़ी में तेल लगाने से या सुरमा लगाने से या खुशबू सूंघने से रोज़ा नहीं टूटता अगर चे सुरमे का रंग थूक में दिखाई भी दे तब भी नहीं।
*📗 बहारे शरीअत,हिस्सा 5,सफह 113*
࿐ *मसअला* - कान में पानी जाने से तो रोज़ा नहीं टूटा मगर तेल चला गया या जानबूझकर डाला तो टूट जायेगा।
*📘 बहारे शरीअत,हिस्सा 5,सफह 117*
࿐ *मसअला* - एहतेलाम यानि नाइट फाल हुआ तो रोज़ा नहीं टूटा मगर बीवी को चूमा और इंजाल हो गया तो रोज़ा टूट गया युंहि हाथ से मनी निकालने से भी रोज़ा टूट जायेगा।
*📔 बहारे शरीअत,हिस्सा 5,सफह 117*
࿐ *मसअला* - तिल या तिल के बराबर कोई भी चीज़ चबाकर निगल गया और मज़ा हलक में महसूस ना हुआ तो रोज़ा नहीं टूटा और अगर मज़ा महसूस हुआ या बगैर चबाये निगल गया तो टूट गया और अब क़ज़ा के साथ कफ्फारह भी वाजिब है।
*📕 बहारे शरीअत,हिस्सा 5,सफह 114,122*
࿐ *मसअला* - आंसू मुंह में गया और हलक़ से उतर गया तो अगर 1-2 क़तरे हैं तो रोज़ा ना गया लेकिन पूरे मुंह में नमकीनी महसूस हुई तो टूट गया।..✍️
*📓 बहारे शरीअत,हिस्सा 5,सफह 117*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रोजा़ के तालुक से कुछ जरूरी मसाइल ❞*
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࿐ *मसअला* - बिला इख्तियार उलटी हो गयी तो चाहे मुंह भरकर ही क्यों ना हो रोज़ा नहीं टूटेगा।
*📓 बहारे शरीअत,हिस्सा 5,सफह 121*
࿐ *मसअला* - कुल्ली करने में पानी हलक़ से नीचे उतरा या नाक से पानी चढ़ाने में दिमाग तक पहुंच गया अगर रोज़ा होना याद था तो टूट गया वरना नहीं।
*📔 बहारे शरीअत,हिस्सा 5,सफह 117*
࿐ *मसअला* - पान,तम्बाकू,सिगरेट,बीड़ी,हुक्का खाने पीने से रोज़ा टूट जायेगा।
*📗 बहारे शरीअत,हिस्सा 5,सफह 116*
࿐ *मसअला* - जानबूझकर अगरबत्ती का धुआं खींचा या नाक से दवा चढ़ाई या कसदन कुछ भी निगल गया तो रोज़ा टूट गया।
*📘 बहारे शरीअत,हिस्सा 5,सफह 113,114,117*
࿐ *मसअला* - इंजेक्शन चाहे गोश्त में लगे या नस में रोज़ा नहीं टूटेगा मगर उसमें अलकोहल होता है इसलिए जितना हो सके बचा जाये।...✍️
*📓 फतावा अफज़लुल मदारिस,सफह 88*
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✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रोजा़ के तालुक से कुछ जरूरी मसाइल ❞*
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࿐ *मसअला* - पूरा दिन नापाक रहने से रोज़ा नहीं जाता मगर जानबूझकर 1 वक़्त की नमाज़ खो देना हराम है।
*📘 बहारे शरीअत,हिस्सा 5,सफह 113*
࿐ *मसअला* झूट,चुगली,ग़ीबत,गाली गलौच,बद नज़री व दीगर गुनाह के कामों से रोज़ा मकरूह होता है लेकिन टूटेगा नहीं।
*📙 जन्नती ज़ेवर,सफह 264*
࿐ *मसअला* - रोज़ा तोड़ने का कफ्फारह उस वक़्त है जबकि नियत रात से की हो अगर सूरज निकलने के बाद नियत की तो सिर्फ क़ज़ा है कफ्फारह नहीं।
*📕 बहारे शरीअत,हिस्सा 5,सफह 120*
࿐ *मसअला* - कफ्फारये रोज़ा ये है कि लगातार 60 रोज़े रखे बीच में अगर 1 भी छूटा तो फिर 60 रखना पड़ेगा या 60 मिस्कीन को दोनों वक़्त पेट भर खाना खिलाये या 1 ही फकीर को दोनों वक़्त 60 दिन तक खाना खिलाये या इसके बराबर रक़म सदक़ा करे।...✍️
*📓 बहारे शरीअत,हिस्सा 5,सफह 123
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✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ रोजा़ के तालुक से कुछ जरूरी मसाइल ❞*
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࿐ *मसअला* - मुबालग़े के साथ इस्तिंजा किया और हकना रखने की जगह तक पानी पहुंच गया रोज़ा टूट गया।
*📓 बहारे शरीयत,हिस्सा 5,सफह 116*
࿐ पाखाने के सुर्ख मक़ाम तक पानी पहुंचा तो रोज़ा टूट जायेगा लिहाज़ा बड़ा इस्तिंजा करने में इस बात का ख्याल रखें कि फ़ारिग होने के बाद जब मक़ाम धुलना हो तो चंद सिकंड के लिये सांस को रोक लिया जाये ताकि मक़ाम बंद हो जाये अब जल्दी जल्दी धोकर पानी पूरी तरह से पोंछ लिया जाये क्योंकि अगर पानी के क़तरे वहां रह गये और खड़े होने में वो क़तरे अंदर चले गये तो रोज़ा टूट जायेगा,इसीलिए आलाहज़रत अज़ीमुल बरकत रज़ियल्लाहु तआला अन्हु फरमाते हैं कि रमज़ान भर बैतुल खला एक कपड़ा साथ लेकर जायें जिससे कि आज़ा के पानी को खड़े होने से पहले सुखा सकें।
࿐ *मसअला* - औरत का बोसा लिया मगर इंज़ाल ना हुआ तो रोज़ा नहीं टूटा युंही अगर औरत सामने हैं और जिमअ के ख्याल से ही इंज़ाल हो गया तब भी रोज़ा नहीं टूटा।
*📘 बहारे शरीयत,हिस्सा 5,सफह 113*
࿐ *मसअला* - औरत ने मर्द को छुआ और मर्द को इंज़ाल हो गया रोज़ा ना टूटा और मर्द ने औरत को कपड़े के ऊपर से छुआ और उसके बदन की गर्मी महसूस ना हुई तो अगर इंज़ाल हो भी गया तब भी रोज़ा ना टूटा।
*📕 बहारे शरीयत,हिस्सा 5,सफह 117*
࿐ *मसअला* - औरत ने मर्द को सोहबत करने पर मजबूर किया तो औरत पर क़ज़ा के साथ कफ्फारह भी वाजिब है मर्द पर सिर्फ क़ज़ा।..✍️
*📓 बहारे शरीयत,हिस्सा 5,सफह 122*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ तराहवीह की नमाज़ के मुताल्लिक़ कुछ ज़रूरी बातें!? ❞*
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࿐ रमज़ान की रातों में बीस रकअत तरवीह की नमाज़ इशा के फर्ज़ो के बाद मर्दो और औरतों के लिये सुन्नते मोअक्कदा है जो छोड़ने की आदत डाले वह गुनाहगार है कभी कभार छूट जाने में गुनाह नहीं और उसकी जमाअत सुन्नते किफ़ाया है अगर सब लोग घरों में पढ़ें मस्जिद में जमाअत ही न हो तो सब गुनाहगार होंगे और अक्सर लोग मस्जिद में जमाअत से अदा करें और कोई शख्स घर में पढ़े तो वह गुनाहगार नही लेकिन पांचो वक़्त फजर व ज़ोहर असर व मग़रिब व इशा की नमाज़ की अदायगी मज़हबे इस्लाम में सबसे अहम फ़रीज़ा है। एक वक़्त की नमाज़ छोड़ना भी बड़ा हराम है और वे वजह जमाअत छोड़ने की आदत भी गुनाहे कबीरा व हराम है।
࿐ कुछ लोग कहते हैं कि तरावीह पढ़ें तो पूरी रोज़ाना महीने भर या फिर किसी दिन न पढ़ें और पाबन्दी न कर पाने की वजह से बिल्कुल नही पढ़ते तो या उनकी ग़लत फहमी नादानी और जिहालत है सही बात यह है कि जिस दिन पढ़ी जायेगी उस दिन का सवाब मिलेगा और जिस दिन नहीं पढ़ी उस दिन का सवाब नही मिलेगा और बे मज़बूरी छोड़ने की आदत डाले तो गुनाहगार होगा!
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ तिलवतें क़ुरआन औऱ तराहवीह !? ❞*
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࿐ माहे रमजान का तिलावते कुरआने अजीम से बड़ा गहरा रब्ल है। कुरआने अज़ीम माहे रमज़ान में नाज़िल हुआ जैसा कि अल्लाह तआला का फरमाने ज़ीशान है : “ इस तरह रमजान गोया नुजूले कुरआन की सालगिरह का महीना है। इस माहे मुबारक में खुद सैय्यदे आलम और महीनों के मुकाबले में कुरआने पाक की तिलावत ज़्यादा फरमाते थे और हज़रत जिब्राईल हुजूर " को कुरआन सुनाते भी थे और कुरआन सुनते भी थे। अंबियाए किराम पर नुजूले वही के आगाज़ से पहले रोजे का हुक्म दिया जाता था।
࿐ कुछ लोग रमज़ान में शुरू के चन्द दिनों में हाफ़िज़ से तरावीह में पूरा कुरआन सुन लेते हैं और फिर बाकी दिनो तरावीह के वक़्त आज़ाद घूमते हैं यह एक ग़लत तरीक़ा और रिवाज है उन पर बाकी दिनों की तरावीह छोड़ने का वबाल रहेगा तरावीह में सिर्फ़ कुरआन सुनना पढ़ना ही सुन्नत नहीं बल्कि पूरे महीने तरावीह पढ़ना भी सुन्नत है और कई कई पारे एक दिन में पढ़कर चन्द दिनों में कुरआन ख़त्म कर देना भी मुनासिब नहीं बेहतर और मुनासिब तरीक़ा यही है कि एक पारे से कुछ ज़्यादा रोज़ाना पढ़ते रहें और सत्ताईसवीं शव में कुरआन ख़त्म करें। इसी में हिकमत मसलेहत है और यही साहाबा-ए-किराम से मरवी है।
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✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ नमाज़ मे ज़्यादा लम्बी क़िरअत मकरूह है!? ❞*
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࿐ नमाज़ में इतनी लम्बी किरत कि आम नमाज़ी रंजीदा परेशान हो पसंदीदा नही है बल्कि मकरूह व ममनूउ है। बुखारी व मुस्लिम की हदीस पाक में है कि सहाबी-ए-रसूल हज़रत मुआज़ बिन जबल रदिअल्लाहु तआला अन्हु अपनी क़ौम को नमाज़ पढ़ाते इशा की नमाज़ में सूरह बकर तिलावत की कुछ लोगो ने हुज़ूरﷺ से शिकायत की तो हुज़ूरﷺ नाराज़ हो गये और फ़रमाया! ऐ माअज़ क्या तुम लोगों को आज़माईश में डालते हो!?
*📗मिशकात बाबुल क़िरत सफ़हा 179*
࿐ इसके अलावा बुखारी व मुस्लिम की ही दूसरी हदीस में है। हुज़ूर सल्लललाहु अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया।जब तुम में से कोई शख़्स लोगों को नमाज़ पढ़ाये तो हल्की पढ़ाये क्योंकि उनमें कमजोर बीमार और बूढ़े लोग भी है और जब अकेला पढ़े तो चाहे जितनी लम्बी पढ़े।
*📗मिशकात बाबुल इमामत सफ़हा 101 बुखारी ज़िल्द1 सफ़हा 97*
࿐ और इस्लामी मिज़ाज यही है कि नमाज़ की जमाअत हो या कोई ज़िक्र की महफ़िल और मजलिस जो काम आम लोगो को शामिल करके किया जाये उसमें इख़्तिसार महबूब व पसंदीदा है। दीन के नाम पर ज़्यादा देर तक लोगों को रोकना उन्हे उलझन व परेशानी व आज़माईश में डालना हरगिज़ मुनासिव नही है और उनकी इस्लामी दीनी मुहब्बत का गलत इस्तेमाल है।
࿐ हां अगर अकेले हो तो रात दिन हर वक़्त ज़िक्र व शुक्र करें नअते नज़्में पढ़े तो कोई हर्ज नहीं है। मगर आज इस का उल्टा हो गया है। अब अकेले में ज़िक्रे ख़ुदा तआला हुज़ूरﷺ पर दुरूद या आपकी नअत पाक पढ़ने वाले तो न होने के बराबर हैं। पब्लिक के सामने सारी-सारी रात पढ़ने और बोलने वालों की ताअदाद बहुत बढ़ गई है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 14 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ नमाज़ मे ज़्यादा लम्बी क़िरअत मकरूह है!? ❞*
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࿐ हदीस मे है हुज़ूर नबी-ए-करीम सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम ने फ़रमाया। एक ऐसा ज़माना आयेगा जिसमें खतीब व मुक़र्रर ज्यादा होंगे और इल्म वाले कम होंगे। (मिनहाज उल आबेदीन" ईमाम ग़ज़ाली) और सय्यदना इमाम हसन बसरी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं। जो शख़्स रमज़ान में तरावीह की नमाज़ में इमामत करे वह मुक्तदियों पर आसानी करे। ऐसे ही हदीस की एक मशहूर किताब मुसन्नफ अब्दुल रज़्जाक में है।
࿐ हज़रत उमर फारूके आज़म रदिअल्लाहु तआला अन्हु रमज़ान में तीन क़ारी नमाज़ पढ़ाने के लिये मुक़र्रर फ़रमाते जो सबसे तेज़ क़िरत करने वाला होता उस को एक रकअत में तीस आयतें पढ़ने का हुक्म देते दरमियानी क़िरत करने वाले को पच्चीस आयतें और आहिस्ता आहिस्ता ठहर-ठहर कर पढ़ने वाले को सिर्फ़ 20 आयते पढ़ने का हुक्म देते।
*📗शरह सही मुस्लिमशमौलाना गुलाम रसूल सईदी ज़िल्द 2 सफ़हा501*
࿐ यह उस ज़माने की बातें हैं कि जब लोग ज़िक्र व तिलावत नमाज़ व इबादत को जान व माल बीवी बच्चों से कहीं ज़्यादा अच्छा समझते थे आज की दुनिया में पब्लिक को जमा करके तरावीह की नमाज़ में एक एक दिन में कई कई पारे पढ़ना जलसो महफ़िलों में सारी सारी रात जगाना नियाज़ो फातहाओं में घन्टों बैठाना कौम को जोड़ना नही बल्कि तोड़ना है और लोगों को दीन से करीब लाना नहीं बल्कि दूर करना है खुदाये तआला समझ अता फ़रमाये।..✍🏻 आमीन
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 15 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ नमाज़ मे ज़्यादा लम्बी क़िरअत मकरूह है!? ❞*
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࿐ और जो इमाम व हाफिज़ ज़्यादा ज़्यादा कुरआन पढ़ने के लिये ज़ल्दी ज़ल्दी में सही तौर पर मख़ारिज की अदायगी नहीं कर पाते या कुछ हुरूफ व कलमात या ज़ेर ज़बर पेश की हरकात छोड़ जाते हैं वह खुद भी बड़े गुनाहगार होते हैं और दूसरों को भी करते हैं और बजाये सवाब के अज़ाब पाते हैं और दूसरों के लिये अज़ाब बनते हैं।
࿐ और बहुत ज़ल्दी ज़ल्दी तेजी के साथ ग़लत सलत कुरआने करीम पढ़ने वाले या फ़ासिक़ व फ़ाजिर वे नमाज़ी, आवारा मिज़ाज, आज़ाद ख़्याल हाफिज़ के पीछे तरावीह की नमाज़ अदा करने और कुरआन सुनने से बेहतर है कि सही तिलावत करने वाले दीनदार के पीछे तीसवें पारे की आख़री दस सूरतों से नमाज़ अदा कर ली जाये जैसा कि बहुत सी जगह इसका रिवाज़ है।
࿐ हर रकअत में “कुलहोवल्लाह" शरीफ़ की तिलावत करके भी तरावीह की नमाज़ अदा करना मारूफ है और जाइज़ है। जैसा के फतावा आलगीरी मे है
࿐ इसी में है और हमारे ज़माने मे अफ़ज़ल यह है कि क़िरत इतनी ही पढ़ी जाये कि जिस से लोग जमाअत से घबरा न जायें क्योंकि जमाअत में ज़्यादा लोगों का शरीक होना लम्बी किरत से बेहतर है और इमाम को चाहिये कि जब ख़त्म का इरादा करे तो सत्ताईसवीं शब में ख़त्म करे कुरआन के ख़त्म में ज़ल्दी करके इक्कीसवीं तारीख़ या इससे पहले ख़त्म करना मकरूह है।...✍🏻
*📗फ़तावा आलमगीरी जिल्द अव्वल सफ़हा 118*
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✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ नमाज़ मे ज़्यादा लम्बी क़िरअत मकरूह है!? ❞*
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࿐ हाँ अगर सही तौर पर कुरआन की तिलावत करने वाला इमामत का अहल हाफिज़े कुरआन दस्तयाब हो तो एक बार पूरे रमज़ान में तरावीह की नमाज़ में ख़त्मे कुरआन सुन्नत है बगैर किसी ख़ास शरअई वजह के सिर्फ आराम तलबी की वजह से इस को छोड़ना सही नहीं है। आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा अलैहिर्रहमा बरेलवी फरमाते हैं। कौम की सुस्ती की वजह से एक कुरआने अज़ीम का ख़त्म नहीं छोड़ा जायेगा क्योंकि यह सुन्नत है और जो इस से ज़ाईद है वह छोड़ दिया जायेगा क्योंकि यह फ़ितना है।
*📗फतावा रज़विया जिल्द 7 सफहा 468मतबुआ लाहौर*
࿐ तरावीह की नमाज़ की कज़ा नहीं है। अगर किसी दिन की तरावीह रह गई तो दूसरे दिन उस की कज़ा नही की जा सकती हां तरावीह का वक़्त इशा की नमाज़ के बाद से लेकर सुबह सादिक़ तक है यानि सहरी के वक़्त ख़त्म होने से पहले जब भी पढ़े वह अदा है कज़ा नहीं।
࿐ जिसने फर्ज़ जमाअत से न पढ़े हों वह वितर की जमाअत में शरीक न हो तनहा पढ़े । हा तरावीह की जमाअत में शरीक हो सकता है।
࿐ हज़रत मौलाना मुफ्ती अजमल शाह साहब सम्भली रहमतुल्लाह तआला अलैह लिखते हैं। जिस मस्जिद में नीचे सेहन न हो, या कम हो और गर्मी या गर्मी के मौसम में नीचे सख़्त गर्मी मालूम होती हो और छत पर ऐसी चहार दीवारी हो जिससे किसी मकान की बेपर्दगी न होती हो तो उस ज़रूरत की बिना पर गर्मी के औक़ात में मस्जिद की छत पर नमाज़ पढ़ी जा सकती है।...✍🏻
*📗फतावा अजमलिया,जिल्द 2, सफहा 395*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ शबीना!? ❞*
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࿐ रमज़ान की किसी रात में नफ़्ल नमाज़ जमाअत से अदा करते है । और उस में एक या चँद हाफिज़ों से पूरा कुरआन सुनते हैं इस को शबीना कहते है। आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खाँ अलहिर्रहमा बरेलवी ने इसको मकरूह लिखा है और इस की इजाज़त नहीं दी है।
*📗फतावा रज़विया जिल्द नंबर 7 सफ़हा 72 मतबुआ रजा फाउंडेशन लाहौर*
࿐ मकरूह होने की वजह यह है कि जमाअत की जाती है और लोगों को शामिल करके पूरा कुरआन पढ़ा जाता है और आम तौर पर लोग इसे बोझ समझते हैं और शरमा शरमी में शरीक रहते हैं।
࿐ सदरउश्शरिया हज़रत मौलाना अमजद अली अलहिर्रहमा फरमाते हैं । आम तौर पर इस ज़माने में जो शबीना पढ़ा जाता है कि एक रात में पूरा कुरआन पढ़ा जाता है इस पढ़ने की नौअियत ( तरीका ) , ऐसी होती है कि जल्दबाजी मे हुरूफ़ तो हुरुफ़ अल्फ़ाज तक खा जाते हैं।
࿐ कुरआने करीम को सही तौर पर नही पढ़ते और सामआीन ( सुन्ने वाले ) में कोई लेटा है कोई चाय पी रहा है कुछ ऐसी ही हालत होती है जिसकी वजह से उलमा ने शबीना नाजाईज होने का हुक्म दिया है।
*📗फतावा अमजदिया जिल्द 1 सफ़हा 340*
࿐ हां अगर कोई साहब अकेले नमाज़ या बगैरे नमाज़ के एक रात में एक या इस से भी ज्यादा कुरआन की तिलावत करें तो कुछ गुनाह नहीं लेकिन जमाअत में ज्यादा लम्बी किरत की इजाज़त नहीं।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 17-18 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ सहरी व इफ़तार के मुताल्लिक़ बातें!? ❞*
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࿐ सहरी खाना और रोज़े की इफ़्तार करना सुन्नत है और इनमे बड़ा सवाब ख़ैर व बरकत और अल्लाह तआला की रहमत है। सहरी में ताख़ीर और इफ्तार में ज़ल्दी करना सुन्नत है लेकिन ऐसी ताख़ीर या ज़ल्दी न की जाये कि रोज़े में शक पैदा हो जाये।
࿐ खजूर या फिर छुआरे से इफ़तार करने में सबसे ज़्यादा सवाब है यह न हो तो पानी बेहतर है सहरी खाना और इफ़तार करना सुन्नत है अगर कोई शख़्स सहरी न खाये इफ्तार भी न करे ऐसे ही रोज़े रख ले तब भी रोज़ा हो जायेगा लेकिन इस को सुन्नत का सवाब नहीं मिलेगा सफ़र वगैरह मे देखा गया है कि कुछ लोग इफ़तार के वक़्त खाने पीने की चीज़ हासिल करने के लिये दौड़ते भागते और परेशान से नज़र आते हैं और इनके अमल से ऐसा महसूस होता है कि वह समझते हैं अगर इफ़तार न कर सके या इफ़तार मे ताख़ीर हो गई हो तो रोज़ा न होगा हालांकि ऐसी कोई परेशान होने की बात नहीं अगर किसी मज़बूरी व परेशानी की वजह से इफ़तार न कर सका या इस में ताख़ीर हो गई तब तो कोई परेशान होने की बात ही नही है बे वजह जानबूझ कर इफ़तार न करे तब भी रोज़ा ख़राब न होगा हां ऐसा करना सुन्नत के सवाब से महरुमी और मकरूह है हां अगर सुन्नत की अदायगी की वजह से वह इफ़तार का सामान तलाश करने के लिये पेरशान होते हैं तो यह बड़ी अच्छी बात है। इफ़तार का बेहतर तरीक़ा यह है कि कुछ खजूर खा ले या पानी पी कर या खाने पीने की कोई और मामूली सी चीज़ ज़ल्दी खा पी कर मग़रिब की नमाज़ जमाअत से अदा की जाये जो लोग इफ़तार के वक़्त खाने पीने में लगे रहते हैं और सिर्फ़ इस वजह से मगरिब की जमाअत छोड़ देते हैं बजाये सवाब पाने के गुनाहगार होते हैं इफ़तार इतनी ही होना चाहिये कि नमाज़ की पहली तकबीर भी छूटने न पाये।
࿐ जहां लोग घरों से इफ़तार करके आते हों वहां इनके इन्तिज़ार में मग़रिब की जमाअत कायम करने में मामूली और हल्की दो चार मिनट की ताख़ीर कर दी जाये तो कुछ हर्ज़ नहीं लेकिन मग़रिब की नमाज़ में इतनी ताख़ीर कि तारे खूब चमकने लगें यह मकरूह है। इफ़तार की दुआ यह है।
*ऐ अल्लाह मैने तेरी इबादत के लिये रोज़ा रखा और तेरे दिये हुए रिज़्क से इफ़तार की*
࿐ जो अरबी के कलमात अदा न कर सके वह उर्दू वगैरह मे भी 'दुआ पढ़ सकता है। सही यह है कि इफ़तार की दुआ रोज़ा इफ़तार करने के बाद पढ़ी जाये अगर कोई शख्स पहले पढ़े तो उसको समझा दिया जाये लेकिन इस क़िस्म के मसाईल में आम लोगों को बहस व मुबाहिसे में नहीं पड़ना चाहिये।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 19-21 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ इफ़तार पार्टिया!? ❞*
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࿐ आजकल रमज़ान के रोज़े की इफ़तार जो एक इस्लामी सुन्नत है वह एक फ़ैशन बन गई है इन मौजूदा दौर की फ़ैशनएबिल सियासी इफ़्तार पार्टियों से बचना चाहिये इन में कई तरह की ख़राबियां पाई जाती हैं।
࿐ पहली बात तो यह है कि इन इफ़तार पार्टियों में अक़्सर जगह दुनिया दार बे रोज़ेदार लोग दावत देकर बुलाये जाते हैं यहां तक कि ग़ैर मुस्लिमो तक को शरीक किया जाता है। मैं पूछता हुँ कि जिनके रोज़े नहीं या जिनके लिये रोज़े हैं ही नहीं उनको इफ़तार के नाम पर जमा करना इफ़तार कराना नहीं बल्कि इस्लामी कामों का एक तरह से मज़ाक उड़ाना है ग़ैर मुस्लिमों से कोई दुनयवी तअल्लुक़ात रखने में कोई गुनाह नहीं लेकिन उनके मज़हब से ख़ुद को बचाना और अपने मज़हब को उनसे बचाना ज़रूरी है उनसे दुनियवी ज़ाहिरदारियां और ताल्लुक़ात तो हो सकते हैं। लेकिन मज़हबी घाल मेल नहीं होना चाहिये।
࿐ बाज़ जगह तो इन इफ़तार पार्टियों में यह तक देखा कि मालदार दौलतमन्द और सियासी रहनुमा और बे रोज़ेदारों और ग़ैर मुस्लिमों की ख़ूब आओ भगत होती है और नमाज़ी रोज़ेदार बा शरअ दीनदार मुसलमानों की तरफ़ कोई तवज्जो नहीं दी जाती इन की ना क़दरी होती है और इन्हे भी अपनी ना क़दरी कराने में बहुत मज़ा आता है वरना यह वहां ना जाते कुछ जगह इफ़तार पार्टियों में खड़े खड़े या मेज़ कुर्सी वग़ैरह पर बैठ कर जूते पहने पहने खाया पिया जाता है यह एकदम शरिअत के खिलाफ़ और मकरूह है और यह सिर्फ़ इफ़तार में ही नहीं बल्कि हर ख़ाना जो इस तरह खाया जाये वह ममनूअ हैं। और हमारे बहुत से मुसलमान भाई इस पर फख़र महसूस करते हैं बात दरअसल यह है कि मज़हबे इस्लाम और इस के तौर तरीक़ों को ग़ैर मुस्लिम बाद में पहले ख़ुद मुसलमान मिटा रहे हैं और हमारे ही जनाज़े हैं और हमारे ही कांधे हैं।
࿐ इफ़तार पार्टियों में शरीक होकर बहुत सारे लोग मग़रिब की जमाअत छोड़ बैठते हैं बाज़ बाज़ तो सिरे से नमाज़ ही छोड़ बैठते हैं यह सब गुनाह और हराम है। ख़ुलासा यह कि आज की अक़्सर इफ़तार पार्टियां रोज़े के इफ़तार कराने का सवाब हासिल करने के लिये नहीं की जाती हैं बल्कि सियासी रोटियां सेंकने और मुसलमानों को रिझाने के हथकंडे है।
࿐ हां अगर मुसलमान लोग आपस में एक दूसरे को रोज़े की इफ़तार करायें ख़्वाह घरों में बुलाकर या मस्जिदों में इफ़तार का सामान भेज कर या राहगीर रोज़ेदारों को रोक कर तो यह सब ख़ालिस इस्लामी काम हैं और जन्नत के सामान हैं। अगर कोई ग़ैर मुस्लिम किसी रोज़ेदार मुसलमान को इफ़तार के लिये खाने पीने का सामान दे तो इसको लेना और खाना गुनाह न होगा जबकि उसको एहसान जतलाने या ख़ुद एहसान की वजह से दबने का ख़तरा न हो और यह भी नहीं समझना चाहिये कि उसको इस का कुछ सवाब मिलेगा जो मुसलमान नहीं उसके लिये आख़रत में कुछ सवाब नहीं हां दुनिया में इन्हें कभी कभी इनकी नेकियों का बदला और इनाम बल्कि ईमान तक दे दिया जाता है। अल्लाह व रसूलﷺ की रहमत दुनिया में ग़ैर मुस्लिमों के लिये भी है लेकिन आख़रत व जन्नत गुलामाने मुस्तफाﷺ के लिए है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 20-21 📚*
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✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ सहरी व इफ़तार के ऐलानात!? ❞*
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࿐ रसूले पाकﷺ के ज़माना-ए-पाक में सहरी के औक़ात की इत्तिला देने के लिये अलग से कोई और तरीक़ा राइज़ न था मग़रिब और फजर की अज़ानें थीं जिन से लोगो को ख़त्मे सहरी और वक़्ते इफ़तार का पता चलता था। बाद में इत्तिला देने के जो और तरीक़े राइज़ हुए उनमें कोई खिलाफे शरअ बात न हो तो कुछ हर्ज़ नहीं क्योंकि हर काम अगरचे वह ज़माना-ए-पाक रिसालत मआबﷺ मे न हुआ हो लेकिन इसमें कोई ख़िलाफे शरअ बात ना पाई जाती हो वह जाइज़ है सहरी इफ़तार के लिये भी अगर इस क़िस्म की आवाज़ से लोगों को मुत्तला किया जाये कि जिसमें मोसिकी, गाने बज़ाने, राग मज़ामीर का अन्दाज़ न हो सिर्फ़ आवाज़ हो जिसमें कोई सुर न हो जाइज़ है जैसे नक्कारे, सायरन या सीटी बजाना, गोले दागना, बन्दूक छोड़ना वगैरह जाइज़ है। और अब चूंकि लाउडस्पीकर से अज़ानें होती है जिनकी आवाजें हर शख़्स को आसानी से पहुंच जाती हैं तो सिर्फ़ अज़ानों ही से काम चलाना ज़्यादा बेहतर है और आवाज़ों की अब कोई ख़ास ज़रूरत नहीं है।
࿐ लेकिन आजकल रमज़ान के महीने में जो सहरी के एलानात लाउडस्पकीकर से होते हैं इनमें हमारी राय यह है कि लोगों को ख़त्मे सहरी से सिर्फ़ एक घण्टा पहले ही जगाया जाये और फिर हर दस पन्द्रह मिनट के बाद एक दो जुमले बोल कर वक़्त बताते रहें रात के वक़्त में लाउडस्पीकर के इतने इस्तेमाल की इजाज़त बहुत काफ़ी है। सहरी में हल्की फुल्की और मामूली गिज़ा खाना सुन्नत है तरह तरह के खाने पकाकर लवाज़मात के साथ ठूंस कर सहरी खाना पसन्दीदा नही है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 22 📚*
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✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ सहरी व इफ़तार के ऐलानात!? ❞*
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࿐ हदीस पाक मे है रसूले खुदा सल्लल्लाहो ने फरमाया। मोमिन के लिये बेहतरीन सहरी छुआरे या खजूरे हैं।
࿐ इससे ज़ाहिर है कि दूसरे खाने भी खाये जा सकते हैं लेकिन हदीस पाक से यह अन्दाज़ा हो जाता कि ज़्यादा बेहतरीन गिज़ा वह है जिसको तैयार करने पकाने की ज़रूरत न पड़े हा पकाई और तैयार की हुई चीज़ें भी खाई जायें तो उनमें ज़्यादा एहतमाम व इन्तिज़ाम से बचा जाये क्यों कि सहरी में खूब पेट भर कर खाना सुन्नत के खिलाफ़ है तो उसके लिये खाना तैयार करने वाली घर की औरतों या नौकरों व नौकरानियों को आधी रात से उठाने और जगाने की क्या ज़रूरत है।
࿐ कुछ घरों में तो गर्मियों में खाना बनाने वाली औरतों की सारी रात तरह तरह के खाने तैयार करने में गुज़र जाती है यह इनके साथ एक तरह की ज़्यादती है और अपने ऐश व आराम के लिये दूसरों को परेशान करना मोमिन की शान नही। और सहरी में जब हल्की फुल्की सादा गिज़ायें सुन्नत और ज़्यादा एहतमाम व इन्तिज़ाम और तरह तरह के खाने पकवाना और खाना बे ज़रूरत है तो कई कई घण्टे पहले से लाउडस्पीकर के ज़रिये हंगामा और शोर मचा कर मख़लूके ख़ुदा को जगाने बल्कि सताने की क्या ज़रूरत है। आधा घण्टा तैयार करने और आधा घण्टा खाने के लिये काफ़ी है और जो ऐश पसंद सारी रात तरह तरह के खाने पकाने पकवाने और खाने में ही गुज़ार देते हैं तो उनकी वजह से सबको उठाने की क्या ज़रूरत है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 23 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ लाउड स्पीकर का बेजा इस्तमाल!? ❞*
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࿐ सहरी खाने पकाने के वक़्त मुसलसल लाउडस्पीकर के ज़रिये नाअते नज़्में या तक़रीरे सुनाना या इनकी कैसेट बजाना किसी सूरत मुनासिब नही है बल्कि इस में नुक्सान और गुनाह का पहलू भी निकल सकता है।
࿐ हो सकता है कोई बन्दा-ए-ख़ुदा इबादत व तिलावत में मशग़ूल हो और आप उसके काम में ख़लल डालते हों अल्लाह तआला की इबादत और कुरआन की तिलावत और ज़िक्र व शुक्र तस्वीह वगैरह का यह सबसे उम्दा और अफ़ज़ल वक़्त है। मुसलमानों में बहुँत से लोग वह भी हैं जिन पर रोज़े फर्ज़ नहीं मसलन हैज़ व निफास वाली औरतें, मुसाफ़िर, सख़्त बीमार, बहुत ज़्यादा बूढ़े छोटे बच्चे उनकी नीन्द ख़राब करना इज़ाये मोमिन है कुछ घरों में गम व रंज सदमे का माहौल होता है लाउडस्पीकर की तेज़ आवाज़ इनके लिये बड़ी मुसीबत से कम नहीं होती।
࿐ जहां आसपास ग़ैर मुस्लिमों की आवादियां हैं इनको आप के रोज़े से क्या मतलब उनकी नीन्दें ख़राब करना उन्हे बे मक़सद परेशान करना ख़िलाफ़े मसलेहत बल्कि ख़िलाफे मज़हब है क्योंकि इस तरह हमारे मज़हब की ग़लत शक़्ल व सूरत लोगो के ज़हन में आयेगी कि यह आम आदमी को परेशान करने वाला और आधी आधी रात से उनकी नींदें ख़राब करने वाला मज़हब है वह अपने मज़हबों और धर्मों के नाम पर कुछ भी करें लेकिन हमारे मज़हब की सही और असली शक़्ल व सूरत दुनिया के सामने आना चाहिये क्या आप ने कभी ग़ौर किया कि क्या वजह है कि हमेशा ग़ैर मुस्लिम तो मुसलमान बनते आये हैं और आज भी बनते हैं लेकिन कोई मुसलमान कभी किसी दूसरे मज़हब में दाखिल नही होता ख़्याल रहे कि यह तभी तक है जब तक हमारे मज़हब का असली चेहरा दुनिया के सामने रहेगा।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 24 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ लाउड स्पीकर का बेजा इस्तमाल!? ❞*
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࿐ मेरे ख़्याल में तो इस वक़्त हिन्दुस्तान में जितने मज़हबी और मसलकी झगड़े लड़ाईयां और फ़साद होते हैं उनमें बड़ा दख़ल लाउडस्पीकर के बेजा इस्तेमाल का है। इसमे कोई शक नही कि हक़ पसन्दो को भी कभी कभी मज़हब व जान व माल इज्ज़त आबरू की हिफाज़त के लिये हथियार उठाना पड़ जाते हैं लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि मज़हब लड़ाई दंगो मारकाट से न फैले हैं न फैलते हैं। और लाउडस्पीकर के लिए झगड़े लड़ाइयां करना बे मक़सद है। और अब तो बहुत दूर तक आवाज फेकने वाले माइक्रोफोन चल पड़े हैं और हर छोटी बड़ी महफिलों, मजलिसों, जलसों के लिये वह ज़रूरी से होते जा रहे हैं यह कोई ज़्यादा अच्छी बात नहीं है ऐसा लगता है कि दीन जो दिलों में था वह ज़बानों पर आया और फिर वहाँ से निकलकर लाउडस्पीकर में पहुँच गया दिल व ज़बान सब खाली से हो गये।
࿐ मैंने कई जगह की रिपोटें सुनी हैं कि किसी नई जगह नमाज़ शुरू की गई तो किसी को एतराज़ न हुआ लेकिन जब लाउडस्पीकर लगाकर धांसू तक़रीरें वहाँ की गई नातों नज़मों की कैसिटे बजाई गयीं तो ग़ैर मुस्लिमों के कान खड़े हुये और फिर जो नमाज़ व जमाअत होने लगी थी वह भी रूकवा दी गई। बात का ख़ुलासा और निचोड़ इस वक़्त यही है कि रमज़ान में सहरी पकाने खाने के औक़ात में मुख़्तसर ऐलान के ज़रिये थोड़ी थोड़ी देर के बाद लोगों को वक़्त की इत्तेला देते रहें यही काफ़ी है कैसेट लगाने और नातें नज़में और तक़रीरें सुनाने के लिये यह मुनासिब वक़्त नहीं है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 25 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ लाउड स्पीकर का बेजा इस्तमाल!? ❞*
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࿐ और बाज़ जगह तो यह अंधेर है कि मोहल्ले या बस्ती मे क़रीब क़रीब मस्जिदें हैं और रमज़ान में सहरी के वक़्त हर मस्जिद से तेज़ आवाज़ वाले लाउडस्पीकर के ज़रिये नातिया और तक़रीरी प्रोग्राम नशर किये जा रहे हैं और आवाज़ें एक दूसरे से टकरा रही हैं और सिवाये शोर और हंगामे के कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है ऐसा लग रहा है कि जैसे दीनी बातों और इस्लामी आवाज़ों के साथ खिलवाड़ सा हो रहा है। और आजकल दिल दिमाग के मरीज़ों की तादाद बहुत तेज़ी से बढ़ गई है और बढ़ रही है ऐसे मरीज़ों के लिये तेज़ आवाज़ें सख्त नुक्सान देने वाली हैं और यह जो माहौल सामने आया है कि हर शख़्स फ्री है जो जब जहाँ चाहे मजलिसों, महफिलों या ऐलानात के नाम पर अपने घर या किसी मज़हबी मुक़ाम से लाउडस्पीकर लगाकर जबरदस्ती लोगों को सुनाना या परेशान करना शुरू कर देता है इसपर पाबन्दी की सख़्त ज़रूरत है ख़्वाह किसी मज़हब का मामला हो और यह मज़हब का ग़लत इस्तेमाल है।
࿐ महफ़िलों मजलिसों में इस क़िस्म के माइक्रोफ़ोन इस्तेमाल किये जायें जिनकी आवाज़ अन्दर पिंडाल या हाल मे रहे ख़ासकर रात के वक़्त एक अज़ीम इस्लामी बुजुर्ग आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा अलैहिर्रहमा बरेलवी से बुलन्द आवाज़ से कुरआन की तिलावत के बारे में पूछा गया तो फ़रमाया।
࿐ कुरआन मजीद की तिलावत आवाज़ से करना बेहतर है मगर न इतनी आवाज़ से कि अपने आप को तकलीफ़ या किसी नमाज़ी या ज़ाकिर के काम में खलल हो या किसी जायज़ नींद सोने वाले की नींद में ख़लल आये या किसी बीमार को तकलीफ़ पहुँचे या बाज़ार या सराये आम हो या लोग अपने कामकाज में मशगूल हों और कोई सुनने के लियें हाज़िर न रहेगा इन सब सूरतों में आहिस्ता ही पढ़ने का हुक्म है।
📗फतावा रिज़विया जिल्द 23 सफ़हा 383 मतबूआ रज़ा फाउन्डेशन लाहौर
࿐ एक और जगह लिखते है। मगर ऐसा जेहर (ज़ोर से पढ़ना) जिससे किसी की नमाज़, तिलावत या नींद में खलल आवे या मरीज़ को ईज़ा (तकलीफ़) पहुचे नाजाइज़ है।
📗फतावा रिज़विया मज़कूरा सफ़हा 180
࿐ और कोई भी ज़िक्रे ख़ैर वह कुरआन की तिलावत हो या नातें नज़में तक़रीरें जब लोग सुनने के लिये आमादह तैयार न हो अपने काम काज में मशगूल हों तो ज़बरदस्ती उन्हे नहीं सुनाना चाहिये इससे कलामे ख़ैर की अहमियत घटती है और अवाम की नज़र में वैल्यू कम होती है और हो ही रही है ख़ासकर जबसे लाउडस्पीकर चला है तब से।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 26-27 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ नमाज़ मस्जिद मे और ज़रूरियात घर पर!? ❞*
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࿐ रमज़ान शरीफ़ के मुबारक महीने में आम तौर पर मस्जिदों में नमाज़ियों की तादाद खूब ज़्यादा हो जाती है भीड़-भाड़ और रौनक में काफी इज़ाफ़ा हो जाता है ख़ुदा करे पूरे साल ऐसा ही माहौल रहे और हर मुसलमान भाई रोज़ाना का नमाज़ी बन जाये। यहाँ हमें यह बताना है कि इस भीड़-भाड़ की वजह से अक्सर जगह मस्जिदों में वुज़ू करने या दीगर ज़रूरियाते नमाज़ की अदायगी में दिक्क़त और उलझन पैदा होती है कई जगह कई लोगों को मैंने देखा कि वह इस्तन्जा करने के लिये लाइन में लगे फिर वुज़ू के लिये और उनकी जमाअत निकल गई, या कुछ रकअतें छूट गईं और इस सबकी वजह लोगों को इस्लामी मालूमात न होना है। इस्लामी मिज़ाज यह है कि जमाअत से नमाज़ तो मस्जिदों में अदा करना चाहिये और दीगर ज़रूरियात गुस्ल, वुज़ू इस्तन्जा वगैरह घर से करके आने में ज़्यादा सवाब है। पहले ज़माने में मस्जिदों में वुज़ू, गुस्ल इस्तन्जाखाने नहीं बनाये जाते थे सब लोग घरों से ही फारिग होकर आते थे बाद में बनाये गये लेकिन यह भी उन लोगों के लिये जो मुसाफ़िर या परदेसी हों। मुकामी लोगों के लिये इसी में मस्लेहत है और इसी में ज़्यादा सवाब है कि वह घरों से फारिग होकर आयें और पेशाब घर या पाखाना वगैराह मस्जिद में इतने क़रीब हों कि उनकी बदबू मस्जिद में आती है यह बहुँत ज़्यादा बुरी बात है ऐसा करने या कराने या देखकर कुछ न कहने वालों को ख़ुदा के अज़ाब से डरना चाहिये।
࿐ अब तो यहाँ तक देखने में आता है कि बेनमाज़ी बेगैरत लोग मस्जिद में आते हैं और उनसे मुत्तसिल नमाज़ियों के लिये बनाये गये गुस्लखानों लैटरीनों पेशाबघरों वगैराह में अपनी ज़रूरत पूरी करते हैं और बगैर नमाज़ पढ़े चले जाते है। ऐसे लोगों को इन हरक़तों से रोकने के लिये अगर समझाने से न रूकें तो ताक़त का इस्तेमाल किया जाये तो बेजा नहीं है और मुबारक हैं वह ताक़तें कुब्बतें जो दीन के लिये काम में आये। और जो ज़रूरियात की जगहें मस्जिदों की आमदनी से तैयार की गई हैं नमाज़ियों को भी नमाज़ के औक़ात के अलावा उनके इस्तेमाल से बचना चाहिये। आला हज़रत अलैहिर्रहमा फरमाते हैं। कुँए की मुमानेअत नहीं हो सकती रस्सी डोल अगर मस्जिद का है उसकी हिफाज़त करें ग़ैर नमाज़ के लिये इससे पानी न भरने दें।
📗फ़तावा रिज़विया जिल्द नं0 8 सफ़हा 110 मतबूआ लाहौर
࿐ हुज़ूर मुफ्ती-ए-आज़म हिन्द मौलाना मुस्तफा रज़ा खाँ अलैहिर्रहमा बरेलवी फ़रमाते है। अगर नल लगाने वाले की ख़ास मस्जिद ही के लिये नियत हो कि वुज़ू व गुस्ल वगैरह ख़ास नमाज़ के लिये तहारत ही के काम में लिया जाये या इस नल के पानी की कीमत मस्जिद के माल से जपा की जाती है तो इसका पानी घरों को ले जाना जायज़ नही।...✍🏻
📗फ़तावा मुस्तफ़विया सफ़हा 269 मतबूआ रज़ा अकेडमी मुम्बई
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 27-28 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
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*❝ मस्जिदों को शोर से बचाइये!? ❞*
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࿐ मस्जिदों में शोर हंगामे करना उनमें बहस व मुबाहिसे और लड़ाई झगड़े करना चीखना पुकारना ज़ोर ज़ोर से बोलना सब गुनाह है और हुज़ूर ﷺ ने इसे क़यामत की निशानियों मे से बताया है दरअस्ल बात यह है कि अब लोग इतने दुनियादार हो गये हैं कि वह ख़ुदाये तआला से नहीं डरते लेकिन उनका यह निडरपन उन्हे अज़ाबे इलाही से बचा न सकेगा। मस्जिदों को ख़ासकर नमाज़ के औक़ात में तेज़ आवाज़ वाले बिजली के पंखों, कूलरों और जनरेटरों से बचाना बहुत ज़रूरी है आजकल लोग इससे गाफ़िल हैं और यह सरासर इस्लाम के खिलाफ़ है अगर गर्मी ज़्यादा हो तो बेआवाज़ के या हल्की आवाज़ वाले पंखों से काम चला लिया जाये और उनकी तादाद उतनी ही रखी जाये कि जिनसे काम चल जाये। थोड़ी बहुत परेशानी उठाने की आदत डालना भी बहुत ज़रूरी है ख़ासकर अल्लाह तआला और उसके दीन के लिये दुनिया की परेशानी आख़िरत का आराम है।
࿐ कूलरों में उमूमन आवाज़ ज़्यादा होती है इनका इस्तेमाल मस्जिदों में मुनासिब नहीं है। और जनरेटरों को मस्जिदों के आसपास नहीं होना चाहिये और बिजली के पंखों वगैरह का इस्तेमाल भी ज़रूरत के वक़्त ज़रूरत भर ही होना चाहिये जब गर्मी हो तो चलायें। मौसम की तीन हालतें होती है। गर्मी, सर्दी, न गर्मी न सर्दी (नार्मल) जब गर्मी हो तबही ज़रूरत के लायक पंखे वगैरह चलाये जायें। और जब गर्मी न हो यानि सर्दी हो या न गर्मी न ठण्डक तो ऐसे वक़्त चलाना बेज़रूरत है फुज़ूल ख़र्ची है इसका खुदाये तआला के यहाँ हिसाब भी देना पड़ सकता है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 29 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ मस्जिदों को शोर से बचाइये!? ❞*
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࿐ एक मर्तबा में एक मस्जिद में नमाज़ पढ़ने गया न गर्मी थी न ठण्डक मौसम नार्मल और बहुत खुशगवार था पंखे चल रहे थे दिन का वक़्त था मच्छर वगैराह भी न थे मैं ने उन्हे बन्द कर दिया तो एक साहब बड़े नाराज़ होकर बोले क्या आपको ठण्ड लग रही है मैंने कहा क्या आपको गर्मी लग रही है? तो वह ख़ामोश हो गये कोई जवाब न बन पड़ा। घरों में भी इन बातों का ख़्याल रखना चाहिये और हर क़िस्म की फुज़ूल खर्चियों से बचना चाहिये। ख़्याल रहे कि ज़्यादा आराम तलब बन जाना परेशानियों को दावत देना है दुख में सुख है और सुख में दुख आराम में परेशानी है और परेशानी में आराम है आज लापरवाहियों का यह आलम है कि घरों कमरों और हुजरों में बाहर से ताले पड़े हैं अन्दर पंखे चल रहे हैं बल्ब जल रहे हैं कमरे बन्द करने का ध्यान रहा लेकिन सुइच बन्द करने का ध्यान नहीं होता या जानबूझकर लापरवाही बरतते हैं, मौसम नार्मल है और पंखे कूलर, ए.सी चलाये जा रहे हैं बन्द कमरे हैं और लिहाफ गद्दे भी और बेज़रूरत सारी रात हीटर जलाये जा रहे हैं रातों में इतनी तेज़ रोशनियां की जा रही हैं के बिल्कुल दिन बनाने के चक्कर में पड़े हैं यह सब फुज़ूल ख़र्चियां शरअन भी ममनू हैं और बीमारियों को दावत देना भी है और आदतें खराब करके खुद को मुसीबत में डालना भी है।
࿐ और मस्जिदों का तो यह हाल कर रखा है कि दिन भर अपने काम धंधो के लिये खेतों, पैरों, जंगलों, दुकानों, मकानों और फैक्ट्रीयों, कारखानों में गर्मी में सड़ने वाले भी जब मस्जिद में आते हैं तो बिजली का बटन देखते और खोलते आते हैं मस्जिदों में दस पाँच मिनट के लिये भी मामूली सी परेशानी बर्दाश्त नही है। जहाँ नफ़्स कुशी रियाज़तव मुजाहिदे होते थे अब वह मस्जिदें ऐशकदे और आरामगाहें बनती जा रही हैं। लोग होश खो बैठे हैं अब मौत ही इन सोने वाले खो जाएंगी।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 30 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ छोटे बच्चों को मस्जिदों मे न आने दे!? ❞*
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࿐ छोटे कमसिन बच्चे जो नमाज़ की अहमियत को नहीं जानते वह इसको भी एक तरह का खेल समझते हैं मस्जिदों में कूदफ़ांद मचाते हैं उन्हें मस्जिद में आने से रोकना ज़रूरी है उन्हें नमाज़ सिखाना और याद कराना हो तो घरों और मदरसों में सिखाई जाये जब कुछ समझदार हों तो मस्जिदों में लाया जाये। हदीस पाक में है,अपनी मस्जिदों को अपने छोटे बच्चों और पागलों से बचाओ।...✍🏻
📗इब्ने माजा बाब मायकरहो फ़िल मसाजिद सफ़हा 55
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 31 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ इस्लाम में सबसे अच्छा काम!? ❞*
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࿐ इस्लाम मज़हब में सबसे अच्छा काम ख़ुदा के घर यानि मस्जिदों को बनाना उन्हे आबाद करना या कराना उनकी देखभाल रखना और पांचो वक़्त की नमाज़ पढ़ना है मस्जिदों को आबाद करने उनमे नमाज़ पढ़ाने अज़ान देने उनकी सफाई सुथराई करने वालों को भी हर तरह ख़ुश रखना चाहिये ताकि ख़ुदा के घर ख़ुदा के ज़िक्र से आबाद रहें कुछ खानकाहो दरगाहों पर मैने देखा कि वहां लोग जाते हैं और वहां के सज्जादों पीरज़ादों मुजाविरों को लम्बी लम्बी रकमें नज़राने के तौर पर दे आते हैं लेकिन वहां या आबादियों में जो मस्जिदे हैं उनके इमामों मोअज़्ज़िनों सफाई सुथराई रखने वालों की तरफ़ नज़र उठाकर नही देखते इन्हे चाहिये कि उन्हे भी ज़रूर नज़राने दिया करें।
࿐ मस्जिदों को आबाद करने और कराने में जो रक़म ख़र्च होती हैं वह इस्लाम में सबसे बेहतर ख़र्चा है और अल्लाह तआला को राज़ी करने का सबसे बेहतर तरीक़ा आख़िर जो वली और बुजुर्ग बने हैं वह भी तो अल्लाह तआला के घरों से और उसकी इबादत व ज़िक्र करने से बने है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 31 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ एतिकाफ़ का बयान!? ❞*
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࿐ रमज़ान शरीफ़ के आख़िरी अशरे में मस्जिद जमात (जिस मस्जिद में बा जामाअत नमाज़ अदा की जाती है।) में एतिकाफ़ की नीयत से ठहरना सुन्नते मुअक्किदा किफ़ाया है। अगर मुहल्ले बस्ती का एक शख़्स अदा करे तो सबके जिम्मे से उतर जायेगा और कोई न करे तो सब तारिके सुन्न्त हुए। बीस तारीख़ को सूरज डूबने से कुछ पहले मस्जिद में पहुंच जाए और फिर 29 को चांद देखकर या 30 को सूरज डूबने के बाद मस्जिद से बाहर आए। जो एतिकाफ़ करे उसके लिए इन दिनों में हर वक़्त मस्जिद में ही रहना ज़रूरी है। पाखाने, पेशाब, गुस्ले फ़र्ज़ या दूसरी मस्जिद में जुमा पढ़ने के लिए मस्जिद से बाहर जा सकता है। जब कि जिस मस्जिद मैं एतिकाफ़ के लिये बैठे हैं उस में जुमा न होता हो इस क़िस्म की शरई या तबई ज़रूरतों के बगैर बाहर आने से एतिकाफ़ टूट जाएगा।
࿐ सदरुश्शरीया मौलाना अमजद अली साहब रहमतुल्लाह तआला अलैह ने लिखा है कि फ़नाऐ मस्जिद यानी मस्जिद के अन्दर की वह जगहें जो नमाज़ के अलावा दूसरे कामों के लिए बनायी गयी हैं, जैसे गुस्ल ख़ाना, जूते उतारने की जगह। ऐसी जगहों में आने से एतिकाफ़ नहीं टूटता।....✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 32 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ एतिकाफ़ का बयान ❞*
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࿐ फ़क़ीहे मिल्लत हज़रत मुफ्ती जलालुददीन अहमद अमजदी साहब रहमतुल्लाह तआला अलैह ने भी यही लिखा है।
*📗फ़तावा फैजुर्रसूल, जिल्द 1, सफ़हा 535*
࿐ एतिकाफ़ में बैठने वाला मस्जिद के अन्दर ज़िक्र व तिलावत, नफ़्ल नमाज़, दुरूद शरीफ़ वगैरह में मशगूल रहे। दीनी इस्लामी किताबों का मुताला, दीन की बातें सीखना सिखाना, पढ़ना पढ़ाना भी बेहतरीन इबादत है। और मोतकिफ़ के लिए यह सब जाइज़ है। दुनियवी बातें करने से भी एतिकाफ़ नहीं टूटता। लेकिन ज़्यादा दुनियवी बातें करने से एतिकाफ़ बे नूर हो जाता है और सवाब में कमी होती है। कुछ लोग एतिकाफ़ में ख़ामोश और चुप चाप बैठे रहते हैं और इसी बे मक़सद चुप रहने को इबादत और सवाब का काम समझते हैं यह उनकी ग़लतफ़हमी है। एतिकाफ़ में चुप रहना भी जाइज़ है लेकिन सिर्फ़ उसको इबादत व सवाब समझना जहालत व बेवकूफी है। मोतकिफ़ के लिए मस्जिद में खाना पीना, लेटना बैठना और सोना जाइज़ है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला रमज़ान का तोहफ़ा सफ़ह 33 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ एतिकाफ़ का बयान!? ❞*
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࿐ एतिकाफ की नियत से, अल्लाह के वास्ते, मस्जिद में ठहरने का नाम एतिकाफ है। "एतिकाफ" 3 किस्म का है।
࿐ *(नंबर 1-) वाजिब*
࿐ *(नंबर 2-)सुन्नते मुअक्किदह*
࿐ *(नंबर 3-) मुस्तहब*
࿐ *एतिकाफ़ वाजिब" यह नज़र का एतिकाफ है जैसे:-* "किसी ने यह मन्नत मानी कि फला काम हो जाएगा तो मैं 1 दिन या 2 दिन का एतिकाफ करूंगा" तो यह एतिकाफ वाजिब है, इसका पूरा करना ज़रूरी है। ऐतिकाफ वाजिब के लिए रोज़ा रखना शर्त है, बगैर रोज़े के एतिकाफ सही नहीं। "एतिकाफ ए सुन्नत ए मुअक्किदह" यह रमज़ान के पूरे अशरा ए आख़िरह 'यानी आखिर के 10 दिन' में किया जाए। यानी 20वें रमज़ान को सूरज डूबते वक्त एतिकाफ की नियत से मस्जिद में मौजूद हुआ और तीसवीं को सूरज डूबने के बाद या 29वीं को चांद होने के बाद निकला। अगर 20 तारीख को बाद नमाज़े मग़रिब एतिकाफ की नियत की तो सुन्नते मुअक्किदह अदा ना होगी। यह एतिकाफ सुन्नते मुअक्किदह किफ़ाया है। अगर सब छोड़ दें तो सब पकड़े जाएं (यानी सब गुनहगार हो) और अगर एक ने भी कर लिया तो सब छूट जाएं। इस एतिकाफ में भी रोज़ा शर्त है मगर वही रमज़ान के रोज़े काफी हैं।
*📖 दुर्र-ओ-हिन्दयह हिदायाह वग़ैरह*
࿐ "एतिकाफ ए मुस्तहब" एतिकाफ ए वाजिब, और एतिकाफ ए सुन्नत ए मुअक्किदह के अलावा जो एतिकाफ किया जाए वह मुस्तहब है। एतिकाफ ए मुस्तहब के वास्ते रोज़ा शर्त नहीं यह थोड़ी देर का भी हो सकता है,, मस्जिद में जब-जब जाए उस एतिकाफ की नियत कर ले चाहे थोड़ी ही देर मस्जिद में रह कर चला आए जब चला आएगा एतिकाफ ख़त्म हो जाएगा। नियत में सिर्फ इतना काफी है,, कि मैंने खुदा के वास्ते एतिकाफ ए मुस्तहब की नियत की।...✍🏻
*📗आलम गिरी बहारे शरीअत वगैरह*
*📫 ग़लत फेहमियां और उनकी इस्लाह, सफ़्हा न. 74-75 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ मर्द और औरत के एतिकाफ़ मे क्या फ़र्क है ❞*
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࿐ *मसअला::-* मर्द के एतिकाफ के लिए मस्जिद ज़रूरी है.. और औरत अपने घर की उस जगह में एतिकाफ करें जो जगह उसने नमाज़ के लिए मुक़र्रर की हो।
📙 हिदाया रद्दल मुख्तार और बहारे शरीयत वगैरह)
࿐ मसअला:- मुअ'तकिफ़ "यानी एतिकाफ करने वाला" को मस्जिद से बगैर उज़्र निकलना हराम है, अगर निकला तो एतिकाफ टूट जाएगा चाहे भूल कर ही निकला हो जब भी। यूं ही औरत अगर अपने एतिकाफ की जगह से निकली तो एतिकाफ जाता रहा चाहे घर ही में रहे।
📙आलमगीरी और रद्दल मुख्तार
࿐ और मस्जिद से निकलने के दो उज़्र हैं एक "तब'ई" दूसरा "शरई" तब'ई उज़्र यह है जैसे:- पाखाना पेशाब इस्तिंजा फ़र्ज़ ए गुस्ल वुज़ू (जब के गुस्ल और वुज़ू की जगह मस्जिद में ना बनी हो मस्जिद में बड़ा होज़ न हो) "शरई उज़्र" यह है जैसे:- ईद या जुमे की नमाज़ के लिए जाना। अगर एतिकाफ वाली मस्जिद में जमाअत ना होती हो तो जमाअत के लिए भी जा सकता है। इन उज़रों के सिवा किसी और वजह से अगर थोड़ी देर के लिए भी एतिकाफ की जगह से बाहर निकला तो एतिकाफ जाता रहा, "अगरचे भूल कर ही निकला हो।...✍🏻
*📬 बा-हवाला, क़ानून-ए-शरीअत, हिस्सा 1, सफ़्हा न. 192 मकतबा ए क़ादरिया, पुराना एडिशन 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ मर्द और औरत के एतिकाफ़ मे क्या फ़र्क है ❞*
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࿐ मसअला: मुअ'तक़िफ़ रातो दिन मस्जिद ही में रहे वही खाए-पीए सोए इन कामों के लिए मस्जिद से बाहर होगा तो एतिकाफ टूट जाएगा।
📙 दुर्रे मुख्तार हिदाया बगैरा
࿐ मसअला: मुअतकिफ़ के सिवा और किसी को मस्जिद में खाने पीने सोने की इजाज़त नहीं है, और अगर कोई दूसरा यह काम (खाना पीना) करना चाहे तो एतिकाफ की नियत करके मस्जिद में जाए और नमाज़ पढ़े या जिक्र ए इलाही करें फिर यह काम कर सकता है,, मगर खाने-पीने में यह एहतियात लाज़िम है की मस्जिद आलूदह (गन्दी) ना हो।
📙 रद्दुल मुख़्तार ओ बहारे शरीअत वग़ैरह
࿐ मुअतकिफ़ को अपनी ज़रूरत या बाल बच्चों की ज़रूरत से मस्जिद में खरीदना या बेचना जायज़ है जबकि वह चीज़ मस्जिद में ना हो। या हो तो थोड़ी हो कि जगह घेर ले। अगर यह ख़रीद-फरोख्त तिजारत की नियत से हो तो नाजायज़ है,, चाहे वह चीज़ मस्जिद में ना हो जब भी।...✍🏻
📙 दुर्रे मुख्तार और बहारे शरीयत बगैरा
*📬 बा-हवाला, क़ानून-ए-शरीअत, हिस्सा 1, सफ़्हा न. 192 मकतबा ए क़ादरिया, पुराना एडिशन 📚*
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*तोहफ़ा ए माहे रमज़ान*
✍🏻 अज़ क़लम मौलाना तत्हीर अहमद रज़वी ✍🏻
*❝ मर्द और औरत के एतिकाफ़ मे क्या फ़र्क है ❞*
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࿐ मसअला: मुअतकिफ़ न बात करे न चुप रहे, बल्कि क़ुरआन शरीफ की तिलावत, हदीस की किराअत, और दुरूद शरीफ की कसरत करे, और इल्मे दीन का दरसो तदरीस करे,, अम्बिया ओ ओलिया ओ सालिहीन के हालात पढ़े, या दीनी बातें लिखे।
࿐ मसअला: अगर नफ़ल एतिकाफ तोड़ दे तो उसकी क़ज़ा नहीं,, और सुन्नते मुअक्किदह एतिकाफ अगर तोड़ा तो जिस दिन तोड़ा तो फक़त उस 1 दिन की क़ज़ा करे.. पूरे दिनों की क़ज़ा वाजिब नहीं.. और मन्नत का एतिकाफ तोड़ा तो अगर किसी मुकर्रर महीने की मन्नत थी तो बाकी दिनों की क़ज़ा करे वरना अगर अलल इत्तिसाल वाजिब हुआ था तो सिरे से फिर से एतिकाफ करे, और अगर अलल इत्तिसाल वाजिब न था तो बाक़ी का एतिकाफ करे।
࿐ मसअला: एतिकाफ जिस वजह से भी टूटे चाहे क़सदन या बिला क़स्द (जानबूझकर या धोखे से) बहरहाल क़ज़ा वाजिब है।...✍🏻
*📬 बा-हवाला, क़ानून-ए-शरीअत, हिस्सा 1, सफ़्हा न. 192 मकतबा ए क़ादरिया, पुराना एडिशन 📚*
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